पक तो गए थे तुम
तुम्हें तो गिरना ही था
जगत-वृक्ष की डाल से... !
तुम गिरे,
मैंने साभार झुककर तुम्हें उठाया,
धोया, स्वच्छ किया;
फिर किया तुम्हारा उपभोग--
कितने मीठे,
कितने सुस्वादु हो गए थे तुम--
मैं आकंठ तृप्त हुआ,
क्षुधा शांत हुई मेरी...!
तृप्ति के संतोष से
उपजे आशीष को
दो खण्डों में बांटकर
मैंने एक भाग तुम्हें दिया,
दूसरा उसे दे आया
जिसकी कोमल बाहें छोड़
तुम टपक पड़े थे भूतल पर!
आशीष बांटकर मैं निःस्व हो गया;
लेकिन अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करते हुए
तुम्हारे बीज-स्वरूप अवशेष को
रख आया हूँ बगीचे में--
भुरभुरी मिटटी में
खाद-पानी के साथ!
बोलो न, कब तक बन जाओगे तुम
एक छायादार विशाल वृक्ष
मेरे मीठे-सुस्वादु
पके हुए फल...?
ऐसा कब होगा कि
मेरे मन में फिर उपजेगा आशीष,
जागेगा भीतर दाता...?
हम तुम्हारे मौन का
अर्थ-विन्यास नया करते हैं
सच है, भावुकता में बहुधा
हम प्रश्न बहुत करते हैं!
छोडो, प्रश्नों को जाने दो,
तुम नए वृक्ष की बांह पकड़
फिर से आना,
मैं भी वस्त्र बदलकर आ जाऊंगा--
कालचक्र के साथ-साथ
चलता रहेगा न यह सिलसिला--
अनवरत...?
बीज मौन था,
किन्तु धरती से उठती
मंद ध्वनि मैंने सुनी,
जैसे बीज कह रहा हो--
ये तो भविष्य के गर्भ में
झांकने का यत्न है,
बन्धु ! यह भी एक प्रश्न है...!!
4 टिप्पणियां:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (18.07.2014) को "सावन आया धूल उड़ाता " (चर्चा अंक-1678)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
बिल्कुल सही।
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सिलसिले चलते ही रहेंगे।
बिल्कुल अलग है अंदाज....बहुत खूब।
बहुत ही सुन्दर .बार बार पढ़ने को जी किया .अद्भुत
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