तुमने उसे पत्थर समझ
जोर से पटका--
कि जानो आग कितनी है !
तुमने उसे पारस समझ
जोर से रगडा--
कि जानो तुम्हारे संशयों में
सच्चाई कितनी है !
तुमने उसे स्वलिखित कविता समझ
निःशब्द पढ़ डाला--
कि जानो तुम्हारे संप्रेषणों में
अर्थपूर्ण बात कितनी है !
सच है,
तुमने उसे पत्थर समझ
जोर से पटका--
पत्थर के कण-कण बिखरे
क्षत-विक्षत हुआ था फर्श
और बिखरे कण छिटककर
दूरस्थ आत्मीय और हितैषी
बंधुओं को भी लगे थे--
तुम ही अनजान थे इससे !
तुम्हीं अनजान थे इससे
कि टूटे और तडके थे--
उनकी मन-वीणा के तार
बिखरकर रह गए थे
आशाओं के अम्बार !
पीड़ा थी--
असह्य पीड़ा,
बोझिल था मन,
विथकित और असहाय था--
प्रकृति का तन !
तुम उन्हें ही टेरने लगे पहले,
उस पुनीता कि कथा
पहुंचाई थी तुमने
स्वजन पंचों के बीच--
वे सभी मूक-द्रष्टा ही रहे--
ईश्वर बने !
तभी तुमने फिर ये चाहा
कि सहेजूँ उसी पत्थर को--
समेटूं -- अंजुरी भर लूं !
छद्म वेश में,
नए आवेश में--
तुम फिर बढे...
पर हाय, नियति की रूप-रेखा,
जिसे तुमे पत्थर समझ
फर्श पर था जोर से पटका--
वह तो स्फटिक रत्न था,
कण-कण बिखरकर
वह भी अपनी नियति पर स्तब्ध था !
तुमने उसे पत्थर समझकर
था जोर से पटका
और विधाता ने तुम्हारे हाथ से
यूँ ही अचानक
जो मिला था रत्न--
वह झटका !!
9 टिप्पणियां:
गहरे भाव लिए हुए अद्भुत रचना..
बेहद गहन अभिव्यक्ति………अति सुन्दर्।
सुन्दर लेखन।
इस सारगर्भित रचना को पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
बहुत बढ़िया!
शीर्षक बड़ा जोरदार है..
तुमने उसे स्वलिखित कविता समझ
निःशब्द पढ़ डाला--
कि जानो तुम्हारे संप्रेषणों में
अर्थपूर्ण बात कितनी है !
बहुत सुन्दर कविता. पाठकों तक बात उसी भाव में
पहुंचती है, जिसमें अपना कविता रची है.
ठीक कह रहे हैं देवेन्द्र जी, शीर्षक बहुत शानदार है. पिछले दिनों कई नजदीकी घरों में आत्महत्या के प्रकरण हुए, आज यहां आई तो उम्मीदों की आत्महत्या...
तुमने उसे पत्थर समझकर
था जोर से पटका
और विधाता ने तुम्हारे हाथ से
यूँ ही अचानक
जो मिला था रत्न--
वह झटका !!
aapki rachna to har baar hi adbhut hoti hai aur gahraai asim .man ko sukoon milta hai yahan aakar .ati uttam .
हमारे हाथ के पत्थर और रत्नों मे बस एक संशय का फ़ासला होता है..और इस संशय की दीवार पार करने के बाद ही हमें रत्न को परख पाने की पात्रता मिलती है..हमारी जिंदगी मे ईश्वर ऐसे बहुत से रत्न हमारे हाथों मे देता है जिन्हे हम पत्थर समझ कर तोड़ दी हैं..और यही हमारी पात्रता की परीक्षा भी होती है..उसके बाद तो..
तभी तुमने फिर ये चाहा
कि सहेजूँ उसी पत्थर को--
समेटूं -- अंजुरी भर लूं !
छद्म वेश में,
नए आवेश में--
मगर फिर कुछ नही होता..!! एक विचारणीय कविता के लिये आभार..
एक टिप्पणी भेजें