उत्साह-उमंग और जीवन से भरा था वह बांका जवान ! मेरी ही कंपनी में ट्रक का खलासी था--वह गढ़वाली रामसिंह! गेहुआं रंग, लम्बी-छरहरी काया, लम्बी बाहें--घुटने तक झूलती हुई; आँखें छोटी और नासिक थोड़ी चिपटी। चलता तो लगता, दौड़ रहा है। कुछ बोलता, तो उसकी बात समझने में वक़्त लगता। वैसे वह बोलता ही कम था। उसे हमेशा छुट्टी की पड़ी रहती। न जाने वह कौन-सा पहाड़ी प्रदेश था, जहाँ उसके वृद्ध माता-पिता रहते थे। और, वह उन्हीं के पास जाने के लिए मचलता रहता था। वह तभी मेरे ऑफिस के द्वार पर एक आवेदन-पत्र के साथ मँडराता, जब उसे कभी दस दिनों का, कभी पन्द्रह दिनों का अवकाश चाहिए होता ! मैं उसे बेतरह फटकारता, वह सिर झुकाए सुनता रहता, बोलता कुछ भी नहीं। मैं ही उद्विग्न होकर जब छुट्टी देने से मना कर देता और ऑफिस से बाहर निकल जाने का हुक्म सुनाता, तो बहुत धीमी आवाज़ में नतशिर कहता--'सर, पिताजी बहुत बीमार हैं, या माँ को अस्पताल में भर्ती कराना है, या बहन की सगाई है सर ! मुझे जाना ही पड़ेगा !' तात्कालिक रूप से वही कहता, जो आवेदन में उसने लिखा होता ! आवेदन-पत्र पर मेरी स्वीकृति लेकर ही मेरा पिण्ड छोड़ता वह हठी--रामसिंह !
वह मेरी नौकरी का चौथा और अन्तिम पड़ाव था। हिन्दुजा-बंधुओं की अपार सम्पदा का एक उपेक्षित टुकड़ा--अशोका प्लाईवुड और अशोका थियेटर--ज्वालापुर में, हरद्वार के पास ! मैं वहाँ का प्रबंधक नियुक्त हुआ था ! फैक्ट्री-प्रांगण में ही प्रबंधक का निवास था, जिसमें मैं सपरिवार रहता था। बगल में स्टॉफ क्वार्टर्स थे और गेट के पास भी, अधिकांश कार्य-कर्मी उसी में स्थापित थे। रामसिंह गेट पर बने कॉटेज में था। मेरा दफ्तर भी घर से बीस कदम की दूरी पर था। कांजू, बहेड़ा के विशाल कोमल दरख़्त (सॉफ्ट वुड), जंगलों की कटाई से, हमारी फैक्ट्री को प्राप्त होते, जिनसे प्लाईवुड तैयार किया जाता। अशोका थियेटर में, मुंबई में रिलीज़ के साथ, नयी-नयी फ़िल्में लगतीं और अपार भीड़ आ जुटती--इन सबों पर नियंत्रण रखना मेरी जिम्मेदारी थी। वे मेरी ज़िन्दगी के मशक्कत-भरे दिन थे और दुश्चिंताओं से भरे भी।
एक बार रामसिंह लम्बी छुट्टी पर गया, लौटा तो एक पहाड़ी सुंदर बाला साथ ले आया और पूरी फैक्ट्री में खबर फैल गयी कि रामसिंह विवाह कर लौटा है और उसकी बीवी हिमालयीय सौंदर्य का अनुपम उदाहरण है ! एक महीना उसने अपनी विवाहिता पत्नी के साथ बिताया। समय का वही एक टुकड़ा ऐसा था, जो उसके जीवन में मधुमास-सा बीता। एक महीने बाद वह फिर आवेदन-पत्र के साथ मेरे दफ़्तर के चक्कर काटने लगा। कई कोशिशों के बाद जब वह मेरे सामने आया तो मैंने उपेक्षा-भाव से कहा--'अब क्या है?' वह धीमे से बोला--'सर, उनको घर पहुँचाना है !'
मैंने पूछा--'उनको मतलब ?'
--'घरवाली को साब !'
--'लिहाज़ा, तुमको फिर छुट्टी चाहिए, है न ?'
--'हाँ साब, मजबूरी है !'
--'कैसी मजबूरी? अभी एक महीने पहले ही तो तुम लम्बी छुट्टी से लौटे हो ! ऐसा कैसे चलेगा ?'
