गाँव के किशोरों-युवाओं में एक खेल आज भी बहुत प्रिय है--'डोलापाती' ! ५०-५५ वर्ष पहले यह खेल शहरों में भी खूब खेला जाता था, क्योंकि तब शहरों में भी बगीचे और वृक्ष हुआ करते थे। आज के प्रायः तमाम शहर वृक्ष-वहीन हो गए हैं। वृक्षों की जगह नन्हे पौधों ने ले ली है और वे गमलों में आ बसे हैं! मुश्किल ये है कि 'डोलापाती' का खेल वृक्षों पर ही खेला जा सकता है, पौधों पर नहीं।
मैं जिस ज़माने की बात कह रहा हूँ, उस ज़माने में, यानी मेरे बचपन में, शहरों में भी उपवन, उद्यान, बगीचे और वृक्ष हुआ करते थे। मैं अपने तमाम मित्रों के साथ, शाम का अन्धकार व्याप्त होने तक, उन्हीं वृक्षों पर मंडराया करता था और खेलता रहता था--'डोलापाती'! तब मैं ग्यारह वर्ष का दुर्बुद्ध बालक था। पटना के श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले में मेरे मित्रों की टोली बहुत बड़ी थी--पूरी वानर-सेना थी वह, जिसमें स्वनामधन्य बेनीपुरीजी के पौत्र मनन-रतन-छोटन थे, तो चतुर्भुजजी के सुपुत्र अशोक प्रियदर्शी थे, राधाकृष्ण प्रसादजी के सुपुत्र अरुण-अजय थे, रामेश्वर सिंह काश्यपजी के सुपुत्र विपिनबिहारी सिंह थे, उपाध्यायजी के सुपुत्र भेंगा (अब तो उनका पुकार का नाम ही स्मरण में रह गया है और वह दुनिया से विमुख भी हो गए हैं!) थे और बिलाशक मैं तो था ही, अपने अनुज यशोवर्धन के साथ। इनके अलावा अन्यान्य मित्र भी थे।
डोलापाती नामक खेल उत्साह, उमंग, फुर्ती, साहस और क्षिप्रता की परीक्षा का पर्याय था। बाहु-बल की स्पर्धा के इस खेल में प्रतिस्पर्धी की चतुरता और क्षिप्रता का सम्यक परीक्षण होता था। चोर की पकड़ से बचते हुए वृक्ष की शाखाएँ पकड़कर झूलना और उसे अपनी ओर आकर्षित करके दूसरी शाखा पर चला जाना, ऊंचाई से या मद्धम शाखाओं से कूद पड़ना, डालों पर झूलकर छूने को व्याकुल चोर को चकमा देना--ये सारे करतब इस खेल के कौशल तो थे ही, अत्यन्त श्रमसाध्य भी थे। इस खेल में शरीर की खासी वर्जिश हो जाती थी।
मैं विपिन-अशोक के साथ शाम की शुरुआत के बहुत पहले ही आम्र-वाटिका में पहुँच जाता और वृक्षों की डाली-डाली पर इठलाता। शाम होते-न-होते सारा मित्र-मंडल आ जुटता और फिर जमता हमारा प्रिय खेल--डोलापाती! मैं मानता हूँ और जानता भी हूँ कि इस खेल का सारा कौशल मेरे अधीन था! किसी भी पेड़ की ऊँची-से-ऊँची या पतली-से-पतली डाली पर मैं बेधड़क जा पहुँचता, वहाँ से कूद पड़ने में संकोच न करता ! किसी एक शाखा में अपने दोनों घुटने मोड़कर फँसा लेता और उलटा लटककर सिर के बल आंदोलित होता रहता तथा चोर बने अपने मित्र को आकर्षित करता, ललचाता। मेरा ये कौशल मेरे सभी मित्र जानते थे। उसी आम के बगीचे में हमारा एक बहुत प्रिय पेड़ था। उसकी शाखाएं बहुत नीचे भी थीं और बहुत उन्नत भी--हरे-हरे पत्तों से भरी हुई--छतनार-सी! डोलापाती का खेल ज्यादातर हम उसी वृक्ष पर चढ़कर खेलते थे !
