'बिजली' और 'आरती' का ज़माना बीत गया था। १९४८ में पिताजी आकाशवाणी, पटना से 'हिंदी-सलाहकार' के रूप में जुड़ गए थे। चार वर्ष बाद दुनिया में उधम मचाने के लिए मैं भी आ धमका, लेकिन उधम मचाने की योग्यता पांच-छः वर्ष बाद मुझे प्राप्त हुई थी। मुझे ठीक-ठीक स्मरण है, जब मैं सात-आठ साल का बालक था, रामचन्दर फोरमैन नामक एक व्यक्ति, मेरी ननिहाल के विशाल प्रांगण में, पुष्प-वाटिका के छोटे-छोटे वृक्षों के नीचे बने प्रस्तर-प्रखंड पर आकर चुक्के-मुक्के बैठ जाते! उनके नयन-कोरों पर कीच होती, शरीर पर जर्जर कुरता और खालता पायजामा, जिसे बैठने के बाद वह घुटनों तक चढ़ा लेते ! उनके पैर हस्ती-पद थे! यह तो मुझे बाद में पता चला कि उन्हें 'साँझर' रोग था। उस कच्ची उम्र में भी 'मैन' का अर्थ मैं 'आदमी' जानता था, लेकिन 'फोर' का दो ही अर्थ मुझे ज्ञात था--पहला 'चार', दूसरा बिहारी अंदाज़ में 'फोड़ देनेवाला' (वैसे भी बिहार में 'र' को 'ड़' और 'ड़' को 'र' धड़ल्ले से बोलने की सुविधा सहज सुलभ तो है ही!)। 'चार' से 'मैन' की संगति नहीं बैठती थी; क्योंकि रामचन्दरजी दिखते तो एक ही थे, लिहाज़ा, मैं अपनी अल्प-बुद्धि से उन्हें 'फोड़ देनेवाला व्यक्ति' समझता था और इसीलिए उनसे थोड़ा डरता भी था ! लेकिन उधम मचाने की जो सौगात लेकर मैं धरती पर आया था, उससे भला कैसे बाज़ आता?
जानता था, रामचन्दर फोरमैन पिताजी से मिलने आये हैं, फिर भी उनसे थोड़ी दूरी बनाकर खड़ा होता और पूछता--'क्या बात है रामचन्दरजी, किससे मिलना है?'
वह दीन-भाव से कहते--"गुरूजी से बचवा! जाकर कह दो न उनसे, रामचन्दर आया है।'
लेकिन मैं उन्हें परेशान करता--"वह तो बाहर गए हैं।' 'नहा रहे हैं।' 'अभी नहीं मिल सकते, तैयार हो रहे हैं!'' वह मेरा प्रलाप चुपचाप सुनते, कुछ बोलते नहीं, लेकिन दीन-भाव में मुस्कान की एक क्षीण-मलिन रेखा उनके अधरों पर मचलती और तिरोहित हो जाती। मैंने उन्हें चाहे जितना परेशान किया हो, उन्होंने कभी मुझे 'फोड़ा' नहीं, न कभी कोई क्षति पहुँचाई।
नौ-दस का होते-होते मैं जानने-समझने लगा था कि रामचन्दरजी 'बिजली' और 'आरती' के दिनों (१९३७-४२) में पिताजी के 'आरती मन्दिर प्रेस', पटनासिटी के वेतनभोगी कर्मचारी थे और 'फोरमैन' के पद पर काम करते थे। उन दिनों ये दोनों स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाएँ पिताजी के सम्पादन और स्वामित्व में निकलती थीं। पिताजी से ही सुना है, अपनी युवावस्था में रामचन्दरजी एक स्वस्थ-कर्मठ व्यक्ति थे। १९४८ के बाद, 'आरती मन्दिर प्रेस' के बंद हो जाने पर, वह दुरवस्था को प्राप्त हुए। उन्हें अत्यधिक मद्यपान का व्यसन लगा, फिर शरीर को व्याधियों ने घेर लिया। उनकी पुष्ट काया जर्जर होने लगी ! जिन दिनों में मैंने उन्हें देखा था, वह रोग, शोक, व्याधि, व्यसन से टूट चुके थे। उनका बड़ा बेटा सपत्नीक उनसे अलग जा बसा था और अन्य बच्चे अभी छोटे थे। अपनी दो बेटियों का उन्हें कुछ समय बाद विवाह भी करना था और सबसे छोटा बेटा तो अभी-अभी माता की गोदी से उतरा ही था। आय का कोई साधन नहीं था, घोर विपन्नता की दशा थी। ऐसे में आर्थिक मदद की आकांक्षा से सप्ताह में दो बार तो अवश्य ही वह पिताजी की शरण में आते और पिताजी की डाँट-फटकार सिर झुकाकर शान्ति से सुनते और उनके औदार्य से थोड़ी-बहुत दातव्य-राशि लेकर ही विदा होते।
वह सस्ती का ज़माना था। पाँच-सात रुपये में सप्ताह-दस दिनों का राशन लिया जा सकता था। रामचन्दरजी आर्त्त भाव से पिताजी से कहते भी यही--'गुरूजी! दाने-दाने की मुँहताजी है, बच्चा सब भूख से कलप रहा है! अब ऐसी हालत में आपका दरवाज़ा छोड़कर कहाँ जाऊँ गुरूजी?'
थोड़ा समझाने-बुझाने और डाँट-फटाकर के बाद पिताजी द्रवित हो जाते और जेब में जो फुटकर राशि होती, रामचन्दरजी को दे देते! रामचन्दरजी कृतज्ञ भाव से पिताजी के चरण पकड़ने को बढ़ते और पिताजी दो कदम पीछे हट जाते, यह कहते हुए--'यह सब करने की जरूरत नहीं है। राशन लेकर सीधे घर जाओ।'
रामचन्दरजी के जाने के बाद मेरी माताजी प्रकट होतीं और पिताजी से रोषपूर्ण स्वर में कहतीं--'आपने उससे कह दिया और आपको लगता है कि वह सीधे घर जाएगा? जी नहीं, गलत ख़याल है आपका। आपसे पैसे लेकर वह सीधे कच्ची शराब के भट्ठे पर पहुँचेगा और सारे पैसे की शराब पी जाएगा। आप उसकी मदद नहीं कर रहे, उसे हानि पहुँचाने की राह खोल रहे हैं।'
पिताजी शांत होकर माताजी की बात सुनते, फिर अपने काम में लग जाते। लेकिन, बार-बार और हर बार होता यही था। माताजी के ऐसे प्रवचनों की जब अनेक पुनरावृत्तियाँ होने लगीं, तो एक दिन पिताजी ने उन्हें समझाया--"जब वह नराधम अपने कर्म (वृत्ति) से बाज़ नहीं आता, तो मैं अपना धर्म (साधु-वृत्ति) कैसे छोड़ दूँ? मेरा पुराना सेवक है, अपनी उम्र की ढाल पर है, व्याधियों से ग्रस्त है; वह बार-बार मेरे पास आता है, गिड़गिड़ाता है, घर में दाने-दाने की मुँहताजी का रोना रोता है, मुझसे तो उसे खाली हाथ लौटाया नहीं जाता।"
माँ ने प्रतिवाद किया--"हाँ, मान ली आपकी बात, लेकिन जैसे ही आप उसकी मुट्ठी गर्म करते हैं, वह शराब के भट्ठे पर चला जाता है और पैसे फूँककर मस्त-मलंग बन जाता है। उसके शरीर और स्वास्थ्य की हानि तो होती ही है, घर में बच्चों के लिए एक दाना भी नहीं पहुँचता, यही होता है न!"
पिताजी ने माता की बात गम्भीरता से सुनी और बस एक वाक्य बोलकर दूसरे कमरे में चले गये--"ठीक है, भविष्य में ऐसा नहीं होगा।"
उस दिन के बाद से, जब कभी सहायता की याचना लेकर रामचन्दरजी आये, पिताजी उन्हें साथ लेकर पास की महादेव साव (बनिये) की दूकान तक स्वयं गए और आटा, चावल, दाल, हल्दी-नमक और आलू-प्याज खरीदकर उसकी अधबोरी उनकी पीठ पर लदवा आये।
ऐसे ही एक अवसर पर, जब पिताजी रामचन्दरजी के साथ महादेव बनिये की दूकान तक जाने लगे, तो मैंने पिताजी की उँगली थाम ली और हठ करने लगा कि मैं भी साथ चलूँगा। जब रामचन्दरजी का राशन बँध गया तो मैंने लेमनचूस दिलाने की ज़िद ठानी। नारंगी की फाँकोंवाला लेमनचूस पाकर मैं तो प्रसन्न हो उठा। रामचन्दरजी, जिन्हें मैं परेशान किया करता था और जिनका आ धमकना मुझे प्रिय नहीं था, अब वही मुझे अच्छे लगने लगे थे और मुझे उनके आगमन की आतुर प्रतीक्षा भी रहने लगी थी। जब कई दिन बीत जाते और रामचन्दरजी का पदार्पण नहीं होता, तो मैं बाल-सुलभ चपलता के साथ पिताजी के पास पहुँचता और उनसे पूछता--"बाबूजी, रामचन्दरजी कब आयेंगे?" पिताजी मीठी मुस्कान के साथ कहते--"तुम्हें उनके जल्दी आने की ऐसी बेसब्री क्यों है, बताओ?" उनके इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर देता, चुप रह जाता।...लेकिन, वह पिता थे, मेरे प्रश्न का मर्म खूब समझते थे।
यह सिलसिला लम्बा चला। एक बार भीषण जाड़ों में रामचन्दरजी सुबह-सुबह ठिठुरते हुए पधारे। पिताजी ने उनसे पूछा--"क्या हुआ रामचन्दर? अभी पांच दिन पहले ही तो पन्द्रह दिनों का राशन दिलवाया था तुम्हें, ख़त्म हो गया क्या ?"
रामचन्दरजी ने कहा--"नहीं गुरूजी! वह तो है। लेकिन ये सर्दी हाड़ कँपा रही है, ओढ़ने को कुछ नहीं है। बाल-बच्चे रात-भर ठिठुरते हैं! कुछ फटा-पुराना मिल जाता तो...!"
पिताजी स्वयं देख रहे थे रामचन्दरजी को काँपते-ठिठुरते, उन्होंने तत्काल ओढ़ी हुई ऊनी चादर अपने शरीर से उतारी और रामचन्दरजी की देह पर डाल दी। फिर घर के अंदर गए। माताजी से कुछ कहकर बाहर आये और रामचन्दरजी से बातें करने लगे। थोड़ी देर में मेरी माताजी दो खेंदरा (हस्त-निर्मित दुलाई) और एक पुराना कम्बल लेकर बाहर आईं और रामचन्दरजी को देकर लौट गयीं। आते-जाते उनकी दृष्टि पिताजी की ऊनी चादर भी पड़ गई थी, जो रामचन्दरजी के शरीर से लिपटी थी।
रामचन्दरजी की मुराद पूरी हो चुकी थी, लेकिन वह ठहरे हुए थे। पिताजी ने पूछा--"क्या और कुछ कहना है रामचन्दर?" उन्होंने झिझकते हुए कहा--"गुरूजी, एक-आध रूपया मिल जाता तो...!"
पिताजी ने बीच में ही रोककर पूछा--"क्या करना है रुपये का? अभी ही तो तुमने कहा कि राशन है!"
--"जी गुरूजी! सोचा, रास्ते में चाय पी लूँगा और बीड़ी का दो-चार बण्डल खरीद लूँगा। बीड़ी है नहीं।"
पिताजी बोले--"बाजार की चाय और बीड़ी पीने की तुम्हें जरूरत नहीं। चाय तुम्हें मैं यहीं पिला देता हूँ।"
उस दिन रामचन्दरजी को बीड़ी के पैसे तो मिले नहीं, लेकिन वह घर की बनी चाय पीकर विदा हुए। उनके जाते ही पिताजी अन्दर आये और उन्हें देखते ही माताजी ने कहा--"रामचन्दर के लिए कम्बल-दुलई लेकर मैं तो आ ही रही थी, आपने अपनी ऊनी चादर उसे क्यों दे दी? पिछले साल सर्दियों में ही तो खरीदी थी! पता नहीं, वह नामाकूल उसे ओढ़ेगा या औने-पौने बेचकर शराब पी जाएगा !" पिताजी ने शान्तिपूर्वक माताजी की बात सुनी और धीमे स्वर में केवल इतना कहा--"भई, वह शीत के प्रकोप से थर-थर काँप रहा था...!" और, अपने कक्ष में चले गए।
पांच दिनों बाद रामचन्दरजी राशन के लिए फिर आ पहुँचे। कहने लगे--गुरूजी, आप बार-बार काहे को तकलीफ़ करते हैं? रुपये दे दीजिये, मैं उसी बनिये की दूकान से राशन खरीदकर चला जाऊँगा... कसम से...!"
पिताजी कोई स्क्रिप्ट लिखने में व्यस्त थे। वह रामचन्दरजी की बात मान लेने पर आ ही गए थे कि लेमनचूस का लोभी मैं, उनके पीछे पड़ गया--"नहीं बाबूजी, चलिए न, हम दोनों चलते हैं।" मेरी ज़िद पर पिताजी ने हथियार डाल दिए और महादेव बनिये की दूकान तक गए--रामचन्दरजी को राशन की बोरी मिली और मुझे लेमनचूस मिल गया। घर लौटकर पिताजी ने अपनी स्क्रिप्ट लिखी और तैयार होकर दफ़्तर चले गए।
शाम को जब लौटे तो बहुत क्रोधित थे। माताजी ने नाराज़गी की वजह पूछी तो बोले--"रामचन्दर तो बड़ा दुष्ट निकला। दफ़्तर जाते हुए आवाज़ लगाकर महादेव ने मुझे रोका और बताया कि सुबह जो राशन मैंने रामचन्दर को दिलवाया था, मेरी पीठ पीछे उसे वहीं लौटाकर और रो-गाकर वह पैसे ले गया है। मैंने महादेव से कहा भी कि 'तुमने उसकी बात क्यों मान ली? वह उन पैसों का दुरूपयोग ही करेगा, शराब पी जाएगा !' महादेव ने कहा कि 'मैं क्या करता बाबा, वह तो रोने-गिड़गिड़ाने लगा, सिर पटकने लगा, पिंड पड़ गया मेरे!"
पूरी बात सुनकर माताजी के मुख पर एक वक्र मुस्कराहट खिल उठी, बोलीं--"मैं कहती न थी, दुर्व्यसनी व्यक्ति कभी विश्वसनीय नहीं हो सकता।"
उसके बाद २०-२५ दिन रामचन्दरजी गायब रहे, जब आये तो क्रोध में पिताजी ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया। वह निराश लौट गए। पन्द्रहियों दिन बाद फिर प्रकट हुए। पिताजी का क्रोध अपेक्षया कम हो गया था, लेकिन जब वह रामचन्दरजी के सामने पड़े तो उनका चेहरा फिर तमतमाने लगा। रामचन्दरजी फफकते हुए पिताजी के पाँवों पर गिर पड़े, रोते हुए बोले--"क्षमा गुरूजी, क्षमा...! अपराध हो गया हमसे; इस ससुरी शराब ने मुझे आपकी नज़रों से भी गिरा दिया!..."
पिताजी मौन-स्तब्ध खड़े रहे। उनका क्रोध और मन की पीड़ा उनके मुख-मण्डल के रंग पल-पल बदल रही थी। अचानक वह तीव्रता से पलटे और यह कहते हुए घर के अंदर प्रविष्ट हो गए--"तुमने मुझे बहुत पीड़ा पहुँचाई है रामचन्दर! मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ, झूठ और फरेब नहीं। क्षमा मुझसे नहीं, अपनी अंतरात्मा से माँगो। अपने दरवाज़े पर मैं दुबारा न देखूं तुम्हें ! 'हित-अनहित चीन्हे नहिं कोय.... !"
और, सच में, उसके बाद कभी रामचन्दरजी के दर्शन नहीं हुए। सोचता हूँ, न जाने कब, कहाँ, किस हाल में उन्होंने दुनिया छोड़ दी होगी !...
[चित्र : 'आरती मंदिर प्रेस' (कचौड़ी गली, पटना सिटी) का ध्वंसावशेष, जहां से 'बिजली' और 'आरती' जैसी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाएँ पिताजी के सम्पादन और स्वामित्व में निकलीं। पिछले वर्ष अक्टूबर में पटना गया था, तब यह चित्र मैंने स्वयं लिया था। --आनन्द.]
4 टिप्पणियां:
हर चीज़ की हद तो होती ही है और बुरे को नजरंदाज करना बढ़ावा देना ही है, इसलिए भले आदमी को भी कड़ा बनना पड़ता है.
सच में, उसके बाद कभी रामचन्दरजी के दर्शन नहीं हुए। सोचता हूँ, न जाने कब, कहाँ, किस हाल में उन्होंने दुनिया छोड़ दी होगी !...
बड़ा बुरा होता है ऐसे लोगों के साथ, न खुद जीते हैं चैन से न घर परिवार को जीने देते। ... दरुडे बाज नहीं आते अपनी आदत से
मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
अरविन्दजी,कविताजी, आभार आप दोनों का...
--आनन्द
अतीत का हर पल सहेजने योग्य होता है, यदि सहेजने की योग्यता आप जैसी हो तो.
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