--'साब, हमारी तरफ का रिवाज है, महीने बाद पग-फेरा होता है ! उनको लेकर हमको जाना ही होगा। छुट्टी दे दो साब! अब लौटूँगा तो छुट्टी नहीं माँगूँगा।'
हारकर मुझे छुट्टी देनी पड़ी और रामसिंह अपनी सुदर्शना पत्नी को घर छोड़ आया। लौटा, तो उसकी चाल में थोड़ी शिथिलता आ गयी थी और एक गढ़वाली प्रेम-गीत वह सदा गुनगुनाता चलता। गढ़वाली भाषा पर मेरा कोई अधिकार तो था नहीं, लेकिन गीत सुनकर लगता था, जैसे वह प्रेम-गीत ही था ! ...
तीन-एक महीने ही बीते होंगे कि सन् १९८१ का बहुत तप्त महीना मई आ गया। मेरे फारेस्ट-मैनेजर श्रीशर्मा मुझसे बार-बार आग्रह कर रहे थे कि मैं उनके साथ चलूँ और जंगल में चल रहे वृक्ष-कटाई के काम का स्वयं निरीक्षण करूँ। २१ मई ८१ को मैंने जंगल-निरीक्षण के दौरे पर जाना तय किया और अलसुबह श्रीशर्मा, चालक जनकराज शर्मा, क्लीनर रामसिंह के साथ ट्रक से चल पड़ा। ऊबड़-खाबड़, सर्पिल और तीखी चढ़ाइयों-ढलानों से होता हुआ मैं उस स्थल पर पहुँचा, जहाँ हमारे ठेकेदार, मज़दूरों से एक विशाल कांजू वृक्ष को कटवा रहे थे। उसका तना इतना मोटा था कि चार व्यक्ति गोल घेरा बनाकर भी उसे पाश में बाँध नहीं सकते थे। उसे काटकर गिराने में वक़्त लगा। फिर उसे ट्रक में चढाने-लादने की क़वायद शुरू हुई। दिन के लगभग ३ बजे लोडेड ट्रक लेकर हम जंगल से लौट चले। ट्रक-चालक जनकराज के बगल में शर्माजी और खिड़की की सीट पर मैं बैठा था, डले पर चार-पाँच मज़दूर रामसिंह के साथ विराजमान थे। आकाश से अँगारे बरस रहे थे। धरती इतनी तप्त हो उठी थी कि पहाड़ी सड़कों पर धूल की एक मोटी परत जमा हो गई थी, जिसे उड़ाते हुए मंथर गति से हमारा ट्रक आगे बढ़ रहा था। तभी एक खड़ी चढ़ाई सामने आई, जिसे लाँघ जाने पर हम जंगल के अंतिम छोर पर पहुँच जाते !...
लेकिन विधि-विधान कुछ और ही था ! खड़ी चढ़ाई के शीर्ष पर पहुँचने के ठीक पहले ट्रक की शक्ति क्षीण हुई, जनकराज ने ब्रेक लगाया तो ब्रेक-पाइप फट गया और इंजन फेल हो गया। यह सब पलक झपकते हो गया। अब ट्रक पीछे की ढलान पर तेजी लुढ़कने लगा। जनकराज ने चिल्लाकर कहा--'साहब, गड्डी गयी।... ओए रामसिंह, गुट्टा लगा...!' दायीं तरफ गहरी खाई थी और बायीं ओर पहाड़ की चट्टानें ! उसने सावधानी से गाड़ी को बायीं ओर मोड़ा और पहाड़ी की चट्टानों से ट्रक का पिछला हिस्सा टकरा जाने दिया। इस जोरदार टक्कर के बाद ट्रक पलट गया, वह एक करवट और लेने को उत्सुक हुआ, लेकिन कांजू के मोटे तने ने उसे रोक दिया, जिसे काटकर हम साथ ले चले थे। जिस विशाल और हरे-भरे वृक्ष की हत्या कर हम आनंद-मग्न लौट रहे थे, उसी ने हमारी प्राण-रक्षा की थी--इसका बोध होते ही मैं उसके प्रति कृतज्ञता से नत हुआ। आज भी यह सोचकर सिहर उठता हूँ कि अगर ट्रक ने एक करवट और ली होती, तो हमारा क्या होता? निश्चय ही हममें से कोई न बचता--वह गहरी खाई हमें लील गयी होती !...
