[ब्लॉगर मित्रों ! हिन्दी पखवारे में भारतीय मनीषा के प्रतीक और हिन्दी जगत के उद्भट विद्वान् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी का पुण्य-स्मरण कर रहा हूँ... उनसे मेरा व्यक्तिगत संपर्क नाममात्र का था, लेकिन जो स्मृतियाँ मेरे पास सुरक्षित हैं, आज इस अवसर पर आप सबों के साथ बाँटना चाहता हूँ--आनंद...]
बात १९७७-७८ की है। मैं पूरी तन्मयता से अपने दफ्तर में बैठा काम कर रहा था, अचानक अट्टहासों की गूँज ने चौंका दिया। राजकमल प्रकाशन की प्रबंध-निदेशिका श्रीमती शीला संधू की उपस्थिति में दफ्तर में सुईपटक सन्नाटा छाया रहता था, मजाल किसी की कि कोई उर्ध्व स्वर में कुछ बोल जाए ! लेकिन उस दिन ठहाके-पर-ठहाके लगने लगे और घोर गर्जन-तर्जनवाले उन अट्टहासों से पूरा दफ्तर गुंजायमान होने लगा। मैं अपनी सीट से उठा और ठहाकों का पीछा करता शीलाजी के कक्ष तक पहुँच गया। मेरे आश्चर्य कीसीमा न रही, जब मैंने जाना कि ठहाकों की इबारत उसी कक्ष में लिखी जा रही है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि हिन्दी साहित्याकाश के तेजस्वी नक्षत्र आचार्यश्री हजारीप्रसाद द्विवेदीजी पधारे हैं । उनके नामोल्लेख से ही मैं उत्साहित हो उठा। किंतु शीलाजी के कक्ष में प्रवेश करना अशोभन था। इस भय से कि कहीं मेरी पीठ पीछे वह चले न जाएँ, मैं वहीँ एक पतले गलियारे में टहलता, उनकी प्रतीक्षा करने लगा। बाल्यावस्था से ही मैं उनके बारे में पिताजी से बहुत कुछ सुनता रहा था और पिताजी की पत्र-मञ्जूषा में मैंने हजारीप्रसादजी के कई पत्र भी देखे-पढ़े थे।
हजारीप्रसादजी जब शान्ति-निकेतन में थे, तभी सन १९३६ में पिताजी उनके निकट संपर्क में आए थे। पिताजी ने अपनी पत्रिका 'बिजली' और 'आरती' में उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित की थीं और पत्राचार का क्रम चलता रहा था। उनके एक पत्र की दो-तीन पंक्तियाँ मुझे आज भी शब्दशः याद हैं। 'बिजली' के लिए कोई रचना भेजने के बार-बार के आग्रह पर भी जब रचना नहीं आई तो पिताजी ने उलाहना देते हुए उन्हें पत्र लिखा था। उसी के उत्तर में शान्ति-निकेतन से लिखा हजारीप्रसादजी का पोस्टकार्ड आया था। उनकी पंक्तियाँ थीं--"प्रिय मुक्तजी, वर्ष में एक बार मेरी आँखें मानवती नायिका की तरह रूठ जाती हैं। लिखना-पढ़ना कठिन हो जाता है। अभी कुछ दिन पहले मानिनी का मान भंग हुआ है..." आगे यह आश्वासन था कि लिखना-पढ़ना शुरू हो तो शीघ्र ही आपके लिए सामग्री भेजूंगा।
बात १९७७-७८ की है। मैं पूरी तन्मयता से अपने दफ्तर में बैठा काम कर रहा था, अचानक अट्टहासों की गूँज ने चौंका दिया। राजकमल प्रकाशन की प्रबंध-निदेशिका श्रीमती शीला संधू की उपस्थिति में दफ्तर में सुईपटक सन्नाटा छाया रहता था, मजाल किसी की कि कोई उर्ध्व स्वर में कुछ बोल जाए ! लेकिन उस दिन ठहाके-पर-ठहाके लगने लगे और घोर गर्जन-तर्जनवाले उन अट्टहासों से पूरा दफ्तर गुंजायमान होने लगा। मैं अपनी सीट से उठा और ठहाकों का पीछा करता शीलाजी के कक्ष तक पहुँच गया। मेरे आश्चर्य कीसीमा न रही, जब मैंने जाना कि ठहाकों की इबारत उसी कक्ष में लिखी जा रही है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि