--मेरा अज्म--
एक पत्थर
तबीयत से उछाला था मैंने
सोचा था,
आस्मां में सुराख कर
जा ठहरेगा कमबख्त--
वह मुंह पर आ गिरा,
मेरा अज्म मुझे ही
बदशक्ल कर गया !
--ज़िन्दगी की मेज़ पर--
तुमसे कुछ कहना था,
शब्द नहीं मिले
तो हवा की जुगाली कर ली !
बहुत कुछ तुम्हें बाताना था
संयोग नहीं बना
तो मैंने अपनी कलम में
स्याही भर ली--
चलो, यूँ ही रँगता रहूंगा सफ़े
ज़िन्दगी की मेज़ पर !
6 टिप्पणियां:
बहुत ही बेहतरीन!
एक पत्थर
तबीयत से उछाला था मैंने
सोचा था,
आस्मां में सुराख कर
जा ठहरेगा कमबख्त--
वह मुंह पर आ गिरा,
मेरा अज्म मुझे ही
बदशक्ल कर गया !
क्या बात है!!
दोनों क्षणिकाएं काबिल-ए-दाद! बहुत सुन्दर.
कविताओ/ क्षणिकाओ के मुक्ताकाश में हम स्वच्छंद विचरण कर आये . वहाँ उछाला गया पत्थर तो नहीं लेकिन देदीप्यमान सितारे दिखे
आशीषजी,
उछाला गया पत्थर तो आकाश से लौट कर आ गिरा था न कम्बखत, 'मुक्ताकाश' पर दीखता कैसे ?
आभार !!
सप्रीत--आ.व.ओ.
ग़ज़ब की क्षणिकाएं!
गागर में सागर भर दिया है आपने।
I have been exploring for a little bit for any high-quality articles or weblog posts in this kind of house .
Exploring in Yahoo I at last stumbled upon this website.
Reading this info So i'm satisfied to exhibit that I have a very excellent uncanny feeling I discovered exactly what I needed. I so much for sure will make certain to don?t put out of your mind this site and provides it a glance on a constant basis.
My site ... was mentioned here
एक टिप्पणी भेजें