['मैं भयावह काली बिल्ली-सी नहीं,
भासमान उज्ज्वल छाया-सी हूँ--हवा में तरंगित'... ]
भासमान उज्ज्वल छाया-सी हूँ--हवा में तरंगित'... ]
पिछले डेढ़-दो महीने की वार्ता में चालीस दुकानवाली आत्मा ने कई टुकड़ों में मुझे अपनी पूरी जीवन-कथा सुनायी थी। उसकी कथा में जीवन के सारे रंग थे--उत्साह-उमंग के, सुख के, दुःख के और गहरे अवसाद के रंग। खून के जमे हुए थक्कों-से स्याह रंग बहुत व्यथित करनेवाले रंग थे, जो आँखों में आंसू बनकर उतर जाना चाहते थे। मात्र तेईस-चौबीस वर्ष के जीवन में उसने बहुत कुछ सहा-भोगा था। मुझे कई बार लगता कि वह अपनी कहानी सुनाने के लिए ही मुझ से जुड़ी है, लेकिन शायद मैं बहुत सही नहीं था। यह गहरी संपृक्ति कई तरह के आभास देती और मेरा बोध बार-बार डगमगा जाता था।
बहुत संक्षेप में उसकी जीवन-गाथा कहूँ, तब भी वह थोड़ी विस्तृत ही होगी। उत्साह, उमंग और हर्ष से शुरू हुआ उसका जीवन पीड़ा की पराकाष्ठा पर पहुंचकर समाप्त हो गया था। वह अपने माता-पिता की एकमात्र कन्या-संतान थी। गोरी-चिट्टी, सुदर्शना बिटिया! नाज़ों की पली बिटिया! तब उसने जीवन में खुशियों का ही रंग देखा था। इण्टर की परीक्षा में उत्तीर्ण होते ही उसका विवाह हुआ था। उसका पति सुदर्शन युवक था। जल्द ही दोनों में गहरी प्रीति पनपी थी। लेकिन अभी वह स्नातक तक पढ़ना चाहती थी। इसकी स्वीकृति ससुरालवालों ने उसे दे दी थी। कॉलेज में उसके मुहल्ले का एक समवयस्क युवक उसके जीवन में आया। वह भी बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। एक ही मुहल्ले का परिचय-सूत्र पकड़कर वह पढाई में आपसी सहयोग के लिए उसके मायकेवाले घर आने-जाने लगा था। उन दोनों की मित्रता निष्कलुष मित्रता थी--अध्ययन की परिधि तक सीमित। किन्तु न जाने ऐसा क्या हुआ कि जितनी शीघ्रता से नव-दम्पति के बीच प्रीति पनपी थी, उससे भी कम समय में उसके पति के मन में शंका के व्याल ने अपना फण उठाना शुरू कर दिया। अभी प्रथम वर्ष का छह महीना ही बीता था कि उसका पति परोक्ष रूप से उससे सहपाठी के विषय में अनुचित प्रश्न करने लगा और कभी-कभी हंसी-मज़ाक करता हुआ व्यंग्य-बाण छोड़ने लगा। शुरूआती दौर में तो यह सब सामान्य चुहलबाज़ियों-सा लगता रहा, लेकिन वक़्त के साथ इस हंसी-मज़ाक का रंग बदलता गया। अब उसे साफ़ दिखने लगा कि पति के मन में ये खामखाह की शंका जड़ जमाती जा रही है। उसने इन बातों का प्रतिरोध शुरू किया तो छोटे-मोटे विवाद होने लगे। ये विवाद पति-पत्नी के बीच ही रहे, परिवारवालों तक इसकी आंच नहीं पहुंची। थोड़ा वक़्त और गुज़रा तो उसे स्पष्ट परिलक्षित होने लगा कि उसका पति उसके प्रति उदासीन रहने लगा है। उसने कई बार इसका कारण भी जानना चाहा, किन्तु पति से कोई संतोषजनक उत्तर उसे नहीं मिला। उसके मन की कामनाओं की कल्प-लता मुरझाने लगी थी।
किसी तरह पढाई का पहला वर्ष व्यतीत हुआ। जब वह द्वितीय वर्ष में आई, तभी की बात है। एक दिन वह अपने सहपाठी के साथ महाविद्यालय-प्रांगण से बाहर आई तो उसने देखा कि उसका पति बाहर उसकी प्रतीक्षा में खड़ा है। वह उसके पास पहुँची, लेकिन उसे छोड़ता हुआ वह बड़ी तेजी से उसके मित्र के पास जा पहुँचा और दोनों में थोड़ी कहा-सुनी होने लगी। वह क्षिप्रता से दोनों के पास आयी और बीच-बचाव करके पतिदेव को अलग खींच ले गयी। बात यहीं ख़त्म हो गई। रास्ते भर वह अपने पति को समझाने का प्रयत्न करती रही कि जैसा वह समझ रहा है, वैसा कुछ है नहीं, वह नाहक शक कर रहा है और एक सामान्य मित्रता को मलिन रंग देने की अनावश्यक चेष्टा कर रहा है। उसकी बातों का पति के ऊपर कोई प्रभाव होता नहीं दीख रहा था, वह मुँह फुलाये रहा, बोला कुछ नहीं।