हिन्दी साहित्याकाश के तेजस्वी नक्षत्र आचार्यश्री हजारीप्रसाद द्विवेदीजी पधारे हैं । उनके नामोल्लेख से ही मैं उत्साहित हो उठा। किंतु शीलाजी के कक्ष में प्रवेश करना अशोभन था। इस भय से कि कहीं मेरी पीठ पीछे वह चले न जाएँ, मैं वहीँ एक पतले गलियारे में टहलता, उनकी प्रतीक्षा करने लगा। बाल्यावस्था से ही मैं उनके बारे में पिताजी से बहुत कुछ सुनता रहा था और पिताजी की पत्र-मञ्जूषा में मैंने हजारीप्रसादजी के कई पत्र भी देखे-पढ़े थे।
हजारीप्रसादजी जब शान्ति-निकेतन में थे, तभी सन १९३६ में पिताजी उनके निकट संपर्क में आए थे। पिताजी ने अपनी पत्रिका 'बिजली' और 'आरती' में उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित की थीं और पत्राचार का क्रम चलता रहा था। उनके एक पत्र की दो-तीन पंक्तियाँ मुझे आज भी शब्दशः याद हैं। 'बिजली' के लिए कोई रचना भेजने के बार-बार के आग्रह पर भी जब रचना नहीं आई तो पिताजी ने उलाहना देते हुए उन्हें पत्र लिखा था। उसी के उत्तर में शान्ति-निकेतन से लिखा हजारीप्रसादजी का पोस्टकार्ड आया था। उनकी पंक्तियाँ थीं--"प्रिय मुक्तजी, वर्ष में एक बार मेरी आँखें मानवती नायिका की तरह रूठ जाती हैं। लिखना-पढ़ना कठिन हो जाता है। अभी कुछ दिन पहले मानिनी का मान भंग हुआ है..." आगे यह आश्वासन था कि लिखना-पढ़ना शुरू हो तो शीघ्र ही आपके लिए सामग्री भेजूंगा।
बहरहाल, थोडी प्रतीक्षा के बाद हजारीप्रसादजी शीलाजी के कक्ष से बाहर आए और मैंने उनका प्रथम दर्शन किया--दीर्घ काया, उन्नत ललाट, खड़ी नासिका, गौर वर्ण, एक हाथ में छड़ी और चहरे पर असाधारण तेज ! धोती-कुर्ता और खादी की बंडी--उत्तरीय भी कंधे से उतरता हुआ--शोभायमान ! उस दिव्य मूर्ति को देखते ही श्रद्धानत हो जाना स्वाभाविक था। मैं आगे बढ़ा और चरण-स्पर्श करके बोला--"मैं मुक्तजी का ज्येष्ठ पुत्र आनंदवर्धन प्रणाम करता हूँ !" वह किंचित अचकचाए, फिर पूछा--"क्या कहा आपने ? मुक्तजी के पुत्र ? मेरे हामी भरते ही वह उत्साहित होकर बोले--"आजकल कहाँ हैं मुक्तजी ? बहुत दिनों से उनसे संपर्क ही नहीं हुआ। कैसे हैं ?" मैंने उन्हें यथास्थिति बताई। वह प्रसन्न हुए। मेरे कंधे पर अपना दायाँ हाथ रखकर कहने लगे--"दिल्ली में ही हैं तो उनसे कहिये, किसी दिन आकर मिलें। उनसे सत्संग हुए बहुत दिन बीते। और आप क्या करते है ?" मैंने उन्हें अपनी स्थिति बताई-- वह बहुत प्रसन्न हुए। प्यार से मेरे सर पर हाथ रखा, बोले--"परिश्रम और इमानदारी से अपना काम करते रहिये, सफलता की ये ही दो चाभियाँ हैं। " बीच दफ्तर में खड़े-खड़े अधिक बातों की स्थिति न थी। मैंने पुनः प्रणाम किया और हजारीप्रसादजी विदा हुए । पहली मुलाक़ात में ही उनकी आत्मीयता, सरलता और भव्यता का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी प्रकांड विद्वत्ता ने उन्हें विनयी और विनोदी बनाया था। पिताजी कहा करते थे कि हजारीप्रसादजी का अट्टहास घन-गर्जना के समान होता था।
दूसरे दिन फ़ोन पर बातें करके पिताजी हजारीप्रसादजी से मिलने गए थे। मैं अपने दफ्तर से बंधा था, इसलिए हार्दिक इच्छा होने पर भी दुबारा उनके दर्शन से वंचित रह गया। ....
