जब बहुत छोटा और उद्दण्ड होने की हद तक चंचल बालक था, तब एक बार पिताजी सपरिवार गया गये थे और हंसकुमार तिवारीजी के यहाँ ठहरे थे। किस प्रयोजन से गये थे, यह तो याद नहीं, लेकिन स्मृति में स्पष्ट अंकित है कि हंसकुमारजी के घर में फल-फूलों के बहुत-से पेड़-पौधे थे, लताएँ थीं। उनके घर हमें बहुत सुस्वादु भोजन और मिष्टान्न मिला था और वहीं मुझे हमउम्र एक मित्र भी मिल गये थे--'चाँद', जो हंसकुमारजी के सुपुत्र थे--गोरे-सुंदर-से बालक। याद नहीं, फिर भी लगता है, वह एक-दो दिन का ही प्रवास था। मित्र रूप में मुझे चाँद मिले और मेरी बड़ी बहन को मिलीं 'ब्ल्यू' दी'। एक-दो दिनों में ही मैंने और चाँद ने मिलकर हंसकुमारजी के घर में हाहाकारी तूफान मचा दिया था। दरअसल, चाँद भी मेरे ही गुण-गोत्र के थे।
गया में पिताजी के दो मित्र थे--एक कनिष्ठ हंसकुमार तिवारीजी, दूसरे वरिष्ठ मोहनलाल महतो 'वियोगी'जी। हंसकुमारजी पिताजी से उम्र में आठ साल छोटे थे और पिताजी को 'गुरुजी'/'गुरुदेव' कहते थे। वियोगीजी पिताजी से आठ वर्ष बड़े थे, लेकिन मित्रता घनिष्ठतम थी। उसी प्रवास में पिताजी हमसबों के साथ वियोगीजी के हवेलीनुमा पैतृक घर भी गये थे उनसे मिलने।...
बहरहाल, मित्रवर चाँद ने भी उद्दण्डता की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और पटना के उसी आवासीय विद्यालय में प्रवेश पाया, जिसमें मुझे घर-निकाला देकर दाखिल किया गया था--'पंचशील छात्रावासीय विद्यालय', कुम्हरार, पटना। उस विद्यालय में डेढ़-दो साल में ही मैंने और चाँद ने मिलकर ऐसे कीर्तिमान स्थापित किये कि प्राचार्य महोदय को अभिभावकों से अंततः कहना ही पड़ा कि 'इस विद्यालय का कल्याण इसी में है कि आप अपने बच्चों को घर ले जायें।'... और हम दोनों ही छात्रावास रूपी उस बंदीगृह से मुक्त हो गये थे।
कुछ समय के बाद, उच्च शिक्षा के लिए हंसकुमारजी की ज्येष्ठ सुपुत्री ब्ल्यू दीदी पटना आयीं और कुछ महीने हमारे साथ ही रहीं। उनकी और मेरी बड़ी दीदी की खूब बनती थी। मेरी माँ भी ब्ल्यू दीदी से बहुत स्नेह करती थीं। घर में ब्ल्यू दीदी के आने से मुझे एक बड़ा लाभ यह हुआ था कि मुझे डाँट-फटकार कम मिलती थी और मुझे प्राप्त होनेवाले किसी भी दण्ड के बीच वह दीवार बनकर खड़ी हो जाती थीं। लेकिन लंबे वक्त तक यह सुख-लाभ भी मुझे मयस्सर न हुआ और ब्ल्यू दीदी को जैसे ही महाविद्यालय के छात्रावास में स्थान मिला, वह वहाँ चली गयीं। वक्त के इन छोट-छोटे टुकड़ों में साथ रहते-बिछड़ते हमारे बीच ऐसी घनिष्ठता हुई कि कभी यह खयाल ही न आया कि ब्ल्यू दीदी और चाँद का बाहर का नाम पूछकर जान लूँ; पुकार के इन्हीं नामों से वक्त का वह टुकड़ा व्यतीत हो गया और ऐसा व्यतीत हुआ कि फिर कभी जीवन में लौटकर नहीं आया।... बचपन के दिनों की तरह ही ब्ल्यू दीदी और चाँद भी अलभ्य हो गये।...
