[गणतंत्र दिवस पर विशेष]
बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में,
वातानुकूलित कमरों में
रेस्तरां और कॉफ़ी-शॉप में--
उपजते हैं बड़े-बड़े विचार और
सड़कों-फुटपाथों पर आकर
दम तोड़ देते है !
स्वतन्त्रता दिवस के जश्न पर
बिखरे बालोंवाली
उस मासूम लड़की की
भोली शक्ल
मेरे ख़यालों में
चींटियों-सी रेंगती है आज भी
और याद आती है मुझे--
उसकी जिद,
उसकी आतुरता, विकलता और व्यग्रता !
वह लगातार करती है मनुहार--
दो रूपए में
कागज़ का एक तिरंगा झंडा खरीदने की !!
तब भी विचारों का गणित
मस्तिष्क में चलता रहता है;
लेकिन वातानुकूलित कार की खिड़की का
बंद शीशा नहीं खुलता !
टैफिक सिग्नल की लाइट
जैसे ही हरी होती है--
कार दौड़ने लगती है--
विचारों को ढोते हुए...... !
विचार--जो सद्भाव के हैं,
समुन्नति के हैं,
पर-पीड़ा के हैं,
अभिवंचितों के उद्धार के हैं
और वर्ग-वैषम्य के निवारण के हैं !
भागती कार के बंद शीशे से
मैं पढता रह जाता हूँ--
उस भोली-भाली लड़की के
चहरे की मायूसी, हताशा, निराशा
और आँखों का सूनापन... !
ज़िन्दगी यूँ ही भागती रहती है
ज़िदगी से
और विचार यूँ ही उपजते
और दम तोड़ते रहते हैं--
सड़कों पर,
फुटपाथों पर
और शहर के
तमाम चौराहों पर !!
9 टिप्पणियां:
ज़िदगी से
और विचार यूँ ही उपजते
और दम तोड़ते रहते हैं--
सड़कों पर,
फुटपाथों पर
और शहर के
तमाम चौराहों पर
सर्वहारा वर्ग की तमाम चिन्ताएं वातानुकूलित कमरों में ही व्यक्त की जाती हैं, आक्रोश और इस वर्ग के लिये कुछ करने की क़समें भी यहीं उठाई जाती हैं, लेकिन सच्चाई इन पंक्तियों की तरह है-
और याद आती है मुझे--
उसकी जिद,
उसकी आतुरता, विकलता और व्यग्रता !
वह लगातार करती है मनुहार--
दो रूपए में
कागज़ का एक तिरंगा झंडा खरीदने की !!
तब भी विचारों का गणित
मस्तिष्क में चलता रहता है;
लेकिन वातानुकूलित कार की खिड़की का
बंद शीशा नहीं खुलता
सच्चाई बयां करती सुन्दर कविता.
ज़िन्दगी यूँ ही भागती रहती है
ज़िदगी से
और विचार यूँ ही उपजते
और दम तोड़ते रहते हैं--
सड़कों पर,
फुटपाथों पर
और शहर के
तमाम चौराहों पर !!
bahut hi khoobsurati se sachchai ko,bayan kiya hai aapne ,ati sundar rachna .gantantra divas ki badhai sweekaare .vande matram .
भावपूर्ण रचना, वाह वाह.
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई.
बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में,
वातानुकूलित कमरों में
रेस्तरां और कॉफ़ी-शॉप में--
उपजते हैं बड़े-बड़े विचार और
सड़कों-फुटपाथों पर आकर
दम तोड़ देते है !
क्या बात है !
कविता जीवन की उस सच्चाई को उकेर रही है जिसे हम सुनना समझना ही नहीं चाहते
भागती कार के बंद शीशे से
मैं पढता रह जाता हूँ--
उस भोली-भाली लड़की के
चहरे की मायूसी, हताशा, निराशा
और आँखों का सूनापन... !
विचारों को झिंझोड़ती हुई कविता
प्रस्तुत कविता सटीक व् उत्तम है.गणतंत्र दिवस की मंगल कामनाएं.
ज़िन्दगी यूँ ही भागती रहती है
ज़िदगी से
और विचार यूँ ही उपजते
और दम तोड़ते रहते हैं--
सड़कों पर,
फुटपाथों पर
और शहर के
तमाम चौराहों पर !!
और दुनिया चलती रहती है ……………मन को उद्वेलित करती रचना…………सच कितना कटु होता है। अति उत्तम रचना।
जीवन बड़ा विषम होता है..यथार्थ भयावह और हमारी मनोवृत्ति झूलती हुई विरोधाभासों की तनी रस्सी के बीच..हमारे व्यक्तिगत सत्य परिस्थितियों के मुताबिक बदलते रहते हैं..विचारों की उम्र बड़ी नाजुक होती है..जो सारी आदर्श परिस्थितियाँ पा कर ही पनपती हैं..मगर यथार्थ की जमीं पर मुरझा जाती है..उद्वेलित करती और हकीकत से रूबरू कराती कविता से ज्यादा जरूरी क्या हो सकता है..इस गणतंत्र दिवस पे...आभार!
सटीक शब्द मिल नहीं रहे अभी जिसमे मनोभावों को बाँध टिपण्णी कर सकूँ...
बेहतरीन !!!!
भोली-भाली लड़की की सूनी आँखों के बहाने आपने सर्वहारा वर्ग के लिए होने वाली चिंता की हकीकत से रूबरू करा दिया।
अच्छी लगी यह कविता।
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