लेकिन, एक दिन, एक घटना घट गई। ढलती दोपहर का वक़्त था--प्रायः ढाई-तीन का। मैं अकेला ही अपने प्रिय आम्र-वृक्ष पर पहुँच गया था और अन्य मित्रों के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं मोद में मग्न, गीत गाता हुआ, एक-से-दूसरी शाखा पर भ्रमणशील था--कभी किसी शाखा को हाथों से पकड़कर झूलता, कभी पैरों के बल उल्टा लटककर हवा में 'स्विंग' करता और गायक मुकेशजी का गीत गुनगुनाता--'आ लौट के आ जा मेरे मीत...!' तभी असावधानी में अप्रिय घटित हुआ--डाली में फँसा मेरा पाँव पकड़ से छूट गया और मैं सिर के बल ज़मीन पर आ गिरा। अत्यन्त कुशल चालक ही तो निरंकुश हो जाता है न, कभी-कभी। उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ था !
क्षण-भर को मेरी चेतना जाती रही, दिन में तारे दिखे और मस्तिष्क के उद्यान में फुलझड़ियाँ छूटीं ! मैं सिर पकड़कर वहीं भूमि पर बैठा रहा दस-पंद्रह मिनट तक। थोड़ी देर बाद जब चैतन्य हुआ तो क्रोध में भरकर मैंने आग्नेय नेत्रों से आम्र-वृक्ष को देखा और तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचकर मैंने दो लोटा शीतल जल पिया और तत्काल लौटा। क्रोध में मेरी आँखों से अँगारे निकल रहे थे और मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था--'मेरे प्रिय वृक्ष ने, पके हुए फल की तरह, मुझे टपका कैसे दिया? मैं प्रतिशोध लूँगा। छोडूंगा नहीं उसे!'
मैं पुनः उसी वृक्ष पर चढ़ गया और सर्वोच्च टहनी के पत्र-दल को तोड़कर मैंने उसे भू-लुंठित कर दिया। एक-डेढ़ घंटे तक मैं लगातार यही कृत्य करता रहा--वृक्ष की एक-एक डाल को पत्र-विहीन करके ही मैं नीचे उतरा। तब मेरा क्रोध कुछ शांत हुआ। वृक्ष के नीचे का भूमि-खण्ड हरे पत्तों से पट गया था और आकाश में अपनी नग्न टहनियाँ गड़ाए वृक्ष खड़ा रह गया था--पराजित-सा। विजय के गर्व से भरकर मैंने मुंडित-मस्तक वृक्ष को देखा और मन-ही-मन कहा--'तूने मुझे पटका था न, मैंने तेरे सारे पत्र भूमि पर पटक दिए ! 'अब बोल, बच्चू?'
विजयी समर-योद्धा की तरह मैं घर लौटा। शाम ८ बजे खोखन (मेरे अनुज मित्र) के पिताजी राजेंद्र बाबू मेरे घर आये और मेरी शिकायत पिताजी से कर गए कि मैंने आम्र-वृक्ष को नाहक रुण्ड-मुण्ड कर दिया है ! वह जब कभी घर आते, मेरी एक-न-एक शिकायत लेकर ही आते ! उनके पधारने का मतलब ही था कि मेरे ख़िलाफ़ शिकायतों की पोटली में एक और शिकायत का इज़ाफ़ा! बात दरअसल यह थी कि एक बार 'बमपास्टिक' के खेल में मैंने सड़क पर भागते हुए मित्र पर गेंद का ज़ोरदार प्रहार किया था, मित्र तो एक किनारे हो लिए और गेंद राजेंद्र बाबू की कार के विंड-स्क्रीन पर जा लगी, जो दूसरी दिशा से आ रही थी। वह तभी से मुझसे खार खाये बैठे थे और मेरी शिकायत का कोई मौका न चूकते थे, अन्यथा सरकारी ज़मीन पर खड़े उस आम्र-वृक्ष से उनका क्या लेना-देना? पिताजी ने यह कहकर उन्हें विदा किया कि "मैं समझाऊँगा उसे।"
राजेंद्र बाबू के जाते ही पिताजी ने मुझे पुकारा। मेरी आत्मा की जड़ों में सिहरन हुई। लेकिन, पिताजी की पुकार थी, तो उनके सामने मुझे जाना ही था। मुझे देखते ही पिताजी बोले--"यह क्या सुन रहा हूँ मैं? तुमने आम के पेड़ का एक-एक पत्ता तोड़ दिया? आखिर क्यों?"