इस घटना के बाद के तीन महीने कष्टकर गुज़रे--अलगाव, मनमुटाव और नोक-झोंक के। इन्हीं कारणों से अब उसका मन भी पढाई में नहीं लग रहा था। वह सोचने लगी थी कि पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए पढाई ही छोड़ दे। अभी वह किसी निर्णय पर पहुँच पाती , इसके पहले ही एक रात वह अघटनीय घटना घट गई, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। रात के नौ बजे थे, वह किचेन में काम कर थी। तभी उसका पति पीछे से आया था। उसने तीव्र ज्वलनशील कोई तरल पदार्थ उस पर डाल दिया था और उसकी साड़ी का पल्लू जलते हुए बर्नर पर रख दिया था। देखते-देखते अग्नि ने विकराल रूप धारण कर लिया और एक मासूम जीवन-दीप उस अग्नि में जल बुझा था।
चालीस दुकानवाली आत्मा ने मुझे तफ़सील से बताया था कि उसके बाद उसके पति ने कैसे-कैसे नाटक किये थे, मूर्च्छित अवस्था में किस तरह उसे अस्पताल पहुँचाया था, इस हादसे को किन प्रयत्नों से उसने दुर्घटना का रंग दिया था, तमाम रिश्तेदारों, उसके मायकेवालों के सामने कितना अभिनय किया था वगैरह ! उसने मुझसे कहा था--'सुबह होने के पहले जब मैंने शरीर छोड़ा था, तो अपनी ही सुन्दर काया की ऐसी दुर्दशा देखकर चीख पड़ी थी, लेकिन मेरे आसपास बैठे और रो रहे परिजन मेरी चीख सुन नहीं सके थे। मैं अपनी माँ, पिताजी और भाई के आसपास देर तक मँडराती रही और उन्हें घटना की सच्चाई बताने को चिल्लाती रही, लेकिन मैं कंठ-विहीन हो चुकी हूँ, यह थोड़ी देर बाद मैं जान सकी। तुम्हारे जगत के सारे सूत्र मुझसे छूट गए थे। मैं हताश, लाचार, निरुपाय और असहाय हो गई थी।'
मेरी जिज्ञासा पर उसने कहा था--'इसी विवश दशा में, मैं क्षोभ से भरी हुई, लम्बे समय तक भटकती रही, तभी एक दिन तुम मुझे मिले थे। मैंने पहली बार अपनी पीड़ा तुम्हें ही बतायी थी। मैं अपने पति से बदला लेना चाहती थी और इसीलिए तुमसे मदद माँग रही थी, लेकिन जब तुमने मुझे जल दिया, मेरी जलन कुछ कम हुई। तुमसे बातें करके मुझे शांति मिलने लगी, द्वेष और बैर-भाव तिरोहित होने लगा। तुम मुझसे बस बातें करते रहो, मुझे सचमुच अच्छा लगता है।'
मैंने उससे पूछा था--'ये बैर-भाव, ये द्वेष-द्वंद्व तुम्हारे लोक में भी तो होगा न ?'
उसने तत्काल उत्तर दिया था--'नहीं, ये सब तुम्हारे जगत की निधियाँ हैं। ये जाति-सम्प्रदाय, बैर-उत्पीड़न, द्वेष-द्वन्द्व, कलह-घृणा, कुंठा-अवसाद और निर्मूल शंका-प्रतिशोध--सब तुम्हारे लोक के विष-भूषण हैं। मैं तो निस्सीम आकाश में तैरती हूँ, जहाँ कोई अवरोध नहीं है। न सूर्य का ताप मुझे जलाता है और न वर्षा की बूदें मुझे भिगोती हैं। ओलों की बौछार भी मुझे बींध नहीं सकती। यहां कोई क्लेश नहीं, दुःख-द्वंद्व नहीं, राग-द्वेष नहीं; आनन्द ही आनन्द है। हम यहां बहुत बड़ी संख्या में हैं--अनगिनत आत्माएँ ! हम एक-दूसरे से हिले-मिले रहते हैं, एक-दूसरे के पार चले जाते हैं। कोई किसी के मार्ग का बाधक नहीं बनता। किसी प्रकार का अंतर्विरोध भी नहीं। काश, तुम मेरे साथ होते और इस परमानंद में मेरे साथ विचरण करते, आनंद का शतदल कमल खिल जाता--विश्वास करो मेरा !"
मेरी जिज्ञासा पर उसने कहा था--'इसी विवश दशा में, मैं क्षोभ से भरी हुई, लम्बे समय तक भटकती रही, तभी एक दिन तुम मुझे मिले थे। मैंने पहली बार अपनी पीड़ा तुम्हें ही बतायी थी। मैं अपने पति से बदला लेना चाहती थी और इसीलिए तुमसे मदद माँग रही थी, लेकिन जब तुमने मुझे जल दिया, मेरी जलन कुछ कम हुई। तुमसे बातें करके मुझे शांति मिलने लगी, द्वेष और बैर-भाव तिरोहित होने लगा। तुम मुझसे बस बातें करते रहो, मुझे सचमुच अच्छा लगता है।'
मैंने उससे पूछा था--'ये बैर-भाव, ये द्वेष-द्वंद्व तुम्हारे लोक में भी तो होगा न ?'
