[२९ मार्च : पं. भवानीप्रसाद मिश्रजी की जयंती! उन्हें स्मरण-नमन करता हूँ. उनकी स्मृतियों का एक आत्मीय संंस्मरण पोस्ट कर रहा हूँ. आज (३० मार्च को}
यह संस्मरण 'जनसत्ता, दिल्ली ने रविवारी पृष्ठ-३ पर प्रकाशित भी किया है. --आनंदवर्धन.]
यह संस्मरण 'जनसत्ता, दिल्ली ने रविवारी पृष्ठ-३ पर प्रकाशित भी किया है. --आनंदवर्धन.]
गांधीवादी चिंतक और हिंदी के वरेण्य कवि भवानीप्रसाद मिश्रजी की याद करते हुए मन बहुत पीछे साठ के दशक में पहुँच जाता है. उन दिनों वर्ष में एक बार अखिल भारतीय स्तर पर 'रेडियो वीक' मनाने की परिपाटी थी, जिसमें सप्ताह-भर प्रतिदिन एक-न-एक आयोजन होते थे--साहित्यिक, सांगीतिक और रंगमंचीय आयोजन! इसमें कवि-सम्मलेन और 'लोहा सिंह' नाटक की पटना में धूम रहती थी. कवि-सम्मलेन का संयोजन-संचालन मेरे पिताश्री (पं. प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त') करते थे. ऐसे ही एक कवि-सम्मलेन में मैंने सर्वप्रथम भवानीप्रसादजी के दर्शन किये थे, उनकी कविता सुनी थी. सुगठित शरीर, औसत क़द, गौर वर्ण, उन्नत ललाट, अधपके केश और श्वेत परिधान--धोती-कुर्ते में वे दिव्य मूर्ति लगे थे. उस कच्ची उम्र में कविता की उतनी समझ तो थी नहीं, लेकिन अन्य कवियों के बीच उनके काव्य-पाठ के अनूठे अंदाज़ ने मुझे बहुत आकर्षित-प्रभावित किया था.
गांधीयुग की छाया में पली-बढ़ी उस समूची पीढ़ी में आचरण और मर्यादाओं के पालन की बात ही कुछ निराली थी. वर्धा आश्रम में कई वर्षों के निवास ने भवानीप्रसाद मिश्रजी को उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा दी थी, सत्यनिष्ठ, विनयी और संस्कारवान बनाया था. वे मेरे पिताजी से तीन वर्ष छोटे थे, उन्होंने आजीवन अनुज होने की शालीनता का परिचय दिया और पिताजी को बड़े भाई का आदर-मान देते रहे. वे पिताजी के अनुज तो थे ही, घनिष्ठ मित्र भी थे--आकाशवाणी-कार्यकाल के ज़माने से. कभी वे दिन भी थे, जब भवानीप्रसादजी आकाशवाणी, बम्बई और फिर दिल्ली में प्रोड्यूसर पद पर कार्यरत थे और पिताजी आकाशवाणी, पटना में. वे जब भी मिलते, बड़ी आत्मीयता से मिलते, हुलसकर मिलते. ऐसे अनेक अवसरों का स्मरण मुझे है, जब पिताजी से मिलने की परम प्रसन्नता मैंने उनके श्रीमुख पर साफ-साफ़ देखी थी--आकुल, आह्लादित, उत्कंठ प्रफुल्लता! विनय, अनन्य प्रीति और मृदुलता उनके चरित्र का भूषण थी. वे बड़े कवि तो थे ही, सर्वात्मना भद्र, शालीन और सहृदय व्यक्ति थे.
उनकी कविता श्रोताओं-पाठकों से सीधा संवाद करती है--बोलती-बतियाती है, नदी की धारा-सी कल-कल बहती जाती है--गति, लय के साथ अनंत प्रवाह-सी. भाव-बोध में रची-बसी अप्रतिम शब्द-रचना में वे सिद्धहस्त थे. अद्भुत प्रवाहमयी कविता करने का उनका कौशल अनूठा था. पच्चीस-तीस वर्षों के लम्बे प्रसार में भवानीप्रसादजी काव्य-मंच के सर्वाधिक प्रसंशित और प्रिय कवि रहे. उनकी कविताएँ खूब पढ़ी-सुनी गईं और चर्चा में बनी रहीं! वे दूसरे सप्तक के कवि बने--भाषा-भाव के बहुत समृद्ध कवि! वे बोली-बानी के कवि थे. उनके काव्य-ग्रंथों 'गीतफरोश', 'बुनी हुई रस्सी', 'चकित है दुःख', 'अँधेरी कविताएँ', 'त्रिकाल संध्या', 'खुशबू के शिलालेख' आदि में इसके यथेष्ट प्रमाण मिलते हैं. उन्होंने अपनी कविता के बारे में कहीं लिखा भी है--"मैं कविता नहीं लिखता, कविता मुझको लिखती है...". उनकी कविताएँ पढ़कर सचमुच ऐसा प्रतीत होता है कि उनके उद्वेगों, आवेगों, विचारों, चिंतनों को कविता स्वयं शब्द दे रही है और वह भी कितनी सहजता से, सरल-सहज शब्दों में--
'कुछ पढ़ के सो,
कुछ लिख के सो,
जिस जगह जागा सबेरे
उससे आगे बढ़ के सो...!'
[क्रमशः]
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