मैंने सरलता से कहा--"उसने मुझे गिरा दिया था, तो मुझे भी गुस्सा आ गया।"
पिताजी ने पूछा--"मैं समझा नहीं, किसने गिरा दिया?"
मैंने कहा--'पेड़ ने, और किसने !"
मैंने लक्ष्य किया, पिताजी के अधरों पर हल्की मुस्कान खेल गयी थी। उन्होंने मुझे पास बिठाया और गम्भीरता से कहा--"जानते हो, पेड़ जीवन का प्रतीक है--दीर्घ जीवन का। वह हमें छाया देता है, फल देता है, पत्ते देता है, जीवन-श्वास देता है और तो और, अपनी परोपकार-वृत्ति से हमें जीवन जीने की कला भी सिखाता है। इसीलिए वह मानवीय गुणों का भी प्रतीक है। वह हमारी तरह ही जन्म पाता, बढ़ता और शक्ति तथा क्षमता-सम्पन्न होता है। उसमें भी जीवन है और वह हमारे जीवन का पोषण भी करता है, तुम उसे ही नष्ट कर दोगे, तो हम सब जियेंगे कैसे? किसी आघात से जैसी पीड़ा हमें होती है, वैसी ही पीड़ा उसे भी होती है... और तुमने तो अपनी नादानी और क्रोध में उस निरपराध वृक्ष को पत्र-विहीन बनाकर कितनी पीड़ा पहुँचाई है, सोचो तो ! ऐसा फिर कभी मत करना। जाओ, खाना खाकर सो जाओ।"
उस कच्ची उम्र में पिताजी की बात का आशय चाहे मैं पूरी तरह न समझ सका होऊं, लेकिन इतना मेरी अल्प-बुद्धि में अवश्य आया था कि पेड़ों को भी हमारी तरह ही पीड़ा होती है। तो क्या समस्त टहनी-पत्ते तोड़कर मैंने उस वृक्ष के हाथ-पैर तोड़ दिए हैं? तब तो बहुत पीड़ित होगा वह ! बहरहाल, मैं खाना खाकर सोने चला गया।
मुझे तो बहुत आश्चर्य हुआ ही था, संभव है, आपको भी हो, यह जानकर कि उस रात वह पत्रहीन आम्र-वृक्ष मेरे सपने में आया था। वह बहुत दुखी था, रो रहा था और रोते हुए मुझसे कह रहा था--"तुमने मेरी ऐसी दशा क्यों कर दी? क्या अपराध था मेरा? तुम अपनी असावधानी से गिरे थे और दण्ड मुझे दे गए ! मेरे शरीर का पोर-पोर पीड़ा से बेहाल है। उफ्फ, मैं तो ठीक से साँस भी नहीं ले पा रहा हूँ भाई...!" वह जार-जार रो रहा था। उसका रोना रुकता ही नहीं था और मैं उसकी दशा देखकर सारी रात दुखी होता रहा।...
