['ज़मीं पर कभी उतरो तो कोई बात बने ...!' ]
अगली वार्ता में मेरी इस जिज्ञासा पर कि तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि वह मज़दूर अपने गाँव चला गया था और वहीं उसने यथानिश्चय गंगा के किनारे पूजन किया था, चालीस दुकानवाली आत्मा ने मुझसे कहा था--"हमारी गति का तुम्हें अनुमान नहीं है, मन की गति से भी क्षिप्र हैं हम! हम चाहें तो क्षण-भर में समुद्र लांघ जाएँ। तुम्हारे पलक झपकाने भर के अवकाश में विशाल पहाड़ की ऊँचाई नाप लें। उस मज़दूर का गाँव तो मेरे लिए एक हाथ की दूरी पर था। इच्छा मात्र से मैं पहुँच गयी थी वहाँ। वह सारा कृत्य मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा था।'
मैंने कहा--'तुमने स्पष्टतः बताया तो नहीं था, लेकिन मैं जानता हूँ कि पूर्व पीढ़ी की उस आत्मा की मुक्ति की बात तुम्हें पहले से ज्ञात थी। वह कैसे ?'
चालीस दुकानवाली ने कहा--'वह तो बिना प्रयास के ही मुझे पता चल गया था। लम्बे समय से भटकती बद्ध आत्मा जब मुक्त हुई, तो मुक्ति की सहज प्रसन्नता से भरकर, मेरे बहुत थोड़े से सहयोग के लिए, मुझे धन्यवाद देने स्वयं मेरे पास आई थी। अब वह ऊपर के तल पर चली गई है। उसका कष्ट-काल अब समाप्त हुआ समझो। मेरा अनुमान है कि शीघ्र ही उसका पुनर्जन्म होगा।'
चालीस दुकानवाली की बात सुनकर मैं स्तब्ध था। उसका कथन सौ फ़ीसदी सच हो रहा था, लिहाज़ा अविश्वास का कोई कारण भी नहीं था।
मैंने कहा--'तुमने स्पष्टतः बताया तो नहीं था, लेकिन मैं जानता हूँ कि पूर्व पीढ़ी की उस आत्मा की मुक्ति की बात तुम्हें पहले से ज्ञात थी। वह कैसे ?'
चालीस दुकानवाली ने कहा--'वह तो बिना प्रयास के ही मुझे पता चल गया था। लम्बे समय से भटकती बद्ध आत्मा जब मुक्त हुई, तो मुक्ति की सहज प्रसन्नता से भरकर, मेरे बहुत थोड़े से सहयोग के लिए, मुझे धन्यवाद देने स्वयं मेरे पास आई थी। अब वह ऊपर के तल पर चली गई है। उसका कष्ट-काल अब समाप्त हुआ समझो। मेरा अनुमान है कि शीघ्र ही उसका पुनर्जन्म होगा।'
चालीस दुकानवाली की बात सुनकर मैं स्तब्ध था। उसका कथन सौ फ़ीसदी सच हो रहा था, लिहाज़ा अविश्वास का कोई कारण भी नहीं था।
मुझे लगता है, ऐसी ही विचलित और सरल मन की आत्माओं को दत्तचित्त साधक, औघड़, साधु-महात्मा साध लेते होंगे और अपने वश में करने के बाद जन-कल्याण के लिए सूचनाएँ प्राप्त करते होंगे, उनसे मनोवांछित काम करवाते होंगे। लेकिन मेरी तो वह राह नहीं थी। मैं चालीस दुकानवाली से प्रेमालाप ही करता रहा और जब कभी कोई प्रसंग मेरे अभिज्ञान में आया तो मैंने सहज भाव से उसकी चर्चा उससे की। चालीस दुकानवाली स्वयं तत्परता से उसके समाधान में जुट जाती थी। वह स्वयं प्रेरित होकर अनुसंधान करती और मसलों का नीर-क्षीर