उसने तत्काल उत्तर दिया था--'नहीं, ये सब तुम्हारे जगत की निधियाँ हैं। ये जाति-सम्प्रदाय, बैर-उत्पीड़न, द्वेष-द्वन्द्व, कलह-घृणा, कुंठा-अवसाद और निर्मूल शंका-प्रतिशोध--सब तुम्हारे लोक के विष-भूषण हैं। मैं तो निस्सीम आकाश में तैरती हूँ, जहाँ कोई अवरोध नहीं है। न सूर्य का ताप मुझे जलाता है और न वर्षा की बूदें मुझे भिगोती हैं। ओलों की बौछार भी मुझे बींध नहीं सकती। यहां कोई क्लेश नहीं, दुःख-द्वंद्व नहीं, राग-द्वेष नहीं; आनन्द ही आनन्द है। हम यहां बहुत बड़ी संख्या में हैं--अनगिनत आत्माएँ ! हम एक-दूसरे से हिले-मिले रहते हैं, एक-दूसरे के पार चले जाते हैं। कोई किसी के मार्ग का बाधक नहीं बनता। किसी प्रकार का अंतर्विरोध भी नहीं। काश, तुम मेरे साथ होते और इस परमानंद में मेरे साथ विचरण करते, आनंद का शतदल कमल खिल जाता--विश्वास करो मेरा !"
सचमुच, चालीस दुकानवाली आत्मा की बातों में जादू था, सम्मोहन था। मेरे मन का आकर्षण यह था कि मैं उसके लोक के जीवन को गहराई से जानना-समझना चाहता था। मैंने उससे कहा था--'तुम कहती हो, मैं तुम्हारे साथ होता तो… लेकिन मैं तुम्हारे साथ कैसे हो सकता हूँ, मैं तो इस जगत में हूँ और तुम न जाने किस परा-जगत में। कभी-कभी तुम मुझे उस काली बिल्ली-सी लगती हो, जो स्याह अंधेरों से आती है, अपनी तीखी आँखें चमकाती हुई, कभी मीठी म्याऊँ करती हुई और कभी अपने नुकीले पंजे मारती हुई…! और, जो बातें करने के बाद उसी काले अँधेरे में विलीन हो जाती है।'
उसने हँसकर कहा था--'तुम्हें भ्रम है, मैं भयावह काली बिल्ली-सी नहीं, भासमान उज्ज्वल छाया-सी हूँ--हवा में तरंगित.... ! मुझे देखोगे तो आँखें चुँधिया जायेंगी तुम्हारी।'
मैंने भी हँसते हुए उससे कहा था--'तब तो तुम्हें देखना चाहूंगा किसी दिन। देखूँ , कैसे चुँधियाती हैं मेरी आँखें....?'
मेरी बात सुनकर वह 'ही-ही' करती हँस पड़ी थी।…
(क्रमशः)
4 टिप्पणियां:
कमाल का प्रवाह है आपकी लेखनी में...प्रणाम
लगता है, अब मेरे ब्लॉग पर कोई आता ही नहीं, कोई कुछ पढता ही नहीं...! लिहाज़ा,आभार आपका वन्दनाजी...!
ओझा जी ऐसा न कहे
हर रोज़ सुबह उठकर आपके ब्लॉग का लिंक देखना आदत बन गयी है, बस इंतज़ार रहता है अगली किश्त कब आये.
एक किताब पढ़ी थी कुछ दिनो पहले, "जीवात्मा जगत के नियम" (लेखिका -खोर्शेद भावनागरी). आपके बताये तथ्यों और उनके अनुभवों में काफी समानता पाई मैंने.
इसी प्रकार स्वामी श्री योगानन्द परमहंस लिखित विश्व विख्यात जीवनी "योगी कथामृत" (ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी ) पुस्तक के आखरी अध्यायों में भी इसी प्रकार के तथ्यों का विवरण है.
योगानन्द जी और खोर्शेद जी के साथ ही, ओझा जी आप भी मेरे विचार से इस विश्व के कुछ गिने-चुने भाग्यशाली लोगों में से एक हैं जोकि हम जैसे आम लोगों की द्रष्टि और सोच से परे, कल्पना से परे जगत के अनुभवों के साक्षी बने हैं.
इश्वर का आशीर्वाद आपके साथ है.
मेरी भी शुभकामनायें :)
बेनामी भाई, आपकी टिप्पणी ने मुझे हतप्रभ कर दिया है...! आपका आभारी हूँ...! लेकिन शीर्षस्थ महानुभावों की क़तार में मुझे स्थान न दीजिए... मैं तो इस विधा का एक रणछोड़ दास हूँ...!
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