[तीसरी किस्त]
बातें हो चुकी थीं.जे.पी. ने फ़ोन उठाकर सच्चिदानंदजी को कुछ आवश्यक निर्देश दिए. एक सेवक चाय-बिस्कुट ले आया. हमने चाय पी ही थी कि सच्चिदानंदजी कई पुस्तकें और कुछ मुद्रित सामग्री लेकर कक्ष में प्रविष्ट हुए. उन्होंने कई टंकित पत्र भी जे.पी. के सामने रखे, जिन पर उन्होंने हस्ताक्षर किये. फिर स्वयं उठकर पुस्तकों की आलमारी तक गए, एक पुस्तक ले आये. उन्होंने उसपर कुछ लिखा और सब कुछ पिताजी के हाथों में सौंप दिया. सच्चिदानंदजी ने जे.पी. के हस्ताक्षरित कई पत्रों को लिफ़ाफ़े में डालकर पिताजी को दिया. मुद्रित सामग्री का पैकेट भी साथ था. ठीक-से मैं सुन नहीं सका, लेकिन सच्चिदानंदजी ने जे.पी. को कुछ ऐसा स्मरण दिलाया कि अमुक पत्र अभी तैयार नहीं है, एक दिन बाद वह मिल सकेगा. जे.पी. ने पिताजी से कहा--"आप तो दिल्ली जाने की तैयारियों में व्यस्त रहेंगे, परसों यदि आनंदजी को भेज दें तो अमुक सामग्री भी आपके पटना छोड़ने के पहले आपको मिल जायेगी." यही निश्चित हुआ. हमने उन्हें प्रणाम निवेदित किया और विदा हुए. भवन से बाहर आते ही मैंने पिताजी से मांगकर वह पुस्तक देखी. वह उन्हीं की पुस्तक थी--'मेरी विचार-यात्रा', जिसपर उन्होंने लिखा था--"मित्रवर मुक्तजी को--सपेम, जयप्रकाश." यह पुस्तक आज भी मेरे संग्रह में सुरक्षित है. जयप्रकाशजी के प्रथम दर्शन से ही मैं अभिभूत होकर लौटा.
शेष सामग्री लेने जब मैं दुबारा जयप्रकाशजी के निवास पर पहुंचा, तो वहाँ अत्यधिक भीड़ थी. वहीं मैंने पहली बार युवा तुर्क नेता चंद्रशेखरजी के दर्शन किये थे. वहाँ तो हलचल मची थी. अहाते में इतनी भीड़ थी कि मुश्किल से बीच की राह बनाता मैं किसी तरह सच्चिदानंदजी के पास पहुँच सका. पहली बार की तरह सच्चिदानंदजी मुझे जे.पी. के कक्ष तक ले गए. मैंने उनके चरणों का स्पर्श किया, बोले--"प्रसन्न रहिये." सच्चिदानंदजी ने दो पत्र और कागजों का एक पुलिंदा मुझे दिया. जयप्रकाशजी ने मुझसे कहा--"यह सब मुक्तजी को दे दीजिएगा, उन्हें मालूम है कि इनका क्या करना है." मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया. और किसी बात की गुंजाईश नहीं थी. वहाँ मिलनेवालों की कतार लगी थी और लोकनायक को क्षण-भर का अवकाश और विश्राम नहीं था, जबकि उनका शरीर थका हुआ और क्लांत लग रहा था. मैंने उन्हें पुनः प्रणाम किया और कक्ष से बाहर निकल आया.
दूसरे दिन पिताजी तो दिल्ली चले गए और बिहार में उथल-पुथल बढती गई. महीने-डेढ़ महीने बाद पिताजी द्वारा संपादित साप्ताहिक 'प्रजानीति' का प्रवेशांक पटना आया था. फिर तो यह क्रम ग्यारह महीने तक सप्ताह-दर-सप्ताह चलता रहा. पाठक अधीरता से 'प्रजानीति' की प्रतीक्षा करते थे. 'प्रजानीति' के अंक बुक-स्टाल पर आते और हाथों-हाथ बिक जाते. उस दौर में पत्र ने पूरे देश में और खासकर बिहार में खलबली मचा दी थी.
जयप्रकाशजी के दो बार दर्शन करके मैं ऐसा अभिभूत हुआ था कि आन्दोलन में और सक्रियता से जुड़ा. पटनासिटी में हम नवयुवकों की टोली नागार्जुनजी की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियां करती, धरने देती, भूख हड़ताल पर बैठती और कर्फ्यू के आदेश की अवमानना करती.वे जोश-खरोश, उत्साह-उमंग और ऊर्जा से भरे दिन थे. आन्दोलन में सक्रियता से जुड़कर हमें ऐसा लगता था कि हम भी अपने देश के लिए कुछ अति महत्वपूर्ण कर रहे हैं, प्रदेश के नवनिर्माण में रेखांकित करने योग्य अपना-अपना योगदान दे रहे है. यह जज्बा, यह उमंग और उत्साह लोकनायक ने उन दिनों जन-जन में भर दिया था. यह जयप्रकाशजी का जादू था, यह उन्हीं के विराट व्यक्तित्व का कमाल था. कांग्रेस-जनों और सत्ता की चाटुकार टोली को छोड़कर ऐसा कौन था उस दौर में जो आन्दोलन की आग में कूद न पड़ा था !
पटना के गाँधी मैदान की उस जनसभा को मैं कभी भूल नहीं सकता, जिसमें जयप्रकाशजी ने बिहार की सोयी हुई जनता को जगाया था और सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया था.वह एक ऐतिहासिक विराट सभा थी. विशाल गाँधी मैदान तो खचाखच भरा ही था, मैदान के बाहर सड़कों पर, अगल-बगल के वृक्षों पर, भवनों पर लोग-ही-लोग दीखते थे. ऐसा जन-समुद्र मैंने पहले कभी नहीं देखा था. हाँ, पिछले वर्ष (२०११) श्रीअन्ना हजारे के जनलोकपाल के समर्थन में उमड़ी भीड़ उसी जन-पारावार का एक बड़ा अंश अवश्य थी, जिसे देखकर जयप्रकाशजी और उस दौर की मुझे बहुत-बहुत याद आयी थी....
[क्रमशः] अँधेरी कोठारी के अकेले रौशनदान थे 'जयप्रकाश नारायण'
2 टिप्पणियां:
ज्ञानवर्धक प्रस्तुति । काश अण्णाजी को भी और सफलता मिलती ।
बहुत अच्छा जानकारी भरा आलेख
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