अब तो बात पुरानी पड़ती जा रही है, लेकिन इतनी भी नहीं कि मेरी स्मृतियों में उसकी चमक मद्धिम पड़ जाए. वह सन १९७२-७३ का ज़माना था. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण-क्रांति का आह्वान किया था, जिसे बिहार में जन-जन का विपुल समर्थन प्राप्त था. युवा वर्ग तो आंदोलित था ही, प्रख्यात राजनेता, विद्वान लेखक-कवि-चिन्तक, समाज-सुधारक, शिक्षक-छात्र, पत्रकार और राजकर्मी भी आन्दोलन में कूद पड़े थे. बिहार की तरुणाई ने अंगड़ाई ली थी और बर्बर शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने को कटिबद्ध हो उठी थी. कहना होगा, सम्पूर्ण बिहार ही एक स्वर में बोल उठा था तब ! यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण का करिश्मा था !
मेरे पूज्य पिताजी (स्व. प्रफुल्ल चन्द्र ओझा 'मुक्त') को आकाशवाणी-सेवा से अवकाश प्राप्त किये थोड़ा ही अरसा गुजरा था और वह इस उत्साह और उमंग से भरे हुए थे कि बंधन-मुक्त होकर अब लिखने-पढ़ने का बहुत सारा काम कर सकेंगे, जो कई-कई वर्षों से लंबित था. सन १९७३ के प्रारम्भ में ही उन्होंने मेरी बड़ी बहन का विवाह दिल्ली से किया था और इस दायित्व से मुक्त होकर पटना में पटना में उन्होंने अपने -पढ़ने-लिखने की नई व्यवस्था बना ली थी. उनके पास भाषा-सम्पादन और अनुवाद की अनेक पुस्तकों का क्रम लगा रहता था. इसके अतिरिक्त स्वलेखन का दायित्व तो उन पर था ही. पांडुलिपियों-पुस्तकों और अनेकानेक सन्दर्भ-ग्रंथों से घिरे वह दिन-रात काम में जुटे रहते थे. मैं उन दिनों पटना महाविद्यालय का स्नातक अंतिम वर्ष का छात्र था और पटनासिटी में अपने नानाजी के विशाल परिसरवाले खजांची कोठी में रहता था.
सन १९७४ की गर्मियों के दिन थे. सुबह-सबेरे अचानक एक अम्बेसेडर कार परिसर में प्रविष्ट हुई. धोती-कुर्ता-बंडी और मोटे फ्रेम का अधिक पावर वाला चश्मा धारण किये एक दुबले-पतले सज्जन उससे उतरे. मैं उनके पास गया तो उन्होंने अपना नाम बताते हुए कहा--"मैं सच्चिदानंद, जे.पी. का पी.ए. हूँ. उन्होंने ही मुझे भेजा है. मैं 'मुक्तजी' से मिलना चाहता हूँ. क्या वे घर पर हैं ?" मैंने स्वीकृति में सर हिलाया और उन्हें बाहरी दालान में पड़ी कुर्सी पर बिठाकर पिताजी को सूचित करने अन्दर चला गया. पिताजी ने यह जानकार कि जयप्रकाश जी के निजी-सचिव आये हैं, वह जिस हाल में थे, वैसे ही उठ खड़े हुए और उनके पास पहुंचकर बातें करने लगे. वार्ता पांच मिनट भी न हुई होगी कि पिताजी क्षिप्रता-से अन्दर आये और उन्होंने मुझसे कहा--"जयप्रकाशजी ने बुलाया है, मुझे तत्काल जाना होगा. मेरे कपडे निकाल दो." पिताजी तुरंत तैयार हुए और सच्चिदानंदजी के साथ कार से विदा हो गए.
तब जयप्रकाशजी पटना के कदमकुआं मोहल्ले के अपने आवास में रहते थे जो पटनासिटी से प्रायः सात-आठ किलोमीटर दूर था. मैं जानता था कि पिताजी को लौटने में विलम्ब होगा, लेकिन इतना होगा, यह नहीं जानता था. उन्होंने दिन का भोजन भी नहीं किया था. लौटे, तो शाम होने को थी. उनकी मुख-मुद्रा से लगा कि वह प्रसन्न हैं और साथ ही किञ्चित व्यग्र और चिंतित भी. इसका कारण जानने के लिए हम सभी उनकी ओर प्रश्नाकुल बने देख रहे थे. उन्होंने हमें बैठने को और बड़ी बहन को चाय बनाने को कहा, फिर वस्त्र बदलकर हमारे पास आये, बैठे और बोले--"जयप्रकाशजी का आदेश है कि मैं दिल्ली चला जाऊं और बिहार आन्दोलन को समर्थित पत्र का सम्पादन करूँ. कल मुझे जयप्रकाशजी के पास फिर जाना है, इस निर्णय के साथ कि यह दायित्व उठाने को मैं तैयार हूँ या नहीं ! कल वहाँ इंडियन एक्सप्रेस के स्वामी रामनाथ गोयनकाजी भी आ रहे हैं. तुमलोग जानते हो कि जयप्रकाशजी की बात उठाना मेरे लिए कठिन है, लेकिन मेरी मुश्किल यह है कि तुम सबों को छोड़कर मैं दिल्ली चला जाऊं तो घर कि देख-संभाल कैसे होगी ? बच्ची (मेरी छोटी और मानसिक रूप से अविकसित बहन) को कौन संभालेगा ?" फिर मेरी ओर देखकर बोले--"और अभी तो तुम्हारी अंतिम वर्ष कि परीक्षा भी होनी है... !" मेरी बड़ी बहन सीमाजी बोलीं--"बाबूजी, आप बच्ची कि फिक्र मत कीजिये, उसे मैं देख लूँगी. आप तो सम्पादन के लिए स्वीकृति दे दीजिये." इस लम्बी चर्चा और रात्रि-भोजन के बाद जब पिताजी शयन के लिए अपने कक्ष में इसी दुबिधा के साथ चले गए, तो मैंने भी चारपाई पकड़ी. लेकिन मुझे कोई संशय नहीं था कि पिताजी कल किस निश्चय के साथ उठेंगे. मैं जानता था कि वह स्वीकृति ही देंगे; क्योंकि बाल्यकाल से मैंने कई बार उनके मुख से सुना था कि 'बिहार में दो व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके आदेश की अवमानना वह कभी कर ही नहीं सकते--पहले, देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद (जिन्हें वह 'बाबू' कहा करते थे) और दूसरे जयप्रकाश नारायण !'
[क्रमशः]
3 टिप्पणियां:
लम्बी प्रतीक्षा के बाद लगता है, एक बार फिर अनमोल संस्मरण पढने को मिलेंगे...
saatrhak post, aabhar.
वंदना से सहमत , हम दम साधे इंतजार करेंगे अगले अंक की .
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