[एक मनस्थिति का काव्य-चित्र]
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते...
बाँझ बनी शाम ढल आयी,
रात की धूल भरी
और फटी चादर को
बौराए मच्छर हैं सीते...
गर्म हवाओं-से .... !
तपती दोपहरी में
पिघलती कोलतार-पुती सड़कों पर
बरबस ठंढक बिखेरने की
करती है पुरजोर कोशिशें
कुल्फीवाले की घंटी की
टन ... टन ... टन !
अंतर में बहते
कुंठाओं के सोते में
डुबकियां लगाता है
बेचारा मन;
शीतलता बेस्वाद बनी जाती है;
क्योंकि
कुंठाओं के सोते तो
होते हैं गर्म !
कैसे बताऊँ कि
बूँद-बूँद कर
चौबीस घंटों के क्षण
कैसे रीते !
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते !!
18 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा रचना..अद्भुत!
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते !!
नायाब रचना
शीतलता बेस्वाद बनी जाती है;
क्योंकि
कुंठाओं के सोते तो
होते हैं गर्म ...
गर्म हवाओं से मुफलिसी दिन अभी कहाँ बीते ....
ये तो शुरुआत है ....
विचारों की तपती लू से झुलसते मनोभाव का सुन्दर काव्य -चित्रण ...!!
बहुत सुन्दर रचना है कल की चर्चा में ले लेंगे!
waah !!
bahut khub
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com
बहुत सुन्दर्………………॥गज़ब की प्रस्तुति।
कैसे बताऊँ कि
बूँद-बूँद कर
चौबीस घंटों के क्षण
कैसे रीते ..
लाजवाब ... शशक्त रचना ....
अंतर में बहते
कुंठाओं के सोते में
डुबकियां लगाता है
बेचारा मन;
शीतलता बेस्वाद बनी जाती है;
क्योंकि
कुंठाओं के सोते तो
होते हैं गर्म !
गरमी के बहाने खूब खबर ली आपने. बहुत सुन्दर शब्द-चित्र. आभार.
वाह ! क्या लिखते हैं आप ! बहुत अच्छा लगा पढके ...
ओझा जी
शब्दों का यह ताना बाना किस खूबसूरती से बुना है आपने........आपके शिल्प पर तो हम फ़िदा हो गए..
मुफलिस दिन ...वह क्या नया प्रतीक गढ़ा है भाई जी,
कैसे बताऊँ कि
बूँद-बूँद कर
चौबीस घंटों के क्षण
कैसे रीते !
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते !!
वाह वाह .............बधाई अच्छे लेखन के लिए
इन पंक्तियों को लिखने के लिए बहुत बहुत आभार । आपकी पढी हुई कविताओं में यह एक याद रह जाने वाली होगी । इन पंक्तियों की पैठ बहुत पसंद आईं
अंतर में बहते
कुंठाओं के सोते में
डुबकियां लगाता है
बेचारा मन;
शीतलता बेस्वाद बनी जाती है;
क्योंकि
कुंठाओं के सोते तो
होते हैं गर्म !
और यह भी खासकर "गर्म हवाओं से मुफलिस दिन बीते" बहुत ही सुंदर ।
कैसे बताऊँ कि
बूँद-बूँद कर
चौबीस घंटों के क्षण
कैसे रीते !
गर्म हवाओं-से
मुफलिस दिन बीते !!
गर्मी की पुरजोर आमद का पता आपकी कविता पढ़ कर ही चलता है आदरणीय ओझा जी..जिसमे बाहर के और अंदर के मौसम की उमस अच्छे से उभर के सामने आती है...बदलते मौसम का सहारा जैसे सिर्फ़ अंदर के हालात अभिव्यक्त करने के लिये लिया गया है..मगर मुफ़लिस दिन...भरपूर व्यंजना है..जितनी कि गर्म हवाएँ!!
और यह बिम्ब तो जबर्दस्त रहा
रात की धूल भरी
और फटी चादर को
बौराए मच्छर हैं सीते...
रात की फ़टी चादर मे बौराये मच्छर दर्जी..अद्भुत पंक्तियाँ!
अपूर्वजी,
आपकी टिपण्णी से पूर्णाहुति हुई... अब तो पुरजोर गर्मी और उमस भरे दिन सर पर हैं, ए० सी० और कूलर से देह ठंढी कर जला करेंगे हम सभी... और बारिश की प्रतीक्षा में आँखें पथरायेंगे ! है न ?
शास्त्रीजी, कविता को चिटठा मंच तक ले जाने के लिए आभार मानता हूँ !
आप सभी टिप्पणीकारों का शुक्रिया, आभार !
साभिवादन--आ.
मगर तपती धूप के बीच आपकी रचनाओं की शीतल छाँह मे सुस्ताने की उम्मीद राहत भरी है..
Oh..wah!
कश्मीर की इस ठिठुरती रात में आपकी कविता की तपिश राहत पहुँचा रही है... :-)
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