"सूरज आया फिर ज़द में,
मैंने भी देखी सुबह उसकी अंगड़ाई
वह बदल रहा था करवट
मैंने दूर से ही पूछा उससे--
'नयी सुबह ले आये क्या तुम,
इसीलिए मुस्काये क्या तुम?'
कुछ तो उसने कहा जरूर,
कुछ सुन न सका मैं,
था उससे बहुत-बहुत दूर।...
वह बदल रहा था करवट
मैंने दूर से ही पूछा उससे--
'नयी सुबह ले आये क्या तुम,
इसीलिए मुस्काये क्या तुम?'
कुछ तो उसने कहा जरूर,
कुछ सुन न सका मैं,
था उससे बहुत-बहुत दूर।...
फिर तो चढ़ आया सूरज
आसमान की छाती पर,
लेकिन थोड़ा निष्प्रभ ही था
मेहराया-सा, ताप-विहीन!
मैंने विनोद में पूछा उससे--
'क्या हुआ रे दिनकर!
कहाँ गया तेरा वह तीखा तेवर
तप्त ताप और तेज प्रखर?
क्यों तू ऐसा निस्तेज खड़ा है
नभ के बीच निस्पंद पड़ा है?'
आसमान की छाती पर,
लेकिन थोड़ा निष्प्रभ ही था
मेहराया-सा, ताप-विहीन!
मैंने विनोद में पूछा उससे--
'क्या हुआ रे दिनकर!
कहाँ गया तेरा वह तीखा तेवर
तप्त ताप और तेज प्रखर?
क्यों तू ऐसा निस्तेज खड़ा है
नभ के बीच निस्पंद पड़ा है?'
बहुत मीठा मुस्काया सूरज,
बोला मीठे स्वर में सूरज--
'अभी-अभी ली है अंगड़ाई,
दम धर ले तू मेरे भाई!
मई-जून तो आने दे
मुझको खुलकर गाने दे,
फ़िक्र बहुत है तुझको मेरी,
और लगी है मुझको तेरी!
बोला मीठे स्वर में सूरज--
'अभी-अभी ली है अंगड़ाई,
दम धर ले तू मेरे भाई!
मई-जून तो आने दे
मुझको खुलकर गाने दे,
फ़िक्र बहुत है तुझको मेरी,
और लगी है मुझको तेरी!
मैं निस्तेज नहीं होता
धीरज कभी नहीं खोता
अनन्त काल से जलता हूँ
निर्धारित पथ पर चलता हूँ।
मेरा तेज नहीं घटता
और प्रदाह नहीं बढ़ता
मैं समभाव में रहता हूँ
विश्रांति बाँटता रहता हूँ।
नर्म लिहाफ़ का सुख ले ले
थोड़ा और सबर कर ले।
फिर बरसेगी अग्नि प्रखर
तू देखेगा मेरा तेवर।
धीरज कभी नहीं खोता
अनन्त काल से जलता हूँ
निर्धारित पथ पर चलता हूँ।
मेरा तेज नहीं घटता
और प्रदाह नहीं बढ़ता
मैं समभाव में रहता हूँ
विश्रांति बाँटता रहता हूँ।
नर्म लिहाफ़ का सुख ले ले
थोड़ा और सबर कर ले।
फिर बरसेगी अग्नि प्रखर
तू देखेगा मेरा तेवर।
फिर, जैसे ही हुई रात
भूल गया मैं दिन की बात
और लिहाफ़ में दुबक गया
सुख-सपनों में बहक गया।
तब सपने में आया सूरज
ग्रीष्म-ताप लाया सूरज!
छोड़ बिछावन, फेंक कंबल
औचक जागा, आँखें मल-मल,
कपड़े स्वेद से भीग गए थे
व्याकुलता के भी लक्षण थे,
जब स्वप्न-ताप से हुआ विकल
तब क्या होगा ना जाने कल।
नाहक सूरज से भिड़ आया
शीत में, ताप से लड़ आया!...
भूल गया मैं दिन की बात
और लिहाफ़ में दुबक गया
सुख-सपनों में बहक गया।
तब सपने में आया सूरज
ग्रीष्म-ताप लाया सूरज!
छोड़ बिछावन, फेंक कंबल
औचक जागा, आँखें मल-मल,
कपड़े स्वेद से भीग गए थे
व्याकुलता के भी लक्षण थे,
जब स्वप्न-ताप से हुआ विकल
तब क्या होगा ना जाने कल।
नाहक सूरज से भिड़ आया
शीत में, ताप से लड़ आया!...
(तेजस्वी सर्य जब उत्तरायण हुए थे... 15 जनवरी, 2017)
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