विवेचन कर जाती, समाधान के सूत्र दे जाती थी। संभवतः वह मेरी मदद करने का कोई अवसर चूकना नहीं चाहती थी। मैं अपनी ओर से उसपर न तो कोई दबाव डालता, न कभी कोई आदेश देता था। शायद इसी कारण उसकी मुझपर अतिरिक्त कृपा थी, अटूट विश्वास था। मैंने उसकी सहायता से कई लोगों की छोटी-बड़ी उलझनें सुलझाई थीं, जिसका सारा श्रेय उसी को जाना चाहिए था, लेकिन मिलता मुझे था। उससे बढ़ती निकटता और प्रीति से मेरा साहस भी बढ़ता जा रहा था। मुझसे बातें करते हुए वह बहुत प्रसन्नचित्त हो जाती थी, उसकी पाँखें खुल जाती थीं। चहकती रहती थी वह! परलोक की जाने कितनी-कितनी बातें वह मुझसे किया करती थी, जिनमें से बहुत-सी बातों का तो अब मुझे स्मरण भी नहीं है। उससे हुई बातों से मेरी डायरी भरती जा रही थी, जिसे मैं तिथिवार लिखा करता था।
एक दिन वह 'प्रेम' पर मुझे फिर ज्ञान देने लगी थी और बीच-बीच में अपने-मेरे निश्छल प्रेम का उदाहरण भी देती जाती थी। मैंने हस्तक्षेप करते हुए उसे बीच में ही रोक दिया और पूछा--"तुम बार-बार मेरे-अपने प्रेम की बात उद्धरण के रूप में प्रकट कर रही हो, लेकिन मैं ऐसे वायवीय प्रेम का क्या करूँ, जिसमें तुम्हारी पहचान महज़ 'चालीस दुकान की आत्मा' है? कभी तुम मुझसे सशरीर मिलो, बातें करो, तो मुझे तुम्हारी पहचान मिले। मैं तुम्हें जानूँ, पहचान सकूँ!' अपनी ही त्वरा में मैंने उसे अपना एक शेर सुना दिया, जो उसे ही लक्ष्य कर मैंने लिखा था--
'हवा के इक क़तरे से मोहब्बत कौन करे,
तुम ज़मीं पर कभी उतरो तो कोई बात बने।'
तुम ज़मीं पर कभी उतरो तो कोई बात बने।'
उत्तर देते हुए उसके स्वर में बेबसी थी--'सशरीर उपस्थित होना तो मेरे वश में नहीं, शरीर त्यागकर ही तो आत्म-स्वरूप में यहाँ आई हूँ, लेकिन तुम्हारी ज़िद है तो सिर्फ तुम्हारे लिए मैं किसी देह की छाया लेकर तुमसे मिल सकती हूँ, लेकिन ज़रूरी नहीं कि उस देह की शक्ल-सूरत हू-ब-हू मेरे जैसी हो ! बोलो, मंज़ूर है?'
मैंने कहा--'शक्ल-सूरत, बोली-वाणी ही तुम्हारी न होगी, तो तुम्हारी सच्ची पहचान मुझे भला कैसे होगी?
उसने थोड़े क्षोभ के साथ कहा--'आखिर तुम भी जगत के ही प्राणी निकले न, देह से आगे बढ़ नहीं पाते, शरीर से इतर कुछ सोच नहीं पाते। शरीर तो नाशवान है, उसके लिए आग्रह कैसा? हाड़-मांस के जिस पिंजर को मैं त्याग आई हूँ, उसे फिर धारण करना तो असंभव है।'
मैंने नाखुशी का इज़हार करते हुए कहा--'ये भी कोई बात हुई? तुम किसी और महिला के शरीर में प्रविष्ट होकर मुझसे मिलो, बातें करो और फिर चली जाओ। अगली बार फिर कभी मिलो तो तुम किसी अन्य महिला के रूप में मेरे सामने आओ, यह बार-बार के रूप-परिवर्तन में तुम्हारी पहचान कहाँ है? यह तो बड़ी दुविधा की स्थिति है मेरे लिए!'