बहरहाल, ट्रक पलटकर जब स्थिर हुआ, तो मैंने देखा--जनकराज स्टेयरिंग व्हील के नीचे दुबके हुए हैं और शर्माजी अपनी सीट के नीचे गिरे पड़े हैं और मैं न जाने किस युक्ति-संयोग से डले से लटकी एक कुण्डी अपने दाएँ हाथ से थामे धनुषाकार झूल रहा हूँ--मेरा दायां पैर 'स्टेयरिंग बेस' पर है और दूसरा अधर में! पीछे से चीखो-पुकार की आवाज़ें आ रही हैं, विंडस्क्रीन का शीशा पूरा चटख गया है, लेकिन यथास्थान लगा हुआ है ! ट्रक से बाहर निकलने की राह मुझे ही बनानी थी। मैंने अपने बांयें हाथ से कई प्रहार शीशे पर किये, लेकिन वह टूटा नहीं। जनकराज नीचे से चिल्लाया--'साहब, ज़ोर से...!' मैंने अपनी मुट्ठी बाँधी और भरपूर शक्ति से शीशे पर मुक्का मारा। शीशे तो तोड़ते हुए मेरा हाथ शीशे के पार हो गया, फिर अधर में झूलते पाँव से कई प्रहार कर मैंने शीशा ध्वस्त कर दिया और बाहर निकल आया तथा बोनट से होता हुआ भूमि पर आ खड़ा हुआ। मेरे बाद, जनकराज, फिर शर्माजी भी बाहर आये। हम सभी पीछे की ओर भागे। सभी मजदूर हताहत और धूलधूसरित भूमि पर पड़े थे...! लेकिन रामसिंह कहीं दीखता नहीं था..! जनकराज उसे आवाज़ें लगाता नीचे की ढलान पर भागा।..
चढ़ाई के शीर्ष पर पहुँचते ही किसी दूसरे ठेकेदार का कैंप था, वहाँ से बहुत-से लोग हमारी सहायता को दौड़े आये और हमसे आग्रह करने लगे कि 'ऊपर चलकर बैठें, पानी पियें, आपके सब लोग मिल जायेंगे, हम उन्हें ढूँढ लायेंगे, चिंता न करें !' शर्माजी उम्रदराज़ व्यक्ति थे और उन्हें भी गहरी चोट लगी थी, उनके पाँव काँप रहे थे। मैं उनके साथ ठेकेदार साहब के कैंप में आ गया। वहीं मैंने देखा कि मेरे बाएँ हाथ की कलाई से थोड़ा ऊपर एक रक्त-वाहिनी नलिका के कट जाने से निरन्तर रक्तस्राव हो रहा है। मैंने फिक्र नहीं की, मुझसे हज़ार गुना बड़ी पीड़ा भोग रहे थे मेरे सहकर्मी! मैंने जेब से रूमाल निकाला और कटी हुई जगह पर उसे कसकर बाँध लिया। पंद्रह मिनट में वे चार-पाँच मजदूर उठा-पकड़कर ले आये गए। उन सबों की दुरवस्था थी, वे सभी कराह रहे थे और भीषण पीड़ा से चिल्ला भी रहे थे। आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद मैंने देखा, रामसिंह को जनकराज दो अन्य लोगों की सहायता से टाँगकर ला रहा है। उसे छाती में सांघातिक चोट लगी थी।
ठेकेदार साहब ने कृपापूर्वक अपनी दो कारों से हम सबों को तत्काल रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम, कनखल (हरद्वार) भेज दिया। शाम सात बजे हम वहाँ पहुंचे, घायलों का उपचार शुरू हुआ, लेकिन रामसिंह की दशा बिगड़ती जा रही थी। वह मुझसे बार-बार कह रहा था--'मुझे बचा लो साब!' सेवाश्रम के चिकित्सकों का कहना था कि 'तत्काल शल्य-चिकित्सा करनी होगी, रिब की दो हड्डियाँ टूटकर दूसरे ऑर्गन को डैमेज कर गयी हैं। लेकिन यहाँ ऑपरेशन संभव नहीं है, पेशेंट को बी.एच.ई.एल. हॉस्पिटल ले जाएँ।' हम रामसिंह को लेकर वहाँ पहुँचे, लेकिन वहाँ के डॉक्टर्स ने हाथ खड़े कर दिए, कहा--'देखिये, हम बाहर का केस नहीं लेते, वैसे भी यह पुलिस का केस है, रिपोर्ट करवाई है ? आप तो इन्हें तुरंत ऐम्स, दिल्ली ले जाएँ !' मैं गिड़गिड़ाता, मिन्नतें करता रह गया, लेकिन अस्पताल-प्रबंधन का दिल नहीं पसीजा, वे अपने नियमों की दुहाई देते रहे। हम निराश लौट आये। एक भरी-पूरी ज़िन्दगी मेरे बगल से गुज़री जा रही थी और मैं हाथ पकड़कर उसे रोक लेने में नितांत असमर्थ था।
