[एक आग्रह विशेष पर लिखी हुई ये पंक्तियाँ ब्लॉग पर रख रहा हूँ ! संभव है, अप सबों को भी प्रीतिकर लगे--आ।]
महाजाल की मछली क्या तेरा तुझ पर अधिकार नहीं ?
रे काट-काट यह जाल, तभी होगा तेरा व्यापार नहीं !
यह जीवन भी तो एक नदी-सा, जिसमें हलचल है लहर-लहर,
तेज़ धार में बह जाता, बचपन-यौवन जीवन का स्वर !
धाराओं के प्रतिकूल चली तो, जय होगी तेरी हार नहीं !
महाजाल की मछली....
जग पलकों पर बिठा लिया करता है बलशाली को,
शपथ नहीं लेनी पड़ती, सत्पथ पर चलनेवाली को !
उठा नाद एक घोर कि जिसका हो कोई प्रतिकार नहीं !
महाजाल की मछली....
आँचल अगर उलझ जाए,बगिया के काँटों-शूलों में,
छुड़ा के दामन चलना होगा, सुरभि जहां हो फूलों में !
जीवन-उपवन में फूल-फूल हों, मिले राह में खार नहीं !
महाजाल की मछली...
सारे बंधन तोड़ निकल चल, मनः शान्ति के पथ पर,
स्वयं सारथी बन जा तू, चढ़ कर जीवन के रथ पर !
अधिकार छीन कर लेना होता, करता कोई उपकार नहीं !
महाजाल की मछली क्या तेरा तुझ पर अधिकार नहीं !!
रे काट-काट यह जाल...
10 टिप्पणियां:
ओझा जी ,
सही कहा है आपने चूँकि ,वीर भोग्या वसुंधरा ,अतः स्वंय प्रयास से ही बंधन काटे और सफलता प्राप्त की जा सकती है.
आग्रह करने वालों का आभार!
अन्यथा आपकी सुन्दर रचना से हम वंचित रह जाते!
बहुत सुन्दर भाव प्रस्तुत किए हैं रचना में.
... prasanshaneey rachanaa !!!
हम सभी इस भवसागर के महासागर मे मछली की तरह ही तो पडे हैं और इससे निकलने के लिये हमे ही प्रयास करने पडेंगे…………एक बेहद उम्दा रचना पढवाने के लिये आभार्।
Behad sundar rachana hai!!
धाराओं के प्रतिकूल चली तो, जय होगी तेरी हार नहीं !
बहुत सुन्दर. जीवन-संघर्ष से जूझन और जीतने का आह्वान है ये तो. हम सब के हित की बात. आभार.
bahut bahut sunder rachna
गीत सकारात्मकता के एक अजस्र स्रोत से प्रवाहित होता दिखता है..कविता का आशावाद ही जीवन की प्रेरणादायी शक्ति है..खुद को भी किसी महाजाल मे फंसी मछली सा जीवन इन्ही दुविधाओं के आगे हार मान लेता है..जिनका जिक्र कविता करती है..मगर मछली के आगे जाल से मुक्त होने के प्रयास करने के अलावा कोई अन्य मार्ग भी नही है..मगर मछली के संदर्भ मे इस पंक्ति का निहितार्थ कुछ अलग लगा..समझने क प्रयास करना होगा..
उठा नाद एक घोर कि जिसका हो कोई प्रतिकार नहीं !
आदरणीय आनन्द वर्धन ओझा जी
नमस्कार !
अन्तर्जाल-भ्रमण करते-करते अचानक आपके यहां आ पहुंचा , … और इतना श्रेष्ठ नवगीत पढ़ कर मन को तृप्ति और आनन्द का अनुभव हुआ तो बधाई और आभार व्यक्त करने रुकना पड़ा ।
गीत की एक-एक पंक्ति, एक-एक शब्द के लिए साधुवाद !
महाजाल की मछली क्या तेरा तुझ पर अधिकार नहीं ?
… … …
जग पलकों पर बिठा लिया करता है बलशाली को
… … …
अधिकार छीन कर लेना होता, करता कोई उपकार नहीं !
आह ! न्याय स्वतः मिलना इतना कठिन क्यों है ???
पूरा गीत मेरी बात भी कह रहा है … हर आम जन की बात कह रहा है …
पुनः आना पड़ेगा आपके यहां , पिछली पोस्ट्स में न जाने कितने नगीने छुपे हों…
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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