उसने शांत स्वर में कहा--'तुम्हारा हठ ठीक वैसा ही है, जैसा तुम्हारे जगत के हर जीव का मृत्यु का वरण न करने का हठ! कोई भी जीव मृत्युकामी नहीं होता,लेकिन मृत्यु तो अवश्यम्भावी है। आज तुम जिन लोगों के बीच हो, जिनसे तुम्हारा संपर्क-सम्बन्ध है, जिनकी तुम्हें पूरी पहचान है, उनमें से सभी, न जाने कितनी-कितनी बार, अपने शरीर के साथ रूप-रंग, शक्ल-सूरत बदल आये हैं, इसका तुम्हें ज्ञान है क्या? रही मेरी पहचान की बात, तो मेरी आवाज़ और बातचीत का तौर-तरीका हमेशा समान ही होगा न। तुम उनसे मेरी शिनाख्त नहीं कर सकोगे क्या?' महत्त्व शरीर का नहीं, उसमें प्रतिष्ठित आत्मा का है। मैं समझ नहीं पाती कि तुम शरीर, शक्ल-सूरत को इतना महत्व क्यों दे रहे हो? क्या तुम मेरा आत्म-साक्षात्कार करके आनंद का अनुभव नहीं करोगे?'
मेरे सारे तर्क फिसड्डी साबित हो रहे थे और मैं निरुत्तर हुआ जाता था। मैंने हारकर कहा--'हाँ, क्यों नहीं; लेकिन मैं तो बस इतना चाहता था कि तुम मिलो, तो मेरी नज़र में तुम्हारी एक पहचान बने और वह बदलती न रहे।'
अब नाराज़ होने की उसकी बारी थी। वह आजिज़ी से बोली--'उफ़, तुम तो हद करते हो। परिवर्तन तो सतत प्रक्रिया है, अपरिवर्तनशील और शाश्वत तो सिर्फ़ आत्मा है। जो अपरिवर्तनीय है, तुम उससे उसकी पहचान माँग रहे हो और जो प्रत्येक जन्म में बदल जानेवाला है, क्षणभंगुर है, उसी से चिपके रहना चाहते हो। तो ऐसा करो, तुम पहले मेरी पहचान सुनिश्चित कर लो, फिर मिलते हैं।'
मैं समझ गया कि वह नाराज़ हो गयी है। ऐसा लगा कि वह मुझसे मुँह फेरकर बैठ गयी है; क्योंकि मैं प्रश्न करता गया और वह खामोश रही। प्लेनचेट का ग्लास देर तक जड़वत् स्थिर रहा, लेकिन मैं खूब जानता था, वह वहीं है, मेरा साथ छोड़ नहीं गयी अभी।…
मैंने कहा--'शक्ल-सूरत, बोली-वाणी ही तुम्हारी न होगी, तो तुम्हारी सच्ची पहचान मुझे भला कैसे होगी?
उसने थोड़े क्षोभ के साथ कहा--'आखिर तुम भी जगत के ही प्राणी निकले न, देह से आगे बढ़ नहीं पाते, शरीर से इतर कुछ सोच नहीं पाते। शरीर तो नाशवान है, उसके लिए आग्रह कैसा? हाड़-मांस के जिस पिंजर को मैं त्याग आई हूँ, उसे फिर धारण करना तो असंभव है।'
मैंने नाखुशी का इज़हार करते हुए कहा--'ये भी कोई बात हुई? तुम किसी और महिला के शरीर में प्रविष्ट होकर मुझसे मिलो, बातें करो और फिर चली जाओ। अगली बार फिर कभी मिलो तो तुम किसी अन्य महिला के रूप में मेरे सामने आओ, यह बार-बार के रूप-परिवर्तन में तुम्हारी पहचान कहाँ है? यह तो बड़ी दुविधा की स्थिति है मेरे लिए!'