कम्पनी की एम्बेसेडर कार से रामसिंह को दिल्ली भेजने की पूरी व्यवस्था करके रात बारह बजे मैं घर में दाखिल हुआ। पूरा परिवार व्यग्र-चिंतित था। मेरी श्रीमतीजी ने दोपहर में एक दुःस्वप्न देखा था, ठीक उसी वक़्त, जब यह दुर्घटना घटी थी। उनकी विह्वलता संयम की सीमाएँ तोड़ रही थी। खैर, मुझे प्रकृतिस्थ देखकर सबों को तसल्ली हुई। रात डेढ़-दो बजे बमुश्किल मुझे नींद आयी। दो घंटे बाद ही बाहर का शोर-गुल सुनकर मेरी नींद टूट गयी। घबराकर घर से बाहर निकला।
दफ़्तर के बरामदे में रामसिंह चिर-निद्रा में सोया पड़ा था। दिल्ली ले जाते हुए मुज़फ्फरनगर के पहले ही उसकी साँसों की डोर टूट गयी थी। घर से रामसिंह का परिवार आ पहुंचा था और पूरे परिसर में करुण क्रन्दन गूँज उठा था। रामसिंह की सुन्दर पत्नी के बाल बिखरे हुए थे, जिसे अपने ही हाथों से वह नोच रही थी, ज़मीन पर अपनी हथेलियाँ पटक रही थी और भीषण चीत्कार करते हुए विलाप कर रही थी। उसके आर्त्तनाद से दिशाएं प्रकम्पित हो रही थीं। उदयाचल में सूर्य प्रकट होने से डर रहे थे। यह सब देखकर मैं जड़ हुआ जा रहा था। मैं असहाय-सा रामसिंह के पार्थिव शरीर के पास पहुँचा। मेरे मन में भीषण उथल-पुथल मची हुई थी। मैं सोच रहा था, रामसिंह ने सच ही कहा था कि 'वह अब कभी छुट्टी नहीं माँगेगा।' और, एक ही प्रश्न मस्तिष्क में चक्रवात-सा घूम रहा था--"कोई आवेदन तो उसने दिया नहीं था, अवकाश मुझसे माँगा नहीं था और छुट्टी तो मैंने उसे दी ही नहीं थी, वह आखिर चला कैसे गया ?"
उसके बाद वह नौकरी मैं लम्बी कर न सका, त्याग-पत्र देकर १९८२ के अंत में पटना लौट आया ! नौकरी को मेरा वह अंतिम नमस्कार था।
लेकिन, रामसिंह जैसे लोग कहीं जाते नहीं हैं, मन और आत्मा से चिपके रह जाते हैं। रामसिंह भी चिपका रह गया। जीवन के वे २४ घण्टे अविस्मरणीय और त्रासद घंटे थे। उन २४ घंटों को बीते १२ वर्ष हो गए। एक दिन अचानक बाएँ हाथ में वहीं खुजली शुरू हुई, जहाँ ट्रक का शीशा तोड़ते हुए मुझे घाव लगा था। एक-डेढ़ महीने में वहाँ एक गाँठ-सी उभर आयी और फिर पाताल-फोड़ चुंएं (पहाड़ी प्रदेशों में पत्थर के ऐसे बड़े-बड़े कटोरे पाये जाते हैं, जिसमें अनजाने श्रोत से आनेवाला मीठा जल हमेशा भरा रहता है, लोग उसे 'चुआं' कहते हैं) की तरह वहाँ से मृत-रक्त प्रस्रवित होने लगा। मैंने चिंता नहीं की, रुई से पोंछकर कोई क्रीम लगा लेता और मस्त रहता।
लेकिन यह क्या, तीन महीने बाद वहाँ से अबरख के समान चमकता हुआ एक नुकीला पदार्थ झाँकने लगा। चिकित्सक को दिखाया तो उन्होंने उसी वक़्त छोटी-सी शल्य-क्रिया करके शीशे का एक टुकड़ा निकालकर मेरी हथेलियों पर रख दिया। मैं उसे देर तक निहारता रहा। और, चकित होकर सोचता रहा--'तो क्या रामसिंह यहाँ मेरी रगों में छिपे रहे पिछले बारह वर्षों से..?'
