मंगलवार, 3 अगस्त 2010

दे जाती है दग़ा....

[मित्रो ! एक अनुभव अद्वितीय को शब्द दे रहा हूँ, क्या पता, मेरे कुछ समानधर्मी मित्र मुझे और मिल जाएँ !]

भिक्षुक के कटोरे में

खनकती अठन्नी-चवन्नी की तरह

यह मायामय दिन जब बीत जाता है

और रात की चार रोटियों के बाद

जब डूबने लगती है मेरी नब्ज़,

पलकों पर गाने लगती है नींद

कोई मीठा राग--

तब कविता की बेशुमार पंक्तियाँ

मेरी अर्धचेतनावस्था पर गिरने लगती हैं;

कहती हैं मुझसे--

लिखो मुझे--

मैं कटी उँगलियों की पीड़ा हूँ,

मैं अबोध शिशु का रुदन हूँ,

मैं गीली आँखों की नमी हूँ

मैं बेबसी और भूख का विलाप हूँ,

मैं सागर-सी पीडाओं का आर्तनाद हूँ;

मैं अतीत और वर्तमान से छूटकर

प्रकट हूँ तुम्हारे अन्तराकाश में !

लिखो मुझे !!

मैं उन पंक्तियों में

आकार पाने की छटपटाहट

साफ़ देखता हूँ,

निहारता हूँ उन्हें,

कलम उठाने की चेष्टा में

तंद्रा भंग हो जाती है,

मुट्ठियों में भर आयी पंक्तियाँ

तिरोहित होने लगती हैं

और कुछ-एक शब्दों के अंकन के बाद

विलुप्त हो जाती है

हाथ आयी एक समूची कविता !

सचेत होते ही

मैं अठन्नी-चवन्नी की तरह

फिर खनकने लगता हूँ--

इस मायामय संसार में....!

सोचता हूँ,

कविता क्या अवचेतन का ही

द्वार खटखटाती है ?

और चैतन्य होते ही

दे जाती है दग़ा ??

10 टिप्‍पणियां:

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

आनंद भैया ,
बेहतरीन !
वाह!
बरबस ही निकल गया मुंह से

;कहती हैं मुझसे--लिखो मुझे--
मैं कटी उँगलियों की पीड़ा हूँ,
मैं अबोध शिशु का रुदन हूँ,
मैं गीली आँखों की नमी हूँ
मैं बेबसी और भूख का विलाप हूँ,
मैं सागर-सी पीडाओं का आर्तनाद हूँ

कविता को जिस अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने ये पाठक की और कवियों की योग्यता को चुनौती है
बहुत उम्दा
बधाई

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

सचेत होते ही

मैं अठन्नी-चवन्नी की तरह

फिर खनकने लगता हूँ--

इस मायामय संसार में....!
हां, ऐसा ही होता है. दिन भर व्यावहारिक जीवन जीने के बाद अवचेतन पर स्व का हाबी होना स्वाभाविक ही है. बहुत सुन्दर कविता.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

कविता पढने के बाद व्यथित हो गई हूं... ऐसे कितने ही चित्रों की दिन भर अवहेलना करने का नाटक करते हैं हम, लेकिन उनकी तकलीफ़ गहरी पीड़ा दे जाती है... कई बार पढ चुकी, पीड़ा घनीभूत होती जाती है.. अभी और कितनी बार पढूंगी, पता नहीं.

शिवम् मिश्रा ने कहा…

एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !

vandana gupta ने कहा…

वाह वाह वाह ………गज़ब कर दिया……………अन्तरपीडा को बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

..कविता क्या अवचेतन का ही
द्वार खटखटाती है ?
और चैतन्य होते ही
दे जाती है दग़ा ??..

..बहुत दिनों बाद आए और दिमाग को झकझोर दिया.

के सी ने कहा…

मुझे गुरु चेले के संबोधनों से मुहब्बत नहीं है क्योंकि मैं मानता हूँ कि हर कोई सीख ही रहा है. आज कविता पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कहूँ "गुरुवर... आपको पढ़ कर धन्य हुआ" एक कविता मेरी मान्यता पर हावी हो गई है .

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

ऐसा ही तो है...मायामय संसार में उलझ हम खुद से दूर होते है...विचारों में उलझे रहते है..कविता तो मन की बात है जहाँ विचार आ गये कविता नहीं आती..कविता तो हम में ही कहीं रह जाती है..

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

आदरणीय आनन्द जी,
सचेत होते ही
मैं अठन्नी-चवन्नी की तरह
फिर खनकने लगता हूँ--
इस मायामय संसार में....!
कविता के भाव बहुत कुछ सोचने पर विवश कर रहे हैं...

कडुवासच ने कहा…

... behatreen abhivyakti !!!