जब थोड़ा बड़ा हुआ, सुबुद्ध बना और अपने बुजुर्गों की महत्ता जानने-समझने लगा तथा अपने विद्यालय का कविता-पाठी छात्र बनकर प्रसिद्धि पाने लगा, तब की बात है--संभवतः 66-67 की। आकाशवाणी, पटना द्वारा आयोजित एक कवि-सम्मेलन में पिताजी की कृपा से मुझे अग्रिम पंक्ति में स्थान मिल गया था। सम्मेलन का संचालन पिताजी ने ही किया था। उन दिनों के कवि-सम्मेलनों की याद करता हूँ तो आज के ऐसे आयोजन फीके-से लगते हैं। इस कवि-सम्मेलन में नामी-गिरामी हस्तियाँ पधारी थीं, जिनमें हंसकुमार तिवारीजी भी थे। उन्होंने बड़ी प्रवाहपूर्ण कविता पढ़ी थी, जो मेरी स्मृति में अंकित होकर रह गयी :
'मीत !
आग के अक्षरों लिखा ये गीत
सुनो, चिनगी चाहे मत चुनो!'
कविता ने जैसे-जैसे विस्तार पाया, वैसे-वैसे वह अनूठी और अप्रतिम होती गयी। हाँ, सच है कि मैंने पूरे मनोयोग से वह कविता सुनी और उसकी चिनगी भी चुनी थी। उसी कविता का अगला टुकड़ा यह था :
'वो जो सुफैद-सा गुलाब वहाँ फूला था,
काँटों की टहनी पर ईसा-सा झूला था,
उस क्रूर पर वह सर्द-सा मुस्कुराया,
गूँगा दिल तड़पकर होंठों पर तिलमिलाया।'...
'सर्वसहा धरती का धीर आज डोला है,
तीर खाये कीर का ये पीर आज बोला है।'...
पूरी कविता एक मार्मिक बयान थी, जैसे कवि अपने ही मन की पीर शब्दों में बाँधकर बाँट रहा हो।
टुकड़ों में यह पूरी कविता प्रायः मुझे याद हो गयी थी, क्योंकि इसकी पंक्तियाँ मेरे अंतर्मन में गूँजती रहती थीं और मैं उनकी आवृत्ति करता रहता था। आज भी स्मरण से ही इन पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूँ। तब की स्मृतियाँ अधिक उज्ज्वल हैं। अब तो, अभी की बात, अभी भूल जाता हूँ।...
(क्रमशः)
(चित्र : मेरे पिताजी पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' और पं. हंसकुमार तिवारी की अत्यंत धुँधली-सी तस्वीर जो एक सम्मिलित चित्र से निकाली गयी है। आप स्वयं देख लें, हमारी आधुनिक दुनिया कितनी संवेदनशील है अपने देश के लेखकों-कवियों के प्रति! सारा नेट-तंत्र खँगाल डाला, कहीं हंसकुमारजी का एक चित्र भी नहीं, आवश्यक सूचनाएँ भी नहीं, पुण्य-तिथि तक का उल्लेख नहीं।... आश्चर्य होता है!)
गया में पिताजी के दो मित्र थे--एक कनिष्ठ हंसकुमार तिवारीजी, दूसरे वरिष्ठ मोहनलाल महतो 'वियोगी'जी। हंसकुमारजी पिताजी से उम्र में आठ साल छोटे थे और पिताजी को 'गुरुजी'/'गुरुदेव' कहते थे। वियोगीजी पिताजी से आठ वर्ष बड़े थे, लेकिन मित्रता घनिष्ठतम थी। उसी प्रवास में पिताजी हमसबों के साथ वियोगीजी के हवेलीनुमा पैतृक घर भी गये थे उनसे मिलने।...
बहरहाल, मित्रवर चाँद ने भी उद्दण्डता की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और पटना के उसी आवासीय विद्यालय में प्रवेश पाया, जिसमें मुझे घर-निकाला देकर दाखिल किया गया था--'पंचशील छात्रावासीय विद्यालय', कुम्हरार, पटना। उस विद्यालय में डेढ़-दो साल में ही मैंने और चाँद ने मिलकर ऐसे कीर्तिमान स्थापित किये कि प्राचार्य महोदय को अभिभावकों से अंततः कहना ही पड़ा कि 'इस विद्यालय का कल्याण इसी में है कि आप अपने बच्चों को घर ले जायें।'... और हम दोनों ही छात्रावास रूपी उस बंदीगृह से मुक्त हो गये थे।
कुछ समय के बाद, उच्च शिक्षा के लिए हंसकुमारजी की ज्येष्ठ सुपुत्री ब्ल्यू दीदी पटना आयीं और कुछ महीने हमारे साथ ही रहीं। उनकी और मेरी बड़ी दीदी की खूब बनती थी। मेरी माँ भी ब्ल्यू दीदी से बहुत स्नेह करती थीं। घर में