सोमवार, 30 जुलाई 2012

वृक्ष बोला...

अपना सारा फल देकर
वृक्ष मुस्कुराया
और उमंग में भरकर
उसने कोमल टहनियों को ऊपर उठाया;
जैसे अपने हाथ उठाकर
सिरजनहार को धन्यवाद दे रहा हो,
कृतज्ञता ज्ञापित कर रहा हो
और भार-मुक्त करने के लिए
आभार व्यक्त कर रहा हो !

मैंने पूछा--'हे वृक्ष !
अपना सब कुछ देकर
तुम खुश कैसे होते हो ?
क्या अन्दर-अन्दर रोते हो ?

वृक्ष दृढ़ता से बोला-- 'नहीं,
त्याग से मुझे सुख मिलता है,
संतोष मिलता है
और मुझे अपनी पात्रता का बोध होता है;
मैं तो अपने फल लुटाकर
परितृप्त होता हूँ
और सुख की नींद सोता हूँ !
तुम भी अपने मीठे-कड़वे
कृमी-कीट लगे फल त्यागो --
सुख पाओगे,
संपदा की गठरी बांधे रखोगे,
तो लुट जाओगे !!'

3 टिप्‍पणियां:

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

बहुत सुंदर कविता !!
ख़ूबसूरत मंज़रकशी के साथ जो संदेश है कमाल का है

मैंने पूछा--'हे वृक्ष !
अपना सब कुछ देकर
तुम खुश कैसे होते हो ?
क्या अन्दर-अन्दर रोते हो ?
ये एक पंक्ति क्या अंदर अंदर रोते हो ??
इस ने क्य कुछ नहीं कह दिया बहुत ख़ूब !!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

उसने कोमल टहनियों को ऊपर उठाया;
जैसे अपने हाथ उठाकर
सिरजनहार को धन्यवाद दे रहा हो,
कृतज्ञता ज्ञापित कर रहा हो
और भार-मुक्त करने के लिए
आभार व्यक्त कर रहा हो !
देने के बाद स्वयं को भारमुक्त महसूस करने का भाव केवल प्रकृति में ही पाया जाता है, वो चाहे धरती हो या वृक्ष. इंसान तो मात्र लेने के लिए बना है... वृक्ष सी दानशीलता क्या कभी मनुष्य पा सकता है???

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

इसीलिए तो दूब से कहते हुए वृक्ष सब को यह सन्देश और प्रेरणा देता है वंदनाजी ! आभार !!
--आ.