उसने शांत स्वर में कहा--'तुम्हारा हठ ठीक वैसा ही है, जैसा तुम्हारे जगत के हर जीव का मृत्यु का वरण न करने का हठ! कोई भी जीव मृत्युकामी नहीं होता,लेकिन मृत्यु तो अवश्यम्भावी है। आज तुम जिन लोगों के बीच हो, जिनसे तुम्हारा संपर्क-सम्बन्ध है, जिनकी तुम्हें पूरी पहचान है, उनमें से सभी, न जाने कितनी-कितनी बार, अपने शरीर के साथ रूप-रंग, शक्ल-सूरत बदल आये हैं, इसका तुम्हें ज्ञान है क्या? रही मेरी पहचान की बात, तो मेरी आवाज़ और बातचीत का तौर-तरीका हमेशा समान ही होगा न। तुम उनसे मेरी शिनाख्त नहीं कर सकोगे क्या?' महत्त्व शरीर का नहीं, उसमें प्रतिष्ठित आत्मा का है। मैं समझ नहीं पाती कि तुम शरीर, शक्ल-सूरत को इतना महत्व क्यों दे रहे हो? क्या तुम मेरा आत्म-साक्षात्कार करके आनंद का अनुभव नहीं करोगे?'
मेरे सारे तर्क फिसड्डी साबित हो रहे थे और मैं निरुत्तर हुआ जाता था। मैंने हारकर कहा--'हाँ, क्यों नहीं; लेकिन मैं तो बस इतना चाहता था कि तुम मिलो, तो मेरी नज़र में तुम्हारी एक पहचान बने और वह बदलती न रहे।'
अब नाराज़ होने की उसकी बारी थी। वह आजिज़ी से बोली--'उफ़, तुम तो हद करते हो। परिवर्तन तो सतत प्रक्रिया है, अपरिवर्तनशील और शाश्वत तो सिर्फ़ आत्मा है। जो अपरिवर्तनीय है, तुम उससे उसकी पहचान माँग रहे हो और जो प्रत्येक जन्म में बदल जानेवाला है, क्षणभंगुर है, उसी से चिपके रहना चाहते हो। तो ऐसा करो, तुम पहले मेरी पहचान सुनिश्चित कर लो, फिर मिलते हैं।'
मैं समझ गया कि वह नाराज़ हो गयी है। ऐसा लगा कि वह मुझसे मुँह फेरकर बैठ गयी है; क्योंकि मैं प्रश्न करता गया और वह खामोश रही। प्लेनचेट का ग्लास देर तक जड़वत् स्थिर रहा, लेकिन मैं खूब जानता था, वह वहीं है, मेरा साथ छोड़ नहीं गयी अभी।…
चालीस दुकानवाली देवी से मेरा यह विवाद लम्बा चला था, लेकिन अंततः मुझे प्रतीत हुआ कि वह अकारण विवाद नहीं कर रही, बल्कि सचमुच विवश थी। मूल रूप में प्रकट होना उसके लिए संभव ही नहीं था। लिहाज़ा, मैंने अपना हठ छोड़ा और उसकी शर्तों पर उससे मिलने की स्वीकृति मैंने दे दी। मेरी स्वीकृति का वाक्य सुनते ही अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने को वह मचल पड़ी, बोली--'बोलो, कब मिलना चाहोगे?'
मैंने कहा--'जब तुम कहो, जहां तुम चाहो, मैं वहीं आ जाता हूँ तुमसे मिलने।'
वह गंभीरता से कहने लगी--'इस मुलाक़ात का प्रबंध करने में मुझे थोड़ा वक़्त लगेगा। हम ऐसा क्यों न करें कि एक सप्ताह बाद किसी दिन मिलने की योजना बनायें, तब तक मैं सारा प्रबंध कर लूंगी और तुम्हें स्थान, दिन और निश्चित समय--सब बता दूँगी।'
मुझे उसकी बात माननी पड़ी।
मैंने कहा--'जब तुम कहो, जहां तुम चाहो, मैं वहीं आ जाता हूँ तुमसे मिलने।'
वह गंभीरता से कहने लगी--'इस मुलाक़ात का प्रबंध करने में मुझे थोड़ा वक़्त लगेगा। हम ऐसा क्यों न करें कि एक सप्ताह बाद किसी दिन मिलने की योजना बनायें, तब तक मैं सारा प्रबंध कर लूंगी और तुम्हें स्थान, दिन और निश्चित समय--सब बता दूँगी।'
मुझे उसकी बात माननी पड़ी।
दो दिन बाद के संपर्क में चालीस दुकानवाली आत्मा ने मुझसे कहा था--'हम पांच दिन बाद अमुक तारीख को रात बारह बजते ही मिलेंगे। तुम भैरव घाट की तेरह सीढ़ियां उतरना। तेरहवीं सीढ़ी का पाट अपेक्षाकृत चौड़ा है, तुम वहीं बैठकर मेरी प्रतीक्षा करना। गंगा की धारा की तरफ तुम्हारा मुंह होगा, तो तुम्हें अपने दायें हाथ झरबेरी का एक वृक्ष मिलेगा। मैं उसी वृक्ष की पतली टहनियाँ पकड़कर उतरूँगी--ठीक बारह बजते ही। देखो, तुम अकेले ही आना, तुम्हारे साथ कोई और हुआ, तो मेरी उपस्थिति असंभव हो जायेगी। निश्चित समय का ध्यान रखना, समझे न?'
मैंने उसे आश्वस्त किया और पूछा--'तुम तो चालीस दुकान से आती हो, फिर मुझे इतनी दूर भैरवघाट पर क्यों बुला रही हो, जबकि चालीस दुकान मेरे क्वार्टर के बहुत निकट है? क्या तुम चालीस दुकान के आसपास नहीं मिल सकतीं?'
वह 'ही-ही' करके हंस पड़ी और बोली--'तुम कितने भोले हो, अरे चालीस दुकान में मेरी ससुराल थी, लेकिन अब विदेह होकर तो मैं भैरवघाट में रहती-भटकती हूँ न, इसीलिए तुम्हें वहाँ बुला रही हूँ। और हाँ, अब पांच दिनों तक तुमसे बात न हो सकेंगी। मिलने पर हम बहुत सारी बातें करेंगे, ठीक है न? अब मुझे जाने दो। '
मैंने उसे आश्वस्त किया और पूछा--'तुम तो चालीस दुकान से आती हो, फिर मुझे इतनी दूर भैरवघाट पर क्यों बुला रही हो, जबकि चालीस दुकान मेरे क्वार्टर के बहुत निकट है? क्या तुम चालीस दुकान के आसपास नहीं मिल सकतीं?'
वह 'ही-ही' करके हंस पड़ी और बोली--'तुम कितने भोले हो, अरे चालीस दुकान में मेरी ससुराल थी, लेकिन अब विदेह होकर तो मैं भैरवघाट में रहती-भटकती हूँ न, इसीलिए तुम्हें वहाँ बुला रही हूँ। और हाँ, अब पांच दिनों तक तुमसे बात न हो सकेंगी। मिलने पर हम बहुत सारी बातें करेंगे, ठीक है न? अब मुझे जाने दो। '
यह पहला अवसर था, जब चालीस दुकानवाली आत्मा ने स्वयं जाने की इच्छा व्यक्त की थी, अन्यथा मुझे ही मनुहार करके, प्रेरित करके अथवा हठपूर्वक हमेशा उसे भेजना पड़ा था। सुबह होने के पहले वह कभी जाना ही नहीं चाहती थी। बहरहाल, बातें स्पष्ट हो गई थीं और मिलने की योजना, समय, स्थान सब नियत हो गया था। अब चालीस दुकानवाली अपने प्रबंधन में व्यस्त होनेवाली थी और मुझे अपने सम्पूर्ण साहस को संचित करना था, अपने पौरुष के बल को समेटना था, अपने देव-पितर के पुण्य का स्मरण करना था और परम प्रभु का नमन करके इस मिलन के लिए स्वयं को तैयार करना था। जितनी सहजता से मैंने इस मुलाक़ात की स्वीकृति दी थी, उतनी आसान वह मुलाक़ात थी नहीं।...
(क्रमशः)
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