एक दिन मुझसे कहा उन्होंने--
'आओ मेरे साथ,
सागर में उतरो,
गहरी भरकर साँस
यार, तुम डुबकी मारो
क्या जाने सागर कब दे दे
रंग-बिरंगे रत्न और--
एक सच्चा मोती!'
चला गया मैं सागर-तट पर
रहा सोचता बहुत देर तक--
साहस संचित कर
बहुत-बहुत श्रम करना होगा,
गहरी साँसें भर
सागर में मुझको गहरे धँसना होगा।
श्रम की आकुल चिंता से
भय-भीरु बना, मैं--
रहा किनारे बैठ!
सागर ने अपने गर्जन-तर्जन से
मुझको थोड़े शब्द दे दिये,
तट पर छोड़ गया जो सागर
चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी
चुनकर उनको मैंने अपनी
अँजुरी भर ली;
उसने मुझको मुद्राएँ दीं
उच्चावच लहरों ने मुझको संज्ञाएँ दीं,
सम्यक् शोध-समन्वय का
अद्भुत सौम्य विचार दिया,
भाव-बोध का सचमुच उसने
मुझको पारावार दिया।
इस जीवन में
रहा खेलता उनसे ही मैं!
जितना मिला
उसीसे मैं तो तृप्त रहा ।
जुगनू-सा मेरा यह जीवन
बुझा-बुझा-सा दीप्त रहा ।
बस, थोड़े-से शब्द,
चिकने पत्थर, कंकड़-सीपी,
अनछुई मुद्राएँ
अनाहत संज्ञाएँ
भाव-बोध और सद्-विचार--
इतना कुछ क्या कम है?
मैंने जीवन जीकर जाना--
करना हर क्षण श्रम है।
गहरे नहीं उतरने का
मुझको क्षोभ नहीं है,
मन पर मेरे अवसादों का
बिलकुल बोझ नहीं है ।
किन्तु, बंधु!
सच है,
मैं बौरा डूबन डरा...
जो रहा किनारे बैठ!
(रचना : 04/05/2010)
2 टिप्पणियां:
आभारी हूँ।
वाह
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