मैं उसके आँसू पोंछने लिए जैसे ही हाथ बढ़ता हूँ, मेरी नींद टूट जाती है। विस्मय से भरा इधर-उधर देखता हूँ--कहीं नहीं है वह रोता हुआ आम्र-वृक्ष ! मेरा मन ग्लानि से भर जाता है। नीम का दातून उठाकर दाँतों तले दबाता हूँ, फिर उसी लोटे में जल भरता हूँ, जिसमें दो बार शीतल जल भरकर मैंने कल पिया था और अपनी क्रोधाग्नि को शांत करने की चेष्टा की थी। जल से भरा लोटा लेकर मैं घर से बाहर निकलता हूँ। क्षिप्र गति से उसी आम्र-वृक्ष के पास जाता हूँ। वह मूर्छित-सा है, फिर भी खड़ा है--शोकमग्न, अपनी पत्र-विहीन टहनियाँ आकाश में गड़ाये हुए। निःशब्द पहुँचता हूँ उसकी जड़ों के पास। पात्र का जल उसकी जड़ों में डालता हूँ और क्षण-भर अपराधी-सा सिर झुकाए खड़ा रहता हूँ उसके पास--मौन !
प्रायः दो महीने तक रोज़ ऐसा ही करता हूँ--अब एक अभ्यास-सा हो गया है यह ! अचानक वर्षारम्भ होता है--सर्वत्र जल-ही-जल है, यत्र-तत्र जल-जमाव भी है; ऐसे में आम्र-वृक्ष के निकट जाना नहीं हो पाता। वर्षांत पर एक दिन उधर से गुज़रता हूँ और देखता हूँ--आम्र-वृक्ष की टहनियों पर आये हैं नए पात--भूरे, मख़मली ! जैसी गौ-माता की नव-प्रसूता बाछी लगती है, वैसे कोमल पात ! मन में अजब-सी पुलक उठती है और अनायास मेरे होठों से बोल फूटते हैं--'कैसे हो दोस्त? तुमने क्षमा कर दिया न मुझको? चुप क्यों हो, कुछ तो बोलो !'...
नवल पात वर्षा की बूँदों से भीगे हुए हैं। कई पत्रों के कोर से बूँदें अब भी टपक रही हैं; उन्हें देखकर मुझे लगता है, मेरी ही तरह आम्र-वृक्ष की आँखें भी छलक पड़ी हैं शायद...!
मैं जिस ज़माने की बात कह रहा हूँ, उस ज़माने में, यानी मेरे बचपन में, शहरों में भी उपवन, उद्यान, बगीचे और वृक्ष हुआ करते थे। मैं अपने तमाम मित्रों के साथ, शाम का अन्धकार व्याप्त होने तक, उन्हीं वृक्षों पर मंडराया करता था और खेलता रहता था--'डोलापाती'! तब मैं ग्यारह वर्ष का दुर्बुद्ध बालक था। पटना के श्रीकृष्ण नगर मोहल्ले में मेरे मित्रों की टोली बहुत बड़ी थी--पूरी वानर-सेना थी वह, जिसमें स्वनामधन्य बेनीपुरीजी के पौत्र मनन-रतन-छोटन थे, तो चतुर्भुजजी के सुपुत्र अशोक प्रियदर्शी थे, राधाकृष्ण प्रसादजी के सुपुत्र अरुण-अजय थे, रामेश्वर सिंह काश्यपजी के सुपुत्र विपिनबिहारी सिंह थे, उपाध्यायजी के सुपुत्र भेंगा (अब तो उनका पुकार का नाम ही स्मरण में रह गया है और वह दुनिया से विमुख भी हो गए हैं!) थे और बिलाशक मैं तो था ही, अपने अनुज यशोवर्धन के साथ। इनके अलावा अन्यान्य मित्र भी थे।
