शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : हुआ जब वह अलभ्य दर्शन दुर्लभ...

[शेषांश]


थोडी ही देर बाद, 'राम' की परम सत्यता का उद्घोष करती भीड़ बाहर आयी। हजारीप्रसादजी को कन्धा देनेवालों की अपार भीड़ थी। लेकिन शव-शय्या जैसे ही द्वार पर आई, दीर्घ देह-यष्टि के अज्ञेयजी आगे बढे, उन्होंने एक सज्जन को अलग करते हुए शय्या का एक छोर थाम लिया। फिर उनका अनुसरण करते हुए पिताजी ने, मैंने और प्रदीप भाई ने कंधा दिया। कृश-काया के जैनेन्द्रजी शव-शय्या का स्पर्श करके अलग हो गए थे। उस भीड़ से कदम मिलाकर चल पाना उनके लिए कठिन था। लोग हजारीप्रसादजी को वहाँ ले चले, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।


हम सभी अज्ञेयजी की कार से निगमबोध घाट पहुंचे। हमें घाट के बाहर गाड़ी से उतारकर चालाक अज्ञेयजी के आदेशानुसार चला गया। घाट पर भी बहुत भीड़ थी। बहुत-से लोग सीधे वहीँ पहुंचे थे। उनमे साहित्यकारों के आलावा राजनेता भी थे। वैदिक विधि-विधान और पंडितों के मंत्रोच्चार के बाद अग्नि-संस्कार हुआ। चिता से उठी धूम ने जन-समूह, पेड़-पौधों को अपने पाश में ले लिया। उस धूम-गंध ने मुझे विह्वल कर दिया... ऐसा प्रतीत हुआ किकल तक जिनका वरद-हस्त मेरे सर पर था, आज उनकी सम्पूर्ण सत्ता सर्वत्र व्याप्त होने को अधीर हो उठी है--इन वनस्पतियों में, आकाश में, वायु में, अग्नि में, यमुना के जल में, पृथ्वी के कण-कण में और मुझमे भी ! मेरे मन में तुलसीदासजी की पंक्ति गूंजने लगी--'क्षिति जल पावक गगन समीरा.... ।' और मैं सिहर उठा ! हम सबों ने हिन्दी मनीषा के जीवंत प्रतीक आचार्यश्री के पार्थिव शरीर को पवित्र अग्नि के सुपुर्द कर दिया था। अग्नि-संस्कार के बाद ही लोग-बाग़ धीरे-धीरे बिखरने लगे, लेकिन हम वहीँ बने रहे। धूम अग्नि में परिवर्तित हुई, फिर तेज लपटों ने चिता को भस्मीभूत करना शुरू कर दिया।


पौन घंटे बाद हमलोग भी घाट से बाहर आए और सड़क के किनारे खड़े हो गए। प्रदीप भाई अपने पिताजी के साथ एक वाहन से चले गए, उन्हें दूसरी दिशा में दरियागंज जाना था। बचे हम तीन--अज्ञेयजी, पिताजी और मैं ! पिताजी ने अज्ञेयजी से कहा--"आपकी गाड़ी तो चली गई, अब उस दिशा में कोई जाता हुआ मिल जाए, तो अच्छा हो !" अज्ञेयजी ने बड़ी गंभीरता से कहा--"लोग यहाँ ले तो आते हैं, ले कोई नहीं जाता।" उनके इस वाक्य में छिपी पीड़ा मर्म को छूनेवाली थी। थोडी देर हम वहीँ प्रतीक्षारत रहे। हठात एक गाड़ी पास आकर रुकी। उसे चला रहे थे प्रख्यात कवि रामनाथ अवस्थी । उन्होंने आग्रहपूर्वक हमें गाड़ी में बिठाया और अपने साथ ले चले। सभी मौन थे। मेरे मन में एक ही बात बार-बार उठ रही थी कि अब हजारीप्रसादजी का दुर्लभ दर्शन सदा-सदा के लिए अलभ्य हो गया है, अट्टहासों कि वह गूँज अब सुनने को नहीं मिलेगी कहीं... !

[इति...]

