शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

बीमार चेहरों के बीच...

[एक निकट मित्र को अस्पताल से श्मशान तक पहुंचाने की व्यथा-कथा का काव्य : १८-१२-१९७३ की एक रचना]

अब वहाँ कोई नहीं है,
शब्द-सागर में पड़े काले अक्षर की तरह
सब खो गए हैं
और तुम्हारी तलाश के नाम पर
अनुपलब्धियों का एक खोखला वृत्त छोड़ गए हैं !

ज़िन्दगी का काला जुलूस
सामने गुज़र रहा है
समय के शव के साथ
तुम लिपटे हुए उसी तरह

घिसट रहे हो,
जिस तरह मिष्टान्न लिपटी
थोड़ी-बहुत मरी चींटियाँ !

कलंक के नाम पर
मेरी साधुवत्ता को ललकारने में
तुम्हें शर्म आनी चाहिए;
क्योंकि मेरी साँसों में,
मेरे शरीर के हर अणु में
विषबुझी हवाओं ने ज़िन्दगी पायी है--
स्वप्न की सुन्दरता और यथार्थ की कड़वाहट को
एक साथ ग्रहण कर
मैं नीलकंठ बन गया हूँ !
रेत के संबंधों को
संबोधन देने की कोशिश में
मैं खुद संबोधनहीन हो गया हूँ !

प्रीति की गवाही के
चिनार खड़े तकते है,
प्रेम-स्नेह-सिक्त मेरी भावनाएं
दुर्दिन की आंधी में बिखर गयीं इधर-उधर,
बह चली नाव गुलमुहर के फूलों की...
बहार की तलाश में आँखों का अंधापन जाग गया !
जो एक सपना
अंतर में उपजा था,
सुबह के तारे-सा भाग गया !

फिर वही कविता दरवाज़े पर आयी है
आँखों में अर्चना
आश्वासन की आंधी भी लाई है;
लेकिन...
लेकिन, अब वहाँ कोई नहीं है,
धूल के गुब्बार और सिमटी हुई ज़िन्दगी की आँखों में
समस्याओं का पीलापन बाकी है
और मरते हुए मरीज़ के आसपास
बिखरी दवाओं की तीखी गंध
मेरे फेफड़े में घुस रही है !

अब वहाँ कोई नहीं है,
श्मशानी सन्नाटे में
पीपल और बरगद से लटके घंट
चीखती-चिल्लाती मदहोश हवाएं
और ठिठकी हुई मेरी मायूस कविता
बदहवास आँखों से
नियति का बेतकल्लुफ मज़ाक देख रही है
और श्मशान की खिली हुई चांदनी में--
जैसे मेरी कविता नंगी हो गई है !

सच मेरे मित्र !
बीमार चेहरों के बीच
अंधेपन का अभिनय
कभी-कभी
ज़िन्दगी दे जाता है !!

8 टिप्‍पणियां:

rashmi ravija ने कहा…

रेत के संबंधों को
संबोधन देने की कोशिश में
मैं खुद संबोधनहीन हो गया हूँ !

कड़वा सच है ये...

बीमार चेहरों के बीच
अंधेपन का अभिनय
कभी-कभी
ज़िन्दगी दे जाता है !!
जीवन की बेबसी दर्शाती कविता ....

vandana gupta ने कहा…

सच मेरे मित्र !
बीमार चेहरों के बीच
अंधेपन का अभिनय
कभी-कभी
ज़िन्दगी दे जाता है !!

ज़िन्दगी की हकीकत बयाँ कर दी है……………………।एक कटु सत्य।

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

प्रेम-स्नेह-सिक्त मेरी भावनाएं
दुर्दिन की आंधी में बिखर गयीं इधर-उधर,
बहुत बड़ा सच दुर्दिन सारी कोमल भावनाओं को तिरोहित कर देते हैं.

अपूर्व ने कहा…

क्या कहूँ..किसी करुण सिम्फ़नी सी दाखिल होती है कविता..एक गहरी उदासी सी छलकी पड़ती है..कोई तल्ख सच्चाई जिंदगी की कठिन और निर्मम गलियों मे आ कर आत्मव्यंग्यात्मक सी बन जाती है..यह कविता पढ़ कर भान होता है..यह पंक्तियाँ उसी मनस्थिति को स्पष्ट करती हैं

समय के शव के साथ
तुम लिपटे हुए उसी तरहघिसट रहे हो,
जिस तरह मिष्टान्न लिपटी
थोड़ी-बहुत मरी चींटियाँ !

और इस पंक्तियों का यथार्थ कविता की आत्मा की करुणता मे ध्वनित होता है

स्वप्न की सुन्दरता और यथार्थ की कड़वाहट को
एक साथ ग्रहण कर
मैं नीलकंठ बन गया हूँ !

जिंदगी इन्ही दो किनारों पर बँधी समय की तनी रस्सी पर चलने की बाजीगरी का नाम है..जो जब तक बैलेंस बना ले जाय...

ज्योति सिंह ने कहा…

ek kadwa satya aur gahri peeda ki jhalak samate huye ,hridyasparshi rachna
स्वप्न की सुन्दरता और यथार्थ की कड़वाहट को
एक साथ ग्रहण कर
मैं नीलकंठ बन गया हूँ !
रेत के संबंधों को
संबोधन देने की कोशिश में
मैं खुद संबोधनहीन हो गया हूँ
kitni gahri baate kah gaye aap ,aapki lekhni ko saadar pranaam aur aapko bhi .

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

आनन्द जी,

केवल अपनी मौजूदगी को दर्ज कराना चाह रहा हूँ, बाकि तो आपने जो कहा है :-

ज़िन्दगी का काला जुलूस
सामने गुज़र रहा है......

.....और ठिठकी हुई मेरी मायूस कविता
बदहवास आँखों से
नियति का बेतकल्लुफ मज़ाक देख रही है
और श्मशान की खिली हुई चांदनी में--
जैसे मेरी कविता नंगी हो गई है !.....


सच मेरे मित्र !
बीमार चेहरों के बीच
अंधेपन का अभिनय
कभी-कभी
ज़िन्दगी दे जाता है !!

इन अंतिम पंक्तियों का अर्थ शायद जिन्दगी को समझा सकता है कि जिन्दा बने रहना और जिन्दा बने रहने का अभिनय कितना जुड़ा हुआ है आप्स में।

आज से कोशिश कि है कि पुनः सक्रिय हो सकूँ, एक पोस्ट की है, आपके आशीर्वचनों की प्रतीक्षा रहेगी।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

के सी ने कहा…

बहुत सुंदर. आप जिस साहित्यिक पीढी का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्होंने अपना समय और जीवन, भाषा के अनन्य उपादानों को समर्पित किया हुआ है. आपको पढ़ना प्रीतिकर होता है. जाने कितने ही संस्मरणों आलेखों और कविताओं के माध्यम से मेरा स्वस्थ और आशा भरा मानसिक पोषण किया है. आभार.

अरुणेश मिश्र ने कहा…

प्रशंसनीय ।