एक वर्ष से कुछ अधिक की अवधि व्यतीत हो गई थी। उस दिन भी मैं राजकमल में ही था, जब फ़ोन पर हजारीप्रसादजी के संघातिक रूप से बीमार होने और अस्पताल में भरती किए जाने की ख़बर आई । मैं विचलित हुआ। देर शाम को जब घर पहुँचा तो यह चिंताजनक सूचना मैंने पिताजी को दी। वह कुछ बोले नहीं, लेकिन उनके चहरे पर उभर आई चिंता की वक्र रेखाएं मैं पढ़ सका था। कुछ दिन तक अस्पताल में रहने के बाद हजारीप्रसादजी को गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के एक विशाल कक्ष में ले आया गया और वहीँ उनकी परिचर्या और चिकित्सा का प्रबंध कर दिया गया। हजारीप्रसादजी अपनी रोग-व्याधि से संघर्ष करने लगे। कभी हालत में सुधार दीखता तो कभी वह और बिगड़ जाती। उनकी हालत अस्थिर बनी हुई थी। .....
{ क्रमशः }
दूसरे दिन फ़ोन पर बातें करके पिताजी हजारीप्रसादजी से मिलने गए थे। मैं अपने दफ्तर से बंधा था, इसलिए हार्दिक इच्छा होने पर भी दुबारा उनके दर्शन से वंचित रह गया। ....
एक वर्ष से कुछ अधिक की अवधि व्यतीत हो गई थी। उस दिन भी मैं राजकमल में ही था, जब फ़ोन पर हजारीप्रसादजी के संघातिक रूप से बीमार होने और अस्पताल में भरती किए जाने की ख़बर आई । मैं विचलित हुआ। देर शाम को जब घर पहुँचा तो यह चिंताजनक सूचना मैंने पिताजी को दी। वह कुछ बोले नहीं, लेकिन उनके चहरे पर उभर आई चिंता की वक्र रेखाएं मैं पढ़ सका था। कुछ दिन तक अस्पताल में रहने के बाद हजारीप्रसादजी को गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के एक विशाल कक्ष में ले आया गया और वहीँ उनकी परिचर्या और चिकित्सा का प्रबंध कर दिया गया। हजारीप्रसादजी अपनी रोग-व्याधि से संघर्ष करने लगे। कभी हालत में सुधार दीखता तो कभी वह और बिगड़ जाती। उनकी हालत अस्थिर बनी हुई थी। .....
{ क्रमशः }
11 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लगा ये संस्मरण पढ़ना। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है। प्रफुल्लजी तो स्वयं संस्मरणों के धनी थे। उन्होंने इस विधा को काफी समृद्ध किया है।
मन खुश हो गया सुबह-सुबह इस संस्मरण लेख को पढ़कर! आगे की कड़ी की प्रतीक्षा है।
आत्मीय संस्मरण को आगे पढ़ने की बलवती इच्छा है, अधिक प्रतीक्षा तो न करनी होगी ना ?
अजित भाई, जब आप लिखते हैं कि 'प्रफुल्लजी ने संस्मरणों ki विधा को बहुत समृद्ध किया है', तो मैंने भी अब तक जान लिया है कि आप एक सुपठित व्यक्ति हैं-- चिन्तक और खोजी पत्रकार हैं. अवश्य ही शब्दों के सफ़र में आपकी दृष्टि पूज्य पिताजी के संस्मरणों पर पड़ी होगी... आपकी उपर्युक्त पंक्ति से मेरी धारणा को बल मिलता है. आभार...
