[सच, वह सच कहता है !]
साम्प्रदायिकता की बोतलों मेंसंकीर्णता का लेबल चिपका कर
कुंठाओं के कार्क लगा
तुम मुझे भी उसमें
बंद कर देना चाहते हो :
मेरे लिए तो बड़ी मुश्किल है,
भई , बड़ा द्वंद्व है !
प्रातः-प्रकाश
सांस लेने की
देता है अनुमति
और कलमुहीं रात
हाथ में काला हंसिया ले
मेरी ह्त्या कर देना चाहती है !
समझ नहीं पाता मैं
कब तक--
मैं अपने चहरे पर चूना रगड़ता रहूंगा;
और तुम्हारे चहरे पर
इंसानियत की नर्म रेखाओं की
तलाश में भटकता रहूंगा !
और मस्तिष्क के तूफ़ान को
कागज़ की फजीहत बनाता रहूंगा !!
क्या यही बेहतर है
कि मैं भी बोतल-बंद हो जाऊं ?
शांत कर लूं अपना भेजा
और मानवता की निस्सीम परिधि से
बाहर हो जाऊं ?
लेकिन, उस कैद से पहले,
मैं कुछ प्रश्न पूछ लेना चाहता हूँ--
आत्म-प्रहरी से,
दुविधा की देहरी से !
क्या आपने कभी
दुविधा की देहरी से
आत्म-प्रहरी के दरवाज़े की
सांकल बजायी है ?
एक अदद कोशिश से
क्या बिगड़ता है ?
क्योकि
वह प्रहरी जो कहता है--
सच कहता है !!
17 टिप्पणियां:
क्या आपने कभी
दुविधा की देहरी से
आत्म-प्रहरी के दरवाज़े की
सांकल बजायी है ?
एक अदद कोशिश से
क्या बिगड़ता है ?
क्योकि
वह प्रहरी जो कहता है--aanand ji namaskaar ,
bahut hi sundar
सुन्दर गहरी रचना.
आप को नव विक्रम सम्वत्सर-२०६७ और चैत्र नवरात्रि के शुभ अवसर पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ ..
आनंद भैया ,नमस्कार,
साम्प्रदायिकता की बोतलों में
संकीर्णता का लेबल चिपका कर
कुंठाओं के कार्क लगा
तुम मुझे भी उसमें
बंद कर देना चाहते हो :
मेरे लिए तो बड़ी मुश्किल है,
भई , बड़ा द्वंद्व है !
बहुत सुंदर,बहुत कुछ सीखना है आप से
एक अदद कोशिश की हिचक में ही तो क्रांति जमीन में दबी रहती है,.. और इंसानियत का हर रोज़ उत्पीडन होता है..
gambheer chintan.
एक अदद कोशिश से
क्या बिगड़ता है ?
क्योकि
वह प्रहरी जो कहता है--
सच कहता है
अंतरात्मा को जगाती...कई सवाल खड़े करती रचना...
शब्दों की गवेषणा प्रभावित किये बिना न रह सकी!
यह प्रतिरोध की कविता है ।
नवरात्र में विदेशी कवयित्रियों की कवितायें प्रतिदिन यहाँ पढ़े
http://kavikokas.blogspot.com - शरद कोकास
ओझा साहब...........
साम्प्रदायिकता की बोतलों में
संकीर्णता का लेबल चिपका कर
कुंठाओं के कार्क लगा
तुम मुझे भी उसमें
बंद कर देना चाहते हो :
मेरे लिए तो बड़ी मुश्किल है,
भई , बड़ा द्वंद्व है !
उफ्फ्फ.......दिमाग को झिंझोड़ने वाली ऐसी कविता जिसका पहला हिस्सा ही इतना प्रभावी है कि बिना तारीफ करे नहीं रहा जा सकता.
किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से सभी का सामना होता है...लेकिन बड़ी बात यह है कि कब तक होता है..! इस उम्र में ऐसा आक्रोश ..! सहसा यकीन नहीं होता.
..प्रेरक कविता के लिए आभार.
bahut sundar abhivyakti...
बड़ी गहरी संवेदना है .......आप को इस रचना के लिये बहुत बहुत बधाई....
एकदम मेरे मन की कविता है..साम्प्रदायिकता की बोतल हो या कलमुही रात, चेहरे का चूना हो या कागजों की फ़जीहत..सारे प्रयोग हमारे दैनिक जीवन से उठा कर रखे गये हैं..और खासकर इस पंक्ति मे
मेरे लिए तो बड़ी मुश्किल है,
भई , बड़ा द्वंद्व है !
भई का प्रयोग किसी सहृदय, धैर्यवान मगर दुविधाग्रस्त व्यक्ति की वाणी को स्वर देता लगता है..अद्भुत!!
हाँ यह द्वंद तब शुरू होता है..जब मनुष्य सोचना शुरू करता है..और इसी मंथन की प्रक्रिया मे वह प्रचिलित मान्यताओं और स्थापनाओं की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाता है..जाहिर है कि समाज एक तंत्र होता है जो तर्क और उ्पादेयता से नही वरन मान्यताओं, प्रचलन और परंपराओं की मूर्तियों से बना होता है..इसी लिये ऐसा सोचता हुआ आदमी इस ’तंत्र’ के लिये सबसे बड़ाअ खतरा होता है...एक मूर्तिभंजक की तरह....इसी लिये आत्मप्रहरी के इस द्वार पर खटखटाने से मनुष्य को रोकने के लिये कितने छलावे रचे जाते हैं..आत्ममुग्धता, क्षणिक तुष्टि, छद्मज्ञान, भौतिक तृप्ति यह सब अप्सराओं की तरह हमारे आगे नृत्य करते रहते हैं..और हम ज्ञान की खोज से भटक कर सुख की खोज मे लग जाते हैं..कितने हैं जो सांकल बजा पाते हैं?
पहले आपकी कविता और बाद में अपूर्व की टिप्पणी पढ़ने के बाद बहुत कुछ मिल गया ! क्या कहूं !
बेहतरीन प्रविष्टि का आभार ।
सबकी यही टीस है, यही द्वंद्व और सब चूना रगड कर बैठे है..
और ये बात भी सच है कि "एक अदद कोशिश से
क्या बिगड़ता है ?"
सबसे पहले तो इतनी रात गए टिप्पणी करने का शुक्रिया ......!!
पर इतनी रात गए तक जागना सेहत के लिए ठीक नहीं .......अपना भी ध्यान रखें ......!
इस रचना की जीतनी भी तारीफ करूँ कम होगी ....आपके पास शब्दों का अपूर्व भंडार है और गहन चिंतन .....ये साम्प्रदायिकता की बोतलें ....संकीर्णता का लेबल....कुंठाओं के कार्क......इतने गहन विवेचन पर नतमस्तक हूँ ......!!
और कलमुहीं रात
हाथ में कला हंसिया ले
मेरी ह्त्या कर देना चाहती है !
अद्भुत ......!!
यहाँ 'कला' को शायद आप 'काला' लिखना चाहते थे ....
''चहरे पर चूना रगड़ना '' और ''इंसानियत की नर्म रेखाये '' .....नादिर प्रयोग ......!!
लेकिन, उस कैद से पहले,
मैं कुछ प्रश्न पूछ लेना चाहता हूँ--
क्या आपने कभी
दुविधा की देहरी से
आत्म-प्रहरी के दरवाज़े की
सांकल बजायी है ?
देखती हूँ ....इक सच्चे कवि के भीतर का आक्रोश .....कैसे प्रहरी सा ....अंतिम दम तक प्रयास करना चाहता है ......!!
आपकी लेखनी आपके रियाज़त का परिणाम है .......!!
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