बुधवार, 25 अप्रैल 2012

वह देखता है मुझको...

वह नामुराद
मेरी आँख का काँटा नहीं है,
बहुत निकट का,
बेहतर जाना हुआ भी,
वह नहीं है;
लेकिन वह रखता है
मुझ पर गहरी निगाह--
खूब पहचानता है मुझे !
मुझसे ज्यादा जानता है मुझे !!

उसकी निगाह से
बचने की मैं लगातार
करता हूँ कोशिशें,
दामन बचाता हूँ,
अपना सच उससे छिपाता हूँ;
लेकिन वह तो अगम ज्ञानी है,
मेरे पोर-पोर में बहते
ज्यादातर ख़याल से
उसे अजीब-सी परेशानी है !
वह रोकता है मुझे,
टोकता है मुझे,
वर्जना देता है,
डराता-धमकाता है
और कभी-कभी बुरी तरह नाराज भी होता है !
मैं उससे पीछा छुड़ाने की
मुमकिन कोशिशों में लगा रहता हूँ,
बनावटी एक आवरण में छिपा रहता हूँ !
और मनमानियाँ किये जाता हूँ,
सफ़ेद कागज़ पर स्याह लकीरें
खींचता जाता हूँ !

मैं उसकी एक नहीं सुनता,
मन में उसकी कोई बात नहीं गुनता,
अपनी ही राह चलता हूँ,
शायद मैं खुद को ही छलता हूँ !
मेरी अवहेलना का उस पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ता;
वह हमेशा अपना दायित्व निभाता है,
हर मौके पर मुझे सजग-सावधान बनाता है;
लेकिन मैं उसे मुंह चिढ़ाता हूँ
और आगे बढ़ जाता हूँ !
वह अपनी टेक से बाज़ नहीं आता,
और मैं उसकी कोई बात मान नहीं पाता !

लेकिन हर सुबह
जब मैं आईने के सामने खडा होता हूँ--
आईने से वह देखता है मुझको...
मैं सोचता हूँ--
क्या यह वही है
जो मेरी अन्तश्चेतना में कहीं बसता है
और अवज्ञा की पीड़ा चुपचाप सहता है ?

3 टिप्‍पणियां:

Pawan Kumar ने कहा…

ओझा जी
क्या अच्छी कविता कही है ..........!

जब मैं आईने के सामने खडा होता हूँ--
आईने से वह देखता है मुझको...
मैं सोचता हूँ--
क्या यह वही है
जो मेरी अन्तश्चेतना में कहीं बसता है
और अवज्ञा की पीड़ा चुपचाप सहता है ?
वाह वाह अति सुन्दर

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

सिंह सा'ब !
आभारी हूँ ! लगा था, ब्लॉग पर मेरी यह पहली कविता होगी जो टिपण्णी-विहीन रह जायेगी ! आपने इस चिंता से मुक्त किया है ! वैसे, टिप्पणियों की मैंने कभी बहुत फिक्र या लालसा नहीं की, फिर भी यह देखना तो अप्रीतिकर लगता ही है कि किसी ने कविता पढ़ी ही नहीं अथवा रचना को अपनी सम्मति के योग्य नहीं समझा !
आपको यह रचना अच्छी लगी, जानकार संतुष्ट हुआ !
साभार--अ.व्.ओ.

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

टिप्पणी तो हमने भी की थी :( मगर दिख नहीं रही.