डोलापाती नामक खेल उत्साह, उमंग, फुर्ती, साहस और क्षिप्रता की परीक्षा का पर्याय था। बाहु-बल की स्पर्धा के इस खेल में प्रतिस्पर्धी की चतुरता और क्षिप्रता का सम्यक परीक्षण होता था। चोर की पकड़ से बचते हुए वृक्ष की शाखाएँ पकड़कर झूलना और उसे अपनी ओर आकर्षित करके दूसरी शाखा पर चला जाना, ऊंचाई से या मद्धम शाखाओं से कूद पड़ना, डालों पर झूलकर छूने को व्याकुल चोर को चकमा देना--ये सारे करतब इस खेल के कौशल तो थे ही, अत्यन्त श्रमसाध्य भी थे। इस खेल में शरीर की खासी वर्जिश हो जाती थी।
मैं विपिन-अशोक के साथ शाम की शुरुआत के बहुत पहले ही आम्र-वाटिका में पहुँच जाता और वृक्षों की डाली-डाली पर इठलाता। शाम होते-न-होते सारा मित्र-मंडल आ जुटता और फिर जमता हमारा प्रिय खेल--डोलापाती! मैं मानता हूँ और जानता भी हूँ कि इस खेल का सारा कौशल मेरे अधीन था! किसी भी पेड़ की ऊँची-से-ऊँची या पतली-से-पतली डाली पर मैं बेधड़क जा पहुँचता, वहाँ से कूद पड़ने में संकोच न करता ! किसी एक शाखा में अपने दोनों घुटने मोड़कर फँसा लेता और उलटा लटककर सिर के बल आंदोलित होता रहता तथा चोर बने अपने मित्र को आकर्षित करता, ललचाता। मेरा ये कौशल मेरे सभी मित्र जानते थे। उसी आम के बगीचे में हमारा एक बहुत प्रिय पेड़ था। उसकी शाखाएं बहुत नीचे भी थीं और बहुत उन्नत भी--हरे-हरे पत्तों से भरी हुई--छतनार-सी! डोलापाती का खेल ज्यादातर हम उसी वृक्ष पर चढ़कर खेलते थे !
लेकिन, एक दिन, एक घटना घट गई। ढलती दोपहर का वक़्त था--प्रायः ढाई-तीन का। मैं अकेला ही अपने प्रिय आम्र-वृक्ष पर पहुँच गया था और अन्य मित्रों के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं मोद में मग्न, गीत गाता हुआ, एक-से-दूसरी शाखा पर भ्रमणशील था--कभी किसी शाखा को हाथों से पकड़कर झूलता, कभी पैरों के बल उल्टा लटककर हवा में 'स्विंग' करता और गायक मुकेशजी का गीत गुनगुनाता--'आ लौट के आ जा मेरे मीत...!' तभी असावधानी में अप्रिय घटित हुआ--डाली में फँसा मेरा पाँव पकड़ से छूट गया और मैं सिर के बल ज़मीन पर आ गिरा। अत्यन्त कुशल चालक ही तो निरंकुश हो जाता है न, कभी-कभी। उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ था !
क्षण-भर को मेरी चेतना जाती रही, दिन में तारे दिखे और मस्तिष्क के उद्यान में फुलझड़ियाँ छूटीं ! मैं सिर पकड़कर वहीं भूमि पर बैठा रहा दस-पंद्रह मिनट तक। थोड़ी देर बाद जब चैतन्य हुआ तो क्रोध में भरकर मैंने आग्नेय नेत्रों से आम्र-वृक्ष को देखा और तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचकर मैंने दो लोटा शीतल जल पिया और तत्काल लौटा। क्रोध में मेरी आँखों से अँगारे निकल रहे थे और मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था--'मेरे प्रिय वृक्ष ने, पके हुए फल की तरह, मुझे टपका कैसे दिया? मैं प्रतिशोध लूँगा। छोडूंगा नहीं उसे!'