अनूपजी, सुबह-सुबह देव-पितर के दर्शन हो जाएँ तो प्रसन्नता तो होती ही है, सारा दिन मंगलमय हो जाता है... है न ? आपकी टिपण्णी से प्रसन्न हुआ !
किशोर जी, शकील का एक शेर है :
'शकील दूर-ए-मंजिल से नासाज़ न हो,
अब आयी जाती है मंजिल अब आयी जाती है !' आभारी हूँ ! ---आ.
क्या कहे संस्मरण पढने का जो मौका आपने दिया .....इसके लिये मै कृतज्ञ हूँ,बहुत बहुत आभार .........इंतजार रहेगा .....
हिन्दी पखवाड़े में प्रख्यात हिन्दी साधक
"आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी" को नमन!
शेष भाग आज ही पोस्ट कर दीजिये न.पूर एक साथ भि लिख्ते तो भी पाठक रुचि पढने में बनी रहती. कारण भाषा का इतना रोचक और जीवन्त होना ही है. कई बार रोमांच हो आता है ये सोचकर कि जिन महान हस्तियों को हमने केवल पढा है आप उनके सम्पर्क में भी रहे हैं.
द्विवेदी जी के उन्मुक्त अट्टहासों की कहानियाँ सुनी हैं बस..ऐसे शिखरपुरुषों का सानिध्य आपको मिला..मैं बस नमन कर सकता हूँ आपको..
..अगली कड़ी की ज्यादा प्रतीक्षा न करायें..
शुक्लजी,
क्षमा चाहता हूँ, अस्थाने लिख रहा हूँ, आपसे संपर्क का और कोई मार्ग न मिला.
आपकी टिपण्णी उत्साहित करनेवाली थी. लेकिन हजारीप्रसादजी वाले संस्मरण का पहला टुकडा पोस्ट करने के बाद दिल्ली में अजस्र वर्षा हुई और सर्वर बैठ गया. चाहकर भी अंतिम दो किश्तें ११ के पहले पोस्ट न कर सका. अब पूरा संस्मरण ब्लॉग पर है. आप इसे अवश्य पढें और अपनी निर्भीक टिपण्णी दें. आपके ब्लॉग पर 'कमाल कानपुर' का चिटठा देखकर प्रसन्न हुआ. आप यह जानकार प्रसन्न हों कि इस पत्र के सम्पादक श्रीसुनील तिवारी मेरे अनुज (साढू भाई) हैं. उनसे मिलने यदा-कदा कानपुर जाना होता है. कभी आपसे भी मिलना हो सकेगा... शायद... सप्रीत आ.
ओम भाई, शास्त्रीजी, चौरेजी, वंदनाजी और अपूर्वजी,
आप लोगों की टिपण्णी उत्साहित करनेवाली है. पूज्य पिताजी के कारण ही सौभाग्यशाली बना रहा ! उनका वर्चस्व व्यापक था. बड़े-बड़े दिग्गज उन्हें स्नेह और आदर देते थे. पिताजी के जीवन में मैं एक पढ़ी बाद उपस्थित हुआ, फिर भी उनकी प्रभा का प्रभाव तो कुछ-न-कुछ पड़ना ही था मुझ नाकारे पर !
गठरी बड़ी है, लिखता रहूंगा. आप लोगों के आशीर्वाद से ये सहस बटोर रहा हूँ.... आ.
उनकी पंक्तियाँ थीं--"प्रिय मुक्तजी, वर्ष में एक बार मेरी आँखें मानवती नायिका की तरह रूठ जाती हैं। लिखना-पढ़ना कठिन हो जाता है। अभी कुछ दिन पहले मानिनी का मान भंग हुआ है..."ऐसी ही कई बाते हृदय को स्पर्श करती हुई आगे पढ़ने की उत्सुकता जगा रही है मन में .आप तो बहुत भाग्यशाली है जिनके सर पर ऐसे विद्वानों का आशीष रहा है .आपके द्वारा लिखा हर संस्मरण अद्भुत होता है .मैं लगभग एक महीने से बाहर रही आज वापस आई हूँ इस वज़ह से देर हो गयी .
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