[एक परित्यक्ता की व्यथा-कथा का यह काव्य पहले भी मेरे ब्लॉग पर अवतरित हुआ था। लेकिन मेरी ही किसी असावधानी से कतिपय टिप्पणियों के साथ विलुप्त हो गया था। उसे पुनः आपके सम्मुख रख रहा हूँ--आ।]
आओ मुझको तोड़ो
खंड-खंड कर दो
धूल-धूसरित कर दो मुझको
मैं प्रतीक्षा में मौन सदियों से खड़ी हूँ !
मन के आँगन की हरियाली
सूख गई है,
बंजर धरती बन
मरुभूमि की मृगतृष्णा भी
रूठ गई है।
फिर भी जाने कौन पुकारा करता मुझको
और न जाने मैं किसको
तकती रहती हूँ;
निपट अकेली, वन-प्रांतर में
क्षीण नदी की धारा-सी
बहती रहती हूँ !
टूटेंगे, सब भ्रम टूटेंगे,
दुर्दिन-दुर्योग कभी छूटेंगे--
इसी आस में चट्टान बनी
रह गई अकेली;
लडती हूँ अपने ही मन से
आसपास बिखरे कण-कण से ।
दैव-कृपा भी जाने कब हो
मन-ही-मन सोचा करती हूँ
उस निष्ठुर अपराधी प्रभु को
पल-प्रतिपल कोसा करती हूँ ।
जान रही हूँ,
बनी अहल्या -जैसी प्रतिमा
जाने किसके पदाघात से
कब, अनजाने--
प्राण-संचरण होंगे मुझमे
और न जाने प्रभु राघव की अनुकम्पा से
सदविचार, सदगुण, सद्भाव
जागेंगे तुममे !
मेरे पुण्य, तपस्या मेरी
यूँ ही क्या निष्फल जायेगी ?
एक घडी तो वह आएगी
बहुत दूर से चलकर तुमको
जब मुझ तक आना ही होगा;
कुलिश-कठोर अपने प्रहार से
वज्र सरीखी प्रीति-धार से
खंड-खंड कर मुझमे तुमको
नव-जीवन भरना ही होगा--
इतना ही विश्वास मुझे है,
इसका ही आभास मुझे है !
आओ मुझको तोड़ो
खंड-खंड कर दो
धूल-धूसरित कर दो मुझको
मैं प्रतीक्षा में मौन
सदियों से खड़ी हूँ !
किन्तु, यह विश्वास तुम्हें करना होगा--
चट्टान नहीं हूँ !!
17 टिप्पणियां:
AAP BEJOD HAI.. AAP YAH SAB KAISE LIKH LETE HAI ...AAPSE DHER SE AASHEERWAD KI UMMEED RAKHTI HOON...
बहुत सुंदर ,पाठक को अंत तक बांधे रखने में सक्षम,लैबद्धता भाषा का प्रवाह और भावों की अभिव्यक्ति ,
इतनी सारी विशेषताओं से परिपूर्ण है ये कविता कहां तक गिनवाऊं,
हम तो वैसे ही शब्दों के अभाव से ग्रसित हैं
इस कविता ने तो नि:शब्द कर दिया
fantastic !
जैसे आप कमाल के हैं वैसी ही रचना... मुझे याद नहीं आ रहा कि मैंने इसे कब पढ़ा था ? जबसे आपने ब्लॉग पर लिखना आरम्भ किया है तब से ही आपकी रचनाओं का आनंद उठाता आ रहा हूँ लेकिन फिर भी याद नहीं आई. आपने इसे पुनः स्थान दिया है, आपका आभार .
आओ मुझको तोड़ो
खंड-खंड कर दो
धूल-धूसरित कर दो मुझको
मैं प्रतीक्षा में मौन
सदियों से खड़ी हूँ !
किन्तु, यह विश्वास तुम्हें करना होगा--
चट्टान नहीं हूँ . aanand ji namaskaar --
kishore ji ki baate mere man bhi uthi aur main unki baaton ka poori tarah samarthan karti hoon ,aapse to sirf paana hi paana hai aur bahut kuchh sikhna ,aap gyaan ke bhandaar hai ,adivtiya hai ,aapka aashish bana rahe bas yahi kaamna hai ,laazwaab
bahut hi gazab ki prastuti...........shandaar.
श्रद्धेय
प्रणाम. पहले भी यह कविता उतनी ही अच्छी और चमत्कृत करने वाली लगी थी, जितनी आज.अच्छा किया आपने जो इसे दोबारा प्रकाशित किया.
shirshak ko apne ap me saheje hue...........bahut achhi rachna
आनंद जी ,
कल आपका ख़त मिला .....शुक्रिया कि आपने इस लायक समझा .......!!
