[गतांक से आगे]
दूसरे ही दिन ऑफिस में भोजनावकाश के बाद शीलाजी ने मुझे बुलाकर कहा--"तुम गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान चले जाओ। डाक्टरों के अनुसार हजारीप्रसादजी की हालत ठीक नहीं है। देर शाम तक वहीँ रहना, उनकी तबीयत और बिगडे तो फ़ौरन मुझे फ़ोन करना।" मैं तुंरत भागकर गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान पहुँचा। वहां बड़ी हलचल थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी मेरे पहुँचने के ठीक पहले अपने गुरुवर के दर्शन करके लौट गईं थीं। डाक्टरों का एक दल उनकी चिकित्सा में लगा था। बहार लॉन में साहित्यकारों की एक भीड़ जमा थी। सभी के चहरे पर घोर चिंता के बादल थे--सभी बेचैन, व्याकुल ! मैंने दूर से ही हिन्दी के उस तेजस्वी सूर्य को देखा, जो क्रमशः निष्प्रभ होता जा रहा था। मैंने मन-ही-मन उन्हें नमन किया। लम्बी बीमारी से हजारीप्रसादजी का चेहरा निस्तेज हो आया था। मुझे ऐसा लगा कि उन्हें श्वांस लेने में असुविधा हो रही है। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के अहाते में इतने लोग थे, लेकिन वहां अजीक सन्नाटा पसरा था, जिससे मन घबरा रहा था। मैं रात ९ बजे तक वहीँ रहा, फिर घर लौट आया।
इसके बाद एक दिन भी न बीता था कि शाम होते-होते वह ख़बर आ गई, जिसकी आशंका से सबों का मन आतंकित था। हजारीप्रसादजी का जीवन-दीप बुझ गया था। राजकमल में अफरा-तफरी मच गई। दफ्तर बंद कर दिया गया। मैं भागा-भागा घर गया और पिताजी को यह मर्मंतुद समाचार औचक ही दे बैठा। पिताजी धम्म-से चौकी पर बैठ गए। उनके मुंह से दो शब्द निकले--'हे राम !' वह रात मुश्किल से गुजरी। पिताजी से उनकी प्रीति पचास वर्षों की थी--वह मर्माहत थे।
सुबह-सबेरे ९ बजे मैं पिताजी के साथ प्रतिष्ठान पहुंचा। वहां दिल्ली के प्रायः सभी छोटे-बड़े साहित्यकारों की भीड़ जमा थी। पिताजी की दृष्टि जैनेन्द्रजी पर पड़ी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और गले मिलकर भाव-विगलित हो गए। मैं जैनेन्द्रजी के सुपुत्र प्रदीप भाई के पास जा खड़ा हुआ। प्रदीप भाई ने मेरा हाथ देर तक पकड़े रखा। वहां जितने लोग थे, सबकी आँखें भीगी थीं, चहरे पर विषाद की गहरी छाया थी और मन में भावनाओं का विचित्र आलोडन था। सच है, हजारीप्रसादजी के साथ एक युग का अवसान हुआ हुआ था। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के बड़े-से अहाते में सभी मौन खड़े थे--अलग-अलग गुच्छों में ! तभी अज्ञेयजी आए और सीधे जैनेन्द्रजी-पिताजी के पास आकर नमस्कार करते हुए खड़े हो गए। बोले कुछ नहीं । जैनेन्द्रजी ने अपनी धीमी आवाज़ में कुछ कहना चाहा, लेकिन उनका गला रुंध गया। तब पिताजी बोले--"अज्ञेयजी ! इस वज्रपात की आशंका से मन आतंकित था पिछले कुछ दिनों से।" अज्ञेयजी मौन ही रहे। उनकी तेजस्वी आंखों में भी करुणा की छाया थी। पिताजी, जैनेन्द्रजी और अज्ञेयजी को एक साथ खड़ा देख अनेक साहित्यकार उनके पास आते और नमस्कार करके आगे बढ़ जाते। मैं प्रदीप भाई के साथ इन्हीं त्रिमूर्ति के समीप मौन साधे खड़ा था।
प्रतिष्ठान के बाहर राजघाट जानेवाली सड़क पर मोटर-गाड़ियों का लंबा काफिला जमा हो गया था बाहर अन्दर हजारीप्रसादजी की अन्तिम-यात्रा की तैयारियां चल रही थीं। करीब घंटे भर बाद लोग कहने लगे कि निगमबोध घाट पहुंचना है। भीड़ धीरे-धीरे अहाते से बाहर की ओर खिसकने लगी। हम लोग भी बढ़ चले और प्रतिष्ठान के बड़े-से द्वार पर जा पहुंचे। तभी अंदर से कपिला वात्स्यायनजी बहार आयीं और अज्ञेयजी को द्वार पर देख उनके पास जा खड़ी हुईं। उनकी आखों से निरंतर अश्रु-धारा बह रही थी। अज्ञेयजी ने दोनों हाथ जोड़ लिए थे और प्रस्तर मूर्ति बने खड़े थे। रोते-रोते कपिलाजी ने अज्ञेयजी के जुड़े हाथों को थाम लिया और बोलीं--"यह सब क्या हो गया....?" अज्ञेयजी यथावत--मौन, निश्चल रहे ! कपिलाजी की विह्वलता और अज्ञेयजी की निश्चलता में जाने क्या-कुछ था कि यह दृश्य देखकर प्रदीप भाई अपने को रोक न सके, मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे एक ओर खींचते हुए फफक पड़े--"देखो आनंद ... पीड़ा की यह पराकाष्ठा देखो...!" उनकी यह चेष्टा भी थी कि इस विह्वलता पर किसी की दृष्टि न पड़े। दो मिनट बाद ही कपिलाजी रोती-बिलखती अपनी कार की ओर बढ़ गईं।
[शेषांश फिर...]
3 टिप्पणियां:
इस दुःखद घटना का इतना सजीव वर्णन किया है आपने कि क्या कहूँ..मैं वैसे भी आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा मे था..धरती तो हिलती ही है जब इतना बड़ा और पुराना वट-वृक्ष गिरता है..
ब्लौग-जगत में इतना गम्भीर लेखन शायद ही मिले. महामनीषियों के सानिन्ध्य को संस्मरण के रूप में प्रकाशित कर आप हम सब पर बहुत बडा उपकार कर रहे हैं. क्योंकि हमने तो अपनी कोर्स की किताबों में बस इतना ही पढा था कि- हजारीप्रसाद द्विवेदी-जन्म सन- और मृत्यु सन- बस! कैसे कहां और किस माहौल में ये तो आपकी कलम बता रही है. ठीक उसी प्रकार जैसे इसके पहले आपने गुप्त जी और बाबा नागार्जुन के बारे में भी हमें बताया.इतना सजीव चित्रण करते हैं आप कि पूरा माहौल हमारे सामने उपस्थित हो जाता है...
आनन्दवर्धन जी,
जिन मनीषियों को करीब भुला सा दिया गया है या गाहेबगाहे, छठे-चौमासे कर हिन्दी परिवार गौरवान्वित हो जाता है। या जिनका लिखा पढ़ साहित्य से पहला नाता गर्भनाल के तरह बनता है। ऐसे महामनीषियों का सानिध्य, कृपत्व पाना किसी पुण्याई का ही फल हो सकता है और उअन्खि याद दिलाकर और अपने संस्मरण हमसे बाँट आपने बड़ा ही नेक कार्य किया है।
सुश्री वन्दना जी ने सही कहा है, कितना जीवंत वर्णन किया है। आपका आभार कैसे कहूं?
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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