मैं पुनः उसी वृक्ष पर चढ़ गया और सर्वोच्च टहनी के पत्र-दल को तोड़कर मैंने उसे भू-लुंठित कर दिया। एक-डेढ़ घंटे तक मैं लगातार यही कृत्य करता रहा--वृक्ष की एक-एक डाल को पत्र-विहीन करके ही मैं नीचे उतरा। तब मेरा क्रोध कुछ शांत हुआ। वृक्ष के नीचे का भूमि-खण्ड हरे पत्तों से पट गया था और आकाश में अपनी नग्न टहनियाँ गड़ाए वृक्ष खड़ा रह गया था--पराजित-सा। विजय के गर्व से भरकर मैंने मुंडित-मस्तक वृक्ष को देखा और मन-ही-मन कहा--'तूने मुझे पटका था न, मैंने तेरे सारे पत्र भूमि पर पटक दिए ! 'अब बोल, बच्चू?'
विजयी समर-योद्धा की तरह मैं घर लौटा। शाम ८ बजे खोखन (मेरे अनुज मित्र) के पिताजी राजेंद्र बाबू मेरे घर आये और मेरी शिकायत पिताजी से कर गए कि मैंने आम्र-वृक्ष को नाहक रुण्ड-मुण्ड कर दिया है ! वह जब कभी घर आते, मेरी एक-न-एक शिकायत लेकर ही आते ! उनके पधारने का मतलब ही था कि मेरे ख़िलाफ़ शिकायतों की पोटली में एक और शिकायत का इज़ाफ़ा! बात दरअसल यह थी कि एक बार 'बमपास्टिक' के खेल में मैंने सड़क पर भागते हुए मित्र पर गेंद का ज़ोरदार प्रहार किया था, मित्र तो एक किनारे हो लिए और गेंद राजेंद्र बाबू की कार के विंड-स्क्रीन पर जा लगी, जो दूसरी दिशा से आ रही थी। वह तभी से मुझसे खार खाये बैठे थे और मेरी शिकायत का कोई मौका न चूकते थे, अन्यथा सरकारी ज़मीन पर खड़े उस आम्र-वृक्ष से उनका क्या लेना-देना? पिताजी ने यह कहकर उन्हें विदा किया कि "मैं समझाऊँगा उसे।"
राजेंद्र बाबू के जाते ही पिताजी ने मुझे पुकारा। मेरी आत्मा की जड़ों में सिहरन हुई। लेकिन, पिताजी की पुकार थी, तो उनके सामने मुझे जाना ही था। मुझे देखते ही पिताजी बोले--"यह क्या सुन रहा हूँ मैं? तुमने आम के पेड़ का एक-एक पत्ता तोड़ दिया? आखिर क्यों?"
मैंने सरलता से कहा--"उसने मुझे गिरा दिया था, तो मुझे भी गुस्सा आ गया।"
पिताजी ने पूछा--"मैं समझा नहीं, किसने गिरा दिया?"
मैंने कहा--'पेड़ ने, और किसने !"
मैंने लक्ष्य किया, पिताजी के अधरों पर हल्की मुस्कान खेल गयी थी। उन्होंने मुझे पास बिठाया और गम्भीरता से कहा--"जानते हो, पेड़ जीवन का प्रतीक है--दीर्घ जीवन का। वह हमें छाया देता है, फल देता है, पत्ते देता है, जीवन-श्वास देता है और तो और, अपनी परोपकार-वृत्ति से हमें जीवन जीने की कला भी सिखाता है। इसीलिए वह मानवीय गुणों का भी प्रतीक है। वह हमारी तरह ही जन्म पाता, बढ़ता और शक्ति तथा क्षमता-सम्पन्न होता है। उसमें भी जीवन है और वह हमारे जीवन का पोषण भी करता है, तुम उसे ही नष्ट कर दोगे, तो हम सब जियेंगे कैसे? किसी आघात से जैसी पीड़ा हमें होती है, वैसी ही पीड़ा उसे भी होती है... और तुमने तो अपनी नादानी और क्रोध में उस निरपराध वृक्ष को पत्र-विहीन बनाकर कितनी पीड़ा पहुँचाई है, सोचो तो ! ऐसा फिर कभी मत करना। जाओ, खाना खाकर सो जाओ।"