आज इतने वर्षों बाद भी कभी दो उँगलियों की संधि में, कभी हथेलियों में, कभी नसों में और कभी केहुनी के पास मीठी पीड़ा की अनुभूति होती है मुझे, तो मैं जान जाता हूँ कि शीशे के किसी छोटे-से कण के रूप में रामसिंह तरंगित हैं मेरी धमनियों में, रक्त-प्रवाह के साथ, आज भी !... प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे यह मीठी पीड़ा मुझसे कभी न छीनें, क्योंकि यह पीड़ा ही मुझे उनकी और रामसिंह की याद दिलाती रहती है !...
वह मेरी नौकरी का चौथा और अन्तिम पड़ाव था। हिन्दुजा-बंधुओं की अपार सम्पदा का एक उपेक्षित टुकड़ा--अशोका प्लाईवुड और अशोका थियेटर--ज्वालापुर में, हरद्वार के पास ! मैं वहाँ का प्रबंधक नियुक्त हुआ था ! फैक्ट्री-प्रांगण में ही प्रबंधक का निवास था, जिसमें मैं सपरिवार रहता था। बगल में स्टॉफ क्वार्टर्स थे और गेट के पास भी, अधिकांश कार्य-कर्मी उसी में स्थापित थे। रामसिंह गेट पर बने कॉटेज में था। मेरा दफ्तर भी घर से बीस कदम की दूरी पर था। कांजू, बहेड़ा के विशाल कोमल दरख़्त (सॉफ्ट वुड), जंगलों की कटाई से, हमारी फैक्ट्री को प्राप्त होते, जिनसे प्लाईवुड तैयार किया जाता। अशोका थियेटर में, मुंबई में रिलीज़ के साथ, नयी-नयी फ़िल्में लगतीं और अपार भीड़ आ जुटती--इन सबों पर नियंत्रण रखना मेरी जिम्मेदारी थी। वे मेरी ज़िन्दगी के मशक्कत-भरे दिन थे और दुश्चिंताओं से भरे भी।
एक बार रामसिंह लम्बी छुट्टी पर गया, लौटा तो एक पहाड़ी सुंदर बाला साथ ले आया और पूरी फैक्ट्री में खबर फैल गयी कि रामसिंह विवाह कर लौटा है और उसकी बीवी हिमालयीय सौंदर्य का अनुपम उदाहरण है ! एक महीना उसने अपनी विवाहिता पत्नी के साथ बिताया। समय का वही एक टुकड़ा ऐसा था, जो उसके जीवन में मधुमास-सा बीता। एक महीने बाद वह फिर आवेदन-पत्र के साथ मेरे दफ़्तर के चक्कर काटने लगा। कई कोशिशों के बाद जब वह मेरे सामने आया तो मैंने उपेक्षा-भाव से कहा--'अब क्या है?' वह धीमे से बोला--'सर, उनको घर पहुँचाना है !'
मैंने पूछा--'उनको मतलब ?'
--'घरवाली को साब !'
--'लिहाज़ा, तुमको फिर छुट्टी चाहिए, है न ?'
--'हाँ साब, मजबूरी है !'
--'कैसी मजबूरी? अभी एक महीने पहले ही तो तुम लम्बी छुट्टी से लौटे हो ! ऐसा कैसे चलेगा ?'
--'साब, हमारी तरफ का रिवाज है, महीने बाद पग-फेरा होता है ! उनको लेकर हमको जाना ही होगा। छुट्टी दे दो साब! अब लौटूँगा तो छुट्टी नहीं माँगूँगा।'
हारकर मुझे छुट्टी देनी पड़ी और रामसिंह अपनी सुदर्शना पत्नी को घर छोड़ आया। लौटा, तो उसकी चाल में थोड़ी शिथिलता आ गयी थी और एक गढ़वाली प्रेम-गीत वह सदा गुनगुनाता चलता। गढ़वाली भाषा पर मेरा कोई अधिकार तो था नहीं, लेकिन गीत सुनकर लगता था, जैसे वह प्रेम-गीत ही था ! ...
