सांप-सी रेंगती नदी के पास
मैं आज भी खाली हाथ खड़ा हूँ !
उजाले का विश्वासघात
और अंधेरों का सपना
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ !
इस रुआंसी हो आयी शाम में
पाकड़ की टहनी से लटके
किसी चमगादड़ की तरह
उलटबासियों-सी ज़िन्दगी का ज़हर
मैंने पिया है
और घूरे पर फ़ेंक आया हूँ--
अपना भाग्य...
और अनवरत याचना की तमाम कुंठाएं
उस रूपसि के चरणों पर रख आया हूँ,
जिसने मेरी सारी भावनाओं को
संबोधनहीन स्नेह के नाम पर
कैद कर लिया है... !
न जाने कैसी अलौकिक प्रसन्नता के लिए
जिसने मेरे विश्वास को ज़हर
और अपने स्नेह को अमृत कहा है,
और इसी सम्मिश्रण को विष जानकर भी
मैंने पिया है !
लेकिन एक प्रश्न
आज भी ज़िंदा है,
सांप-सी रेंगती और
अनिर्दिष्ट तक चली गई
उस नदी की तरह,
जिसके मुहाने पर
मैं आज भी खाली हाथ खड़ा हूँ--
पीछे छूट गए
तुम्हारे तमाम आश्वासनों की लाश पर
न जाने क्यों औंधा पडा हूँ ?
मस्तिष्क की पतली शिराओं में
आज भी बहती-सी लगती है वह नदी...
और मैं वहीँ खड़ा देखता हूँ अपने आप को
जहां तेज़ बहाव से कट रही है
मुहाने की मिटटी... !
इस ज़िन्दगी के दस्तावेज़ पर
वक़्त के पड़े बे-वक़्त निशान
और उस पहचान के नाम
प्रवाहित करता हूँ ये इबारतें
जिसमें हर शक्ल अनजान
और हर समाधान
एक विराम बन गया है !!
4 टिप्पणियां:
मस्तिष्क की पतली शिराओं में
आज भी बहती-सी लगती है वह नदी...
और मैं वहीँ खड़ा देखता हूँ अपने आप को
जहां तेज़ बहाव से कट रही है
मुहाने की मिटटी... !
बहुत सुन्दर. मानव मात्र की नियति यही है कि वह मुहाने की मिट्टी को कटते हुए देखे.
अद्भुत
बिंबों का अच्छा प्रयोग है।
यह अंश अधिक अच्छा लगा...
और मैं वहीँ खड़ा देखता हूँ अपने आप को
जहां तेज़ बहाव से कट रही है
मुहाने की मिटटी... !
..सादर।
टंकण त्रुटि..
विष जानकार..
पाण्डेयजी,
टंकण त्रुटि की ओर ध्यान दिलाकर आपने कृपा ही की है ! आभारी हूँ ! शुद्धि कर दी है ! ऐसे ही ध्यानाकर्षण करवाते रहिये !!
साभार--आ.
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