मंगलवार, 1 मई 2012

दो क्षणिकाएं ...

--मेरा अज्म--

एक पत्थर
तबीयत से उछाला था मैंने
सोचा था,
आस्मां में सुराख कर
जा ठहरेगा कमबख्त--
वह मुंह पर आ गिरा,
मेरा अज्म मुझे ही
बदशक्ल कर गया !

--ज़िन्दगी की मेज़ पर--

तुमसे कुछ कहना था,
शब्द नहीं मिले
तो हवा की जुगाली कर ली !

बहुत कुछ तुम्हें बाताना था
संयोग नहीं बना
तो मैंने अपनी कलम में
स्याही भर ली--
चलो, यूँ ही रँगता रहूंगा सफ़े
ज़िन्दगी की मेज़ पर !

6 टिप्‍पणियां:

indianrj ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

एक पत्थर
तबीयत से उछाला था मैंने
सोचा था,
आस्मां में सुराख कर
जा ठहरेगा कमबख्त--
वह मुंह पर आ गिरा,
मेरा अज्म मुझे ही
बदशक्ल कर गया !
क्या बात है!!
दोनों क्षणिकाएं काबिल-ए-दाद! बहुत सुन्दर.

ashish ने कहा…

कविताओ/ क्षणिकाओ के मुक्ताकाश में हम स्वच्छंद विचरण कर आये . वहाँ उछाला गया पत्थर तो नहीं लेकिन देदीप्यमान सितारे दिखे

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

आशीषजी,
उछाला गया पत्थर तो आकाश से लौट कर आ गिरा था न कम्बखत, 'मुक्ताकाश' पर दीखता कैसे ?
आभार !!
सप्रीत--आ.व.ओ.

मनोज कुमार ने कहा…

ग़ज़ब की क्षणिकाएं!
गागर में सागर भर दिया है आपने।

बेनामी ने कहा…

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