तीन-एक महीने ही बीते होंगे कि सन् १९८१ का बहुत तप्त महीना मई आ गया। मेरे फारेस्ट-मैनेजर श्रीशर्मा मुझसे बार-बार आग्रह कर रहे थे कि मैं उनके साथ चलूँ और जंगल में चल रहे वृक्ष-कटाई के काम का स्वयं निरीक्षण करूँ। २१ मई ८१ को मैंने जंगल-निरीक्षण के दौरे पर जाना तय किया और अलसुबह श्रीशर्मा, चालक जनकराज शर्मा, क्लीनर रामसिंह के साथ ट्रक से चल पड़ा। ऊबड़-खाबड़, सर्पिल और तीखी चढ़ाइयों-ढलानों से होता हुआ मैं उस स्थल पर पहुँचा, जहाँ हमारे ठेकेदार, मज़दूरों से एक विशाल कांजू वृक्ष को कटवा रहे थे। उसका तना इतना मोटा था कि चार व्यक्ति गोल घेरा बनाकर भी उसे पाश में बाँध नहीं सकते थे। उसे काटकर गिराने में वक़्त लगा। फिर उसे ट्रक में चढाने-लादने की क़वायद शुरू हुई। दिन के लगभग ३ बजे लोडेड ट्रक लेकर हम जंगल से लौट चले। ट्रक-चालक जनकराज के बगल में शर्माजी और खिड़की की सीट पर मैं बैठा था, डले पर चार-पाँच मज़दूर रामसिंह के साथ विराजमान थे। आकाश से अँगारे बरस रहे थे। धरती इतनी तप्त हो उठी थी कि पहाड़ी सड़कों पर धूल की एक मोटी परत जमा हो गई थी, जिसे उड़ाते हुए मंथर गति से हमारा ट्रक आगे बढ़ रहा था। तभी एक खड़ी चढ़ाई सामने आई, जिसे लाँघ जाने पर हम जंगल के अंतिम छोर पर पहुँच जाते !...
लेकिन विधि-विधान कुछ और ही था ! खड़ी चढ़ाई के शीर्ष पर पहुँचने के ठीक पहले ट्रक की शक्ति क्षीण हुई, जनकराज ने ब्रेक लगाया तो ब्रेक-पाइप फट गया और इंजन फेल हो गया। यह सब पलक झपकते हो गया। अब ट्रक पीछे की ढलान पर तेजी लुढ़कने लगा। जनकराज ने चिल्लाकर कहा--'साहब, गड्डी गयी।... ओए रामसिंह, गुट्टा लगा...!' दायीं तरफ गहरी खाई थी और बायीं ओर पहाड़ की चट्टानें ! उसने सावधानी से गाड़ी को बायीं ओर मोड़ा और पहाड़ी की चट्टानों से ट्रक का पिछला हिस्सा टकरा जाने दिया। इस जोरदार टक्कर के बाद ट्रक पलट गया, वह एक करवट और लेने को उत्सुक हुआ, लेकिन कांजू के मोटे तने ने उसे रोक दिया, जिसे काटकर हम साथ ले चले थे। जिस विशाल और हरे-भरे वृक्ष की हत्या कर हम आनंद-मग्न लौट रहे थे, उसी ने हमारी प्राण-रक्षा की थी--इसका बोध होते ही मैं उसके प्रति कृतज्ञता से नत हुआ। आज भी यह सोचकर सिहर उठता हूँ कि अगर ट्रक ने एक करवट और ली होती, तो हमारा क्या होता? निश्चय ही हममें से कोई न बचता--वह गहरी खाई हमें लील गयी होती !...
बहरहाल, ट्रक पलटकर जब स्थिर हुआ, तो मैंने देखा--जनकराज स्टेयरिंग व्हील के नीचे दुबके हुए हैं और शर्माजी अपनी सीट के नीचे गिरे पड़े हैं और मैं न जाने किस युक्ति-संयोग से डले से लटकी एक कुण्डी अपने दाएँ हाथ से थामे धनुषाकार झूल रहा हूँ--मेरा दायां पैर 'स्टेयरिंग बेस' पर है और दूसरा अधर में! पीछे से चीखो-पुकार की आवाज़ें आ रही हैं, विंडस्क्रीन का शीशा पूरा चटख गया है, लेकिन यथास्थान लगा हुआ है ! ट्रक से बाहर निकलने की राह मुझे ही बनानी थी। मैंने अपने बांयें हाथ से कई प्रहार शीशे पर किये, लेकिन वह टूटा नहीं। जनकराज नीचे से चिल्लाया--'साहब, ज़ोर से...!' मैंने अपनी मुट्ठी बाँधी और भरपूर शक्ति से शीशे पर मुक्का मारा। शीशे तो तोड़ते हुए मेरा हाथ शीशे के पार हो गया, फिर अधर में झूलते पाँव से कई प्रहार कर मैंने शीशा ध्वस्त कर दिया और बाहर निकल आया तथा बोनट से होता हुआ भूमि पर आ खड़ा हुआ। मेरे बाद, जनकराज, फिर शर्माजी भी बाहर आये। हम सभी पीछे की ओर भागे। सभी मजदूर हताहत और धूलधूसरित भूमि पर पड़े थे...! लेकिन रामसिंह कहीं दीखता नहीं था..! जनकराज उसे आवाज़ें लगाता नीचे की ढलान पर भागा।..