ये कविता पहले भी पढ़ी थी ......पढ़ते-पढ़ते सोच रही थी इस कविता के भावों में न जाने कितनी ही महान हस्तियों के स्पर्श का साथ रहा होगा .....तभी तो इतने गहन शब्दों का तारतम्य जुड़ जाता है ....कौन थी वह परित्यक्ता....?
इसी आस में चट्टान बनी
रह गई अकेली;
लडती हूँ अपने ही मन से
आसपास बिखरे कण-कण से ।
ये पंक्तियाँ तो भावविह्वल कर गईं .....!!
दैव कृपा या प्रभु राघव की अनुकम्पा का इन्तजार बेमानी सा नहीं लगता आज के युग में ?
...और फिर इस इन्तजार में वैसे ही जीवन कट जाता है ....उस उम्र में अगर वह लौट भी आये तो क्या मायने रह जाते हैं ....अंत में वह कहती है...." वह चट्टान नहीं ...खंड-खंड कर मुझमे तुमको
नव-जीवन भरना ही होगा--"
आनंद जी उस अंतिम समय में नवजीवन के क्या मायने रह जाते हैं .....????
मैं तो इतनी महान नहीं बन पाती कि तमाम जीवन की कटुता एक आलिंगन से मिटा लेती .....!
मैंने सिर्फ अपनी जगह रख कर इसे देखा और लिख दिया ......अन्यथा न लें .....!
कविता अपनी जगह उत्कृष्ट है .......!!
हरकीरतजी,
आपके इस विवेचनापूर्ण प्रतिउत्तर से आश्वस्त हुआ कि कविता की आत्मा आप तक ठीक-ठीक पहुंची है; अन्यथा लेने का तो प्रश्न ही नहीं उठाता !
साभिवादन--आ.
सशक्त रचना ! बहुत कुछ कह सकने की सामर्थ्य नहीं !
आपको सदैव पढ़ते रहने की आकांक्षा ! आभार ।
किशोर भाई,
याद आते हैं ब्लोगिंग के शुरूआती दिन और आपकी हौसला अफजाई.... ! आप प्रारंभ से ही मेरे ब्लॉग के नियमित और सावधान-सजग पाठक रहे हैं ! भला कैसे भूल सकता हूँ ? यह कविता बमुश्किल २४ घंटे ही ब्लॉग पर टिकी रही, फिर अंतर्धान हो गई थी... संभव है, इसी वज़ह से आपकी दृष्टि इस पर पड़ी न हो !
आभारी हूँ !
सप्रीत--आ.
मैं प्रतीक्षा में मौन
सदियों से खड़ी हूँ !
किन्तु, यह विश्वास तुम्हें करना होगा--
चट्टान नहीं हूँ !!
बशीर साहब की दो लाईने याद आ गयी -
"पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला,
मै मोम हू, उसने कभी छूकर नही देखा"
उपाध्यायजी,
बशीर बद्र के इस शानदार शेर के लिए आभारी हूँ !
सप्रीत--आ.
कविता की पहली चार पंक्तियाँ पढते ही सब्से पहले दिमाग मे अहिल्या रूपाकार होने लगी..और कविता के आधे रास्ते मे वह साक्षात्कार भी हो गया..इससे समझ सकते हैं कि कविता अपने उद्देश्य मे कितनी सफ़ल रही है..कविता एक उचित क्षोभ, अकथनीय व्यथा, बेचैनी मगर अदम्य आस्था और विश्वास को स्वर देती हुई लगी..जहाँ कि सदियों लम्बे पतझड़ के मौसम के भी बीत जाने की कामना साकार होती है..
और अंतिम पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि नारी मन किसी चट्टान की तरह नही वरन् क्षीण ही सही मगर अजस्रप्रवाहिनी नदी के जल सा है जिसे लाख प्रयास के बाद भी खंड-खंड नही किया जा सकता है, न तोड़ा जा सकता है..
कृपया ऐसे ही अपने इस ब्लॉग को अपनी डायरी के प्रतिरूप के रूप मे पाठको को उपलब्ध कराते रहें..
मैं सभी टिप्पणीकारों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ ! मेरी कृतज्ञता ज्ञापित हो !!
विनीत--आ.
अपूर्वजी,
बस एक पंक्ति में अपनी बात कहूंगा :
"जो कोई रूह आपनी देखा, सो साहिब को पेखा !"
आभार !
सप्रीत--आ.
एक टिप्पणी भेजें