उस कच्ची उम्र में पिताजी की बात का आशय चाहे मैं पूरी तरह न समझ सका होऊं, लेकिन इतना मेरी अल्प-बुद्धि में अवश्य आया था कि पेड़ों को भी हमारी तरह ही पीड़ा होती है। तो क्या समस्त टहनी-पत्ते तोड़कर मैंने उस वृक्ष के हाथ-पैर तोड़ दिए हैं? तब तो बहुत पीड़ित होगा वह ! बहरहाल, मैं खाना खाकर सोने चला गया।
मुझे तो बहुत आश्चर्य हुआ ही था, संभव है, आपको भी हो, यह जानकर कि उस रात वह पत्रहीन आम्र-वृक्ष मेरे सपने में आया था। वह बहुत दुखी था, रो रहा था और रोते हुए मुझसे कह रहा था--"तुमने मेरी ऐसी दशा क्यों कर दी? क्या अपराध था मेरा? तुम अपनी असावधानी से गिरे थे और दण्ड मुझे दे गए ! मेरे शरीर का पोर-पोर पीड़ा से बेहाल है। उफ्फ, मैं तो ठीक से साँस भी नहीं ले पा रहा हूँ भाई...!" वह जार-जार रो रहा था। उसका रोना रुकता ही नहीं था और मैं उसकी दशा देखकर सारी रात दुखी होता रहा।...
मैं उसके आँसू पोंछने लिए जैसे ही हाथ बढ़ता हूँ, मेरी नींद टूट जाती है। विस्मय से भरा इधर-उधर देखता हूँ--कहीं नहीं है वह रोता हुआ आम्र-वृक्ष ! मेरा मन ग्लानि से भर जाता है। नीम का दातून उठाकर दाँतों तले दबाता हूँ, फिर उसी लोटे में जल भरता हूँ, जिसमें दो बार शीतल जल भरकर मैंने कल पिया था और अपनी क्रोधाग्नि को शांत करने की चेष्टा की थी। जल से भरा लोटा लेकर मैं घर से बाहर निकलता हूँ। क्षिप्र गति से उसी आम्र-वृक्ष के पास जाता हूँ। वह मूर्छित-सा है, फिर भी खड़ा है--शोकमग्न, अपनी पत्र-विहीन टहनियाँ आकाश में गड़ाये हुए। निःशब्द पहुँचता हूँ उसकी जड़ों के पास। पात्र का जल उसकी जड़ों में डालता हूँ और क्षण-भर अपराधी-सा सिर झुकाए खड़ा रहता हूँ उसके पास--मौन !
प्रायः दो महीने तक रोज़ ऐसा ही करता हूँ--अब एक अभ्यास-सा हो गया है यह ! अचानक वर्षारम्भ होता है--सर्वत्र जल-ही-जल है, यत्र-तत्र जल-जमाव भी है; ऐसे में आम्र-वृक्ष के निकट जाना नहीं हो पाता। वर्षांत पर एक दिन उधर से गुज़रता हूँ और देखता हूँ--आम्र-वृक्ष की टहनियों पर आये हैं नए पात--भूरे, मख़मली ! जैसी गौ-माता की नव-प्रसूता बाछी लगती है, वैसे कोमल पात ! मन में अजब-सी पुलक उठती है और अनायास मेरे होठों से बोल फूटते हैं--'कैसे हो दोस्त? तुमने क्षमा कर दिया न मुझको? चुप क्यों हो, कुछ तो बोलो !'...
नवल पात वर्षा की बूँदों से भीगे हुए हैं। कई पत्रों के कोर से बूँदें अब भी टपक रही हैं; उन्हें देखकर मुझे लगता है, मेरी ही तरह आम्र-वृक्ष की आँखें भी छलक पड़ी हैं शायद...!
2 टिप्पणियां:
बहुत रोचक संस्मरण, हमेशा की तरह।
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