चढ़ाई के शीर्ष पर पहुँचते ही किसी दूसरे ठेकेदार का कैंप था, वहाँ से बहुत-से लोग हमारी सहायता को दौड़े आये और हमसे आग्रह करने लगे कि 'ऊपर चलकर बैठें, पानी पियें, आपके सब लोग मिल जायेंगे, हम उन्हें ढूँढ लायेंगे, चिंता न करें !' शर्माजी उम्रदराज़ व्यक्ति थे और उन्हें भी गहरी चोट लगी थी, उनके पाँव काँप रहे थे। मैं उनके साथ ठेकेदार साहब के कैंप में आ गया। वहीं मैंने देखा कि मेरे बाएँ हाथ की कलाई से थोड़ा ऊपर एक रक्त-वाहिनी नलिका के कट जाने से निरन्तर रक्तस्राव हो रहा है। मैंने फिक्र नहीं की, मुझसे हज़ार गुना बड़ी पीड़ा भोग रहे थे मेरे सहकर्मी! मैंने जेब से रूमाल निकाला और कटी हुई जगह पर उसे कसकर बाँध लिया। पंद्रह मिनट में वे चार-पाँच मजदूर उठा-पकड़कर ले आये गए। उन सबों की दुरवस्था थी, वे सभी कराह रहे थे और भीषण पीड़ा से चिल्ला भी रहे थे। आधे घंटे की प्रतीक्षा के बाद मैंने देखा, रामसिंह को जनकराज दो अन्य लोगों की सहायता से टाँगकर ला रहा है। उसे छाती में सांघातिक चोट लगी थी।
ठेकेदार साहब ने कृपापूर्वक अपनी दो कारों से हम सबों को तत्काल रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम, कनखल (हरद्वार) भेज दिया। शाम सात बजे हम वहाँ पहुंचे, घायलों का उपचार शुरू हुआ, लेकिन रामसिंह की दशा बिगड़ती जा रही थी। वह मुझसे बार-बार कह रहा था--'मुझे बचा लो साब!' सेवाश्रम के चिकित्सकों का कहना था कि 'तत्काल शल्य-चिकित्सा करनी होगी, रिब की दो हड्डियाँ टूटकर दूसरे ऑर्गन को डैमेज कर गयी हैं। लेकिन यहाँ ऑपरेशन संभव नहीं है, पेशेंट को बी.एच.ई.एल. हॉस्पिटल ले जाएँ।' हम रामसिंह को लेकर वहाँ पहुँचे, लेकिन वहाँ के डॉक्टर्स ने हाथ खड़े कर दिए, कहा--'देखिये, हम बाहर का केस नहीं लेते, वैसे भी यह पुलिस का केस है, रिपोर्ट करवाई है ? आप तो इन्हें तुरंत ऐम्स, दिल्ली ले जाएँ !' मैं गिड़गिड़ाता, मिन्नतें करता रह गया, लेकिन अस्पताल-प्रबंधन का दिल नहीं पसीजा, वे अपने नियमों की दुहाई देते रहे। हम निराश लौट आये। एक भरी-पूरी ज़िन्दगी मेरे बगल से गुज़री जा रही थी और मैं हाथ पकड़कर उसे रोक लेने में नितांत असमर्थ था।
कम्पनी की एम्बेसेडर कार से रामसिंह को दिल्ली भेजने की पूरी व्यवस्था करके रात बारह बजे मैं घर में दाखिल हुआ। पूरा परिवार व्यग्र-चिंतित था। मेरी श्रीमतीजी ने दोपहर में एक दुःस्वप्न देखा था, ठीक उसी वक़्त, जब यह दुर्घटना घटी थी। उनकी विह्वलता संयम की सीमाएँ तोड़ रही थी। खैर, मुझे प्रकृतिस्थ देखकर सबों को तसल्ली हुई। रात डेढ़-दो बजे बमुश्किल मुझे नींद आयी। दो घंटे बाद ही बाहर का शोर-गुल सुनकर मेरी नींद टूट गयी। घबराकर घर से बाहर निकला।
दफ़्तर के बरामदे में रामसिंह चिर-निद्रा में सोया पड़ा था। दिल्ली ले जाते हुए मुज़फ्फरनगर के पहले ही उसकी साँसों की डोर टूट गयी थी। घर से रामसिंह का परिवार आ पहुंचा था और पूरे परिसर में करुण क्रन्दन गूँज उठा था। रामसिंह की सुन्दर पत्नी के बाल बिखरे हुए थे, जिसे अपने ही हाथों से वह नोच रही थी, ज़मीन पर अपनी हथेलियाँ पटक रही थी और भीषण चीत्कार करते हुए विलाप कर रही थी। उसके आर्त्तनाद से दिशाएं प्रकम्पित हो रही थीं। उदयाचल में सूर्य प्रकट होने से डर रहे थे। यह सब देखकर मैं जड़ हुआ जा रहा था। मैं असहाय-सा रामसिंह के पार्थिव शरीर के पास पहुँचा। मेरे मन में भीषण उथल-पुथल मची हुई थी। मैं सोच रहा था, रामसिंह ने सच ही कहा था कि 'वह अब कभी छुट्टी नहीं माँगेगा।' और, एक ही प्रश्न मस्तिष्क में चक्रवात-सा घूम रहा था--"कोई आवेदन तो उसने दिया नहीं था, अवकाश मुझसे माँगा नहीं था और छुट्टी तो मैंने उसे दी ही नहीं थी, वह आखिर चला कैसे गया ?"
उसके बाद वह नौकरी मैं लम्बी कर न सका, त्याग-पत्र देकर १९८२ के अंत में पटना लौट आया ! नौकरी को मेरा वह अंतिम नमस्कार था।
लेकिन, रामसिंह जैसे लोग कहीं जाते नहीं हैं, मन और आत्मा से चिपके रह जाते हैं। रामसिंह भी चिपका रह गया। जीवन के वे २४ घण्टे अविस्मरणीय और त्रासद घंटे थे। उन २४ घंटों को बीते १२ वर्ष हो गए। एक दिन अचानक बाएँ हाथ में वहीं खुजली शुरू हुई, जहाँ ट्रक का शीशा तोड़ते हुए मुझे घाव लगा था। एक-डेढ़ महीने में वहाँ एक गाँठ-सी उभर आयी और फिर पाताल-फोड़ चुंएं (पहाड़ी प्रदेशों में पत्थर के ऐसे बड़े-बड़े कटोरे पाये जाते हैं, जिसमें अनजाने श्रोत से आनेवाला मीठा जल हमेशा भरा रहता है, लोग उसे 'चुआं' कहते हैं) की तरह वहाँ से मृत-रक्त प्रस्रवित होने लगा। मैंने चिंता नहीं की, रुई से पोंछकर कोई क्रीम लगा लेता और मस्त रहता।
लेकिन यह क्या, तीन महीने बाद वहाँ से अबरख के समान चमकता हुआ एक नुकीला पदार्थ झाँकने लगा। चिकित्सक को दिखाया तो उन्होंने उसी वक़्त छोटी-सी शल्य-क्रिया करके शीशे का एक टुकड़ा निकालकर मेरी हथेलियों पर रख दिया। मैं उसे देर तक निहारता रहा। और, चकित होकर सोचता रहा--'तो क्या रामसिंह यहाँ मेरी रगों में छिपे रहे पिछले बारह वर्षों से..?'
आज इतने वर्षों बाद भी कभी दो उँगलियों की संधि में, कभी हथेलियों में, कभी नसों में और कभी केहुनी के पास मीठी पीड़ा की अनुभूति होती है मुझे, तो मैं जान जाता हूँ कि शीशे के किसी छोटे-से कण के रूप में रामसिंह तरंगित हैं मेरी धमनियों में, रक्त-प्रवाह के साथ, आज भी !... प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे यह मीठी पीड़ा मुझसे कभी न छीनें, क्योंकि यह पीड़ा ही मुझे उनकी और रामसिंह की याद दिलाती रहती है !...
4 टिप्पणियां:
बहु ही मर्मस्पर्शी प्रसंग . सचमुच रामसिंह जैसे लोग न आसानी से मिलते हैं न ही भुलाए जासकते हैं . संस्मरण को आपके ,ंवेदना ने जीवन्त बना दिया है .
आपका आभार गिरिजाजी...! ब्लॉग की दुनिया में किसी ने तो पढ़ा इस तवील और मार्मिक आलेख को...!
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