13 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आप भाग्यशाली हैं।
हिन्दी के पुरोधा आचार्य हजारीप्रसाद जी को श्रद्धाञ्जलि।

Randhir Singh Suman ने कहा…

उन्होंने आग्रहपूर्वक हमें गाड़ी में बिठाया और अपने साथ ले चले। सभी मौन थे। मेरे मन में एक ही बात बार-बार उठ रही थी कि अब हजारीप्रसादजी का दुर्लभ दर्शन सदा-सदा के लिए अलभ्य हो गया है, अट्टहासों कि वह गूँज अब सुनने को नहीं मिलेगी कहीं..saty hai.nice

अपूर्व ने कहा…

आपकी संस्मरण लिखने की शैली गजब की है..साहित्य के कितने महान व्यक्तित्वों को आपने इतने करीब से जाना-समझा है..मेरा आपसे अनुरोध है कि ऐसे ही शलाका पुरुषों के संस्मरण की अपनी यह कड़ी आगे जारी रखें..हमारी पूरी पीढी जिसने कि उन महापुरुषों को कुछ कुछ पढ़ा भर है..ज्यादा जाना नही है आपकी कृतज्ञ रहेगी..
अज्ञेय जी ही जीवन की एक जटिल और अलभ्य क़िताब जैसे थे..उनके बारे मे जानने की इच्छा रहती है..ऐसे ही जैनेन्द्र जी की रचना-प्रक्रिया उत्सुकता जगाती है..
..आपके इस महान प्रयास के लिये साधुवाद..

sandhyagupta ने कहा…

अट्टहासों कि वह गूँज अब सुनने को नहीं मिलेगी कहीं... !

हजारीप्रसादजी को शत शत नमन .

ओम आर्य ने कहा…

BAHUT BAHUT AABHARI HAI AAPKE SUNDAR SANSMARAN KE LIYE .........OUR HAJARI PARASAD DIWEDI JI KO KOTI KTOI NAMAN.

Himanshu Pandey ने कहा…

आचार्य की अंतिम यात्रा के सहभागी बने आप । कितना दुर्लभतम क्षण जिया है आपने । पढ़ नहीं सका था पहली दो किस्तें । एक साथ पुनः पढूँगा ।

शोभना चौरे ने कहा…

aaj teeno kisht ak sath pdhi .vishvas hi nhi ho rha hai ki jihe pdhna hmara soubhgy hai jnhe pdhkar hamne vidhya ka arth jana unke itne nikttam sansmarn apke dvara pdhne ko milege .aap bhagyshali hai .
acharyji ko sadar shrdhhanjali.

BrijmohanShrivastava ने कहा…

संस्मरण पढ़ा | आप बहुत भाग्यशाली है जो महान साहित्यकारों के संपर्क में रहे

Ishwar ने कहा…

आपकी संस्मरण लिखने की शैली अदभुत है

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

शास्त्रीजी, सुमनजी, अपूर्वजी, संध्याजी, ओम भाई, हिमांशुजी, चौरेजी, बृजमोहनजी, इश्वरजी, वंदनाजी और अपूर्वजी !
आप लोगों की टिपण्णी उत्साहित करनेवाली है. पूज्य पिताजी के कारण ही सौभाग्यशाली बना रहा ! उनका वर्चस्व व्यापक था. बड़े-बड़े दिग्गज उन्हें स्नेह और आदर देते थे. पिताजी के जीवन में मैं एक पीढी बाद उपस्थित हुआ, फिर भी, उनकी प्रभा का प्रभाव तो कुछ-न-कुछ पड़ना ही था मुझ नाकारे पर !
गठरी बड़ी है, लिखता रहूंगा. आप लोगों के आशीर्वाद से ये सहस बटोर रहा हूँ.... आ.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हजारीप्रसाद जी जैसे युगपुरुष को आपने कंधा दिया, उनके अन्तिम समय के साक्षी हैं...कितना रोमांचित करती हैं ये बातें...संस्मरणों की यह श्रृंखला आगे तक ले जायें हम अनुगृहीत रहेंगे.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

Mahan hastiyon ki sangat naseeb walon ko nasseb hoti hai ....hmare liye garv ki baat hai ki aap unki sat sangat mein rahe hain .....11

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी, हरकीरतजी,
वो कहते हैं न तकलीफें लिख डालने से कम होती हैं, कुछ ऐसी ही मनोदशा मेरी है. हजारीप्रसादजी का यह संस्मरणात्मक उच्छ्वास बहुत समय से मन की तहों में दबा रखा था; सोचा न था कभी लिखूंगा भी. आज जब लिख डाला है तो हल्का महसूस कर रहा हूँ.
आप सबों का आभार--बहुत !-बहुत !!