उसी काल (सन् 1942) की पिताजी से सुनी हुई एक मधुर कथा मन में कौंध रही है। पटना विश्वविद्यालय के रजत-जयन्ती-समारोह में सम्मिलित होने के आमंत्रण पर सुभद्रा कुमारी चौहान और कवि बच्चन पटना पधारे। बच्चनजी और सुभद्राजी ने पत्र द्वारा पटना आगमन की अग्रिम सूचना पिताजी को दी थी। बच्चनजी ने लिखा था कि उनके ठहरने की व्यवस्था विश्वविद्यालय की ओर से अन्यत्र की गयी है, पिताजी वहीं आकर मिलें। इसके पहले बच्चनजी जब कभी पटना आये, पिताजी के पास ही ठहरे। यह पहला मौका था, जब आयोजकों ने उनके ठहरने की व्यवस्था अन्यत्र की थी। इलाहाबाद विश्विद्यालय से उन्हें पर्याप्त अवकाश भी नहीं मिला था। सुभद्राजी से पिताजी के पुराने संबंध थे--अत्यन्त आत्मीय; उनकी प्रथम काव्य-पुस्तिका 'मुकुल' के प्रकाशन-काल से, जिसे पिताजी ने ही इलाहाबाद की अपनी प्रकाशन संस्था 'ओझा-बंधु आश्रम' से प्रकाशित किया था। बहरहाल, निश्चित तिथि पर पिताजी पहले बच्चनजी से मिले, फिर उन्हें साथ लेकर सुभद्राजी के पास पहुँचे। वह पूरा दिन तो विश्वविद्यालय के समारोह में बीत गया और रात की रेलगाड़ी से उन दोनों को क्रमशः इलाहाबाद तथा जबलपुर के लिये प्रस्थान करना था; लेकिन वे दोनों बज़िद हो गये कि उन्हें पिताजी के घर तो जाना ही है। समय कम था और पटना महाविद्यालय से पटनासिटी की दूरी तकरीबन 6-7 किलोमीटर थी। बच्चनजी का तर्क था कि पिताजी के घर गये बिना वह लौट जायेंगे तो उन्हें लगेगा ही नहीं कि वह पटना आये थे। सुभद्राजी की इच्छा उस घर को एकबार प्रणाम करने की थी, जिसमें पिताजी रहते थे। दोनों की शर्त थी कि वहाँ रुकेंगे बिल्कुल नहीं, पर जायेंगे जरूर। पिताजी विवश हो गये और दोनों को अपनी कार से ले चले पटनासिटी की ओर...।
घर पहुँचकर सुभद्राजी ने सकारण (संभवतः पितामह की स्मृति में) आवास को बहुत श्रद्धा-भाव से विनीत प्रणाम किया और पिताजी ने चाय बनवाने की बात पूछी तो बच्चनजी ने वहीं खड़े-खड़े अहाते के गमले से तुलसी-पत्र तोड़े और उसे मुँह में डालकर बोले--'लो, मैं तो तृप्त हुआ, अब लौट चलो।' पिताजी ने प्रतिवाद किया और कहा--'भाई, यह भी क्या बात हुई? एक कप चाय पीने का वक़्त तो है ही अभी।' बच्चनजी ने कहा--'बिल्कुल नहीं है। दो-दो ठिकानों पर जाना है, सामान समेटना और उठाना है, फिर स्टेशन पहुँचना है, वह भी समय से।' पिताजी का मन मान नहीं रहा था, उन्होंने कहा--'तुलसी के दो पत्तों से भला क्या होता है?'
बच्चनजी हुलसकर बोले--'क्यों नहीं होता? जब तुलसी के एक पत्ते से ऋषि दुर्वासा और सम्पूर्ण साधु-समाज तृप्त हो सकता है तो मैं क्यों नहीं हो सकता ?' बच्चनजी के तर्क से पिताजी विवश हो गये और उन्हें अपनी सुभद्रा बहन तथा परम मित्र के साथ तत्क्षण बाँकीपुर लौटना पड़ा था।... रात की गाड़ी में दोनों स्वजनों को बिठाकर, विदा करने के बाद ही, पिताजी घर लौटे थे...!
'आरती' की आभापूर्ण दीपशिखा दो वर्षों तक निष्कंप जलती रही और उसका हर अंक अपनी शान का परिचायक बना रहा। सम्माननीय राजेंद्र बाबू और वात्स्यायनजी ने उसके लिए क्या-कुछ किया, यह तो अवांतर कथा है, लेकिन सन् 42 के द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका में 'आरती' का प्रकाशन असंभव हो गया; क्योंकि बाजार से स्याही और कागज़ नदारद हो गया था। 'आरती' की ज्योति निष्प्रभ हुई।... लेकिन मुझे लगता है, वह अपने दायित्व की पूर्ति कर चुकी थी--साहित्यिक चेतना जगा चुकी थी जन-मन में।
सन् 1948 में पिताजी को आरती मन्दिर प्रेस से एक तरह से बलात् उखाड़कर आकाशवाणी, पटना के प्रांगण में पहुँचा दिया गया। पिताजी की जीवन-दिशा बदल गयी। ये बात और है कि वहाँ भी उनका काम लिखने-पढ़ने का ही था। थोड़े ही समय में वह हिन्दी सलाहकार से हिन्दी वार्ता विभाग के प्रोड्यूसर बना दिये गये। जीवन अपनी राह चल पड़ा और समय को पंख लगे।...
[क्रमशः]
[चित्र : 1) बच्चनजी-मुक्तजी, 1942; 2) सुभद्रा कुमारी चौहान; 3-4) 'आरती' में प्रकाशित कवि-रचनाकारों के चित्र; 5) आरती मन्दिर प्रेस का भग्नावशेष, जो आज भी अतीत की स्मृतियाँ समेटे खड़ा है।]
घर पहुँचकर सुभद्राजी ने सकारण (संभवतः पितामह की स्मृति में) आवास को बहुत श्रद्धा-भाव से विनीत प्रणाम किया और पिताजी ने चाय बनवाने की बात पूछी तो बच्चनजी ने वहीं खड़े-खड़े अहाते के गमले से तुलसी-पत्र तोड़े और उसे मुँह में डालकर बोले--'लो, मैं तो तृप्त हुआ, अब लौट चलो।' पिताजी ने प्रतिवाद किया और कहा--'भाई, यह भी क्या बात हुई? एक कप चाय पीने का वक़्त तो है ही अभी।' बच्चनजी ने कहा--'बिल्कुल नहीं है। दो-दो ठिकानों पर जाना है, सामान समेटना और उठाना है, फिर स्टेशन पहुँचना है, वह भी समय से।' पिताजी का मन मान नहीं रहा था, उन्होंने कहा--'तुलसी के दो पत्तों से भला क्या होता है?'
बच्चनजी हुलसकर बोले--'क्यों नहीं होता? जब तुलसी के एक पत्ते से ऋषि दुर्वासा और सम्पूर्ण साधु-समाज तृप्त हो सकता है तो मैं क्यों नहीं हो सकता ?' बच्चनजी के तर्क से पिताजी विवश हो गये और उन्हें अपनी सुभद्रा बहन तथा परम मित्र के साथ तत्क्षण बाँकीपुर लौटना पड़ा था।... रात की गाड़ी में दोनों स्वजनों को बिठाकर, विदा करने के बाद ही, पिताजी घर लौटे थे...!
'आरती' की आभापूर्ण दीपशिखा दो वर्षों तक निष्कंप जलती रही और उसका हर अंक अपनी शान का परिचायक बना रहा। सम्माननीय राजेंद्र बाबू और वात्स्यायनजी ने उसके लिए क्या-कुछ किया, यह तो अवांतर कथा है, लेकिन सन् 42 के द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका में 'आरती' का प्रकाशन असंभव हो गया; क्योंकि बाजार से स्याही और कागज़ नदारद हो गया था। 'आरती' की ज्योति निष्प्रभ हुई।... लेकिन मुझे लगता है, वह अपने दायित्व की पूर्ति कर चुकी थी--साहित्यिक चेतना जगा चुकी थी जन-मन में।
सन् 1948 में पिताजी को आरती मन्दिर प्रेस से एक तरह से बलात् उखाड़कर आकाशवाणी, पटना के प्रांगण में पहुँचा दिया गया। पिताजी की जीवन-दिशा बदल गयी। ये बात और है कि वहाँ भी उनका काम लिखने-पढ़ने का ही था। थोड़े ही समय में वह हिन्दी सलाहकार से हिन्दी वार्ता विभाग के प्रोड्यूसर बना दिये गये। जीवन अपनी राह चल पड़ा और समय को पंख लगे।...
[क्रमशः]
[चित्र : 1) बच्चनजी-मुक्तजी, 1942; 2) सुभद्रा कुमारी चौहान; 3-4) 'आरती' में प्रकाशित कवि-रचनाकारों के चित्र; 5) आरती मन्दिर प्रेस का भग्नावशेष, जो आज भी अतीत की स्मृतियाँ समेटे खड़ा है।]
5 टिप्पणियां:
बड़ा ही भाग्यशाली समय रहा होगा वह जब साहित्य के आकाश में इतने सितारे एक साथ जगमगाते थे। मेरा बचपन तो इन सितारों को आकाश में खोजने तथा धरती पर उनकी रचनाएँ पढ़ने में ही बीता था...
अगली कड़ी का इंतज़ार । सादर ।
मीनाजी, आपकी टिप्पणी से मेरा आनन्दवर्द्धन हुआ। सचमुच आभारी हूँ। ऐसे समय में जब 'गुन ना हेरानो, गुनगाहक हेरानो है'आप जैसे लोग (पाठक-पाठिकाएं) मिल जाते हैं तो निश्चिय ही खुशी मिलती है!
साभिवादन--आनन्द.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-11-2017) को "अकेलापन एक खुशी है" (चर्चा अंक-2800) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्रीजी,
पोस्ट का लिंक देने के लिए आभारी हूँ!
सादर--आनन्द.
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