बुधवार, 21 जुलाई 2010

सूरज के अंधेरों से...

तुम में सहस्रों सूर्य का आलोक है,
तुम हजारों जागरण के स्वर बने हो,
तुम को समय की शक्ति का आभास है;
फिर भला क्यों एक जड़ता ने
जकड़ तुम को रखा है,
एक रंगीनी शहर में क्या भरी--
तुम भूल गए जीवन क्या है
और तुम क्या हो ?
मैं समझ नहीं पाता हूँ,
इस झुलसते नीड़ में तुम क्या करोगे ?

मैं समझ नहीं पाता हूँ,
संवादहीनता का शिकार
मुर्दों का यह जुलूस
न जाने कब उस चौराहे पर पहुंचेगा--
जहाँ एक पागल कवि
एक मरी हुई चुहिया को अपनी हथेलियों में दबाये
महात्मा की प्रतिमा के नीचे खड़ा
चिल्लाता होगा,
अनजान बना, जीवन के गीत गाता होगा !

पीड़ा का, हताशा का
बोझ मत रखो हृदय पर,
ज़िन्दगी सारी, जीने की तैयारियों में मत गुजारो
दोष विष पर अब न डालो,
गरल ने ही शिव बनाया है,
आज बुद्धि की बुहारन को
क्रोध के इन अंकुशों से मत कुरेदो,
चुप रहो, यह गीत बनने दो !

लेकिन इस बहरे जुलूस को कौन सुनाये
कौन अपनी आत्मा का चीत्कार प्रकट करे,
हिम्मत साथ नहीं देती,
संज्ञाएँ शून्य हो जाती हैं
और गीत, गद्य हो जाते हैं !

लेकिन, फिर भी,
संवादहीनता का शिकार
यह समय इतना कडवा पेय है
जो मुझमे पैठ नहीं पाता है,
परिस्थियों का खुरदुरापन
और दृढ़ हो जाता है !

9 टिप्‍पणियां:

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत सुंदर
भावप्रवण रचना...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत दिनों के बाद नेट पर एक सुन्दर और गहन भावों से सुसज्जित रतना पढ़ने को मिली!

वाणी गीत ने कहा…

लेकिन इस बहरे जुलूस को कौन सुनाये
कौन अपनी आत्मा का चीत्कार प्रकट करे,
हिम्मत साथ नहीं देती,
संज्ञाएँ शून्य हो जाती हैं
और गीत, गद्य हो जाते हैं...
गीत गद्य हो कर भी अपनी बात कह जाते ही हैं!

कडुवासच ने कहा…

... प्रभावशाली रचना!!!

vandana gupta ने कहा…

एक बेहतरीन गहन अभिव्यक्ति।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

बहुत सुंदर रचना!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत भावपूर्ण रचना!

के सी ने कहा…

जीवन के असंख्य संघर्षों से उपजी हुए चेतना के स्वरों से अनजान बढ़ते जा रहे समूहों का आहवान करती हुई कविता है.
भविष्य के अवसाद को भी चिन्हित करती हुई है. दो तीन बार पढ़ा है इसे फिर से समझने का प्रयास भी करूँगा कि इसमें बातें बड़ी गूढ़ और उपयोगी है जो प्रत्येक जीवन के लिए मेनिफेस्टो जैसी दिख रही हैं.

अपूर्व ने कहा…

मुश्किल समय और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी एक ईमानदार हृदय की सच्चाई भरी आवाज..समय के इस पेय का कड़वापन आपने कविता मे उकेर कर रख दिया है...
मगर यह पंक्तियाँ एक नया दृष्टिकोण दे गयीं..
दोष विष पर अब न डालो,
गरल ने ही शिव बनाया है,
कठिन समय की कविता मे भी संतुलित सकारात्मकता आपकी रचनाओं का स्थायी भाव होती है...