गाँठ पुरानी थी
सदियों से खुली न थी;
लेकिन चुभती तो थी !
वर्षों बाद
मेरी देहरी पर वह आया
मन की एक गाँठ खोल गया !
गाँठ तो खुली,
उसके बल-पेंच रह गए !
विनम्रता से भरी
उसकी मीठी ज़बान में
जितना ज़हर था,
हम निःशब्द पी गए !
ज़हर पीकर भी
हम नीलकंठ तो न हो सके ,
सारी अलामत सिर लेकर भी
साधु न हो सके;
आदमी ही रहे --
सामान्य आदमी !
विष हलक के नीचे उतरा
नस-नाड़ियों में फैला
और नई गाँठें दे गया !!
सदियों से खुली न थी;
लेकिन चुभती तो थी !
वर्षों बाद
मेरी देहरी पर वह आया
मन की एक गाँठ खोल गया !
गाँठ तो खुली,
उसके बल-पेंच रह गए !
विनम्रता से भरी
उसकी मीठी ज़बान में
जितना ज़हर था,
हम निःशब्द पी गए !
ज़हर पीकर भी
हम नीलकंठ तो न हो सके ,
सारी अलामत सिर लेकर भी
साधु न हो सके;
आदमी ही रहे --
सामान्य आदमी !
विष हलक के नीचे उतरा
नस-नाड़ियों में फैला
और नई गाँठें दे गया !!
3 टिप्पणियां:
ज़हर पीकर भी
हम नीलकंठ तो न हो सके ,
सारी अलामत सिर लेकर भी
साधु न हो सके;
आदमी ही रहे --
सामान्य आदमी !
बहुत सुन्दर. आपकी कविताओं पर बहुत कुछ कह सकूं, ऐसी योग्यता नहीं है मुझमें.
वंदनाजी,
आपको धन्यवाद ! आप न होतीं तो गाठें और भी हो जातीं ! गिरह-खोल टिपण्णी के लिए धन्यवाद !
--आ.
अच्छी रचना आनंदवर्धन जी। पर आपका गद्य लेखन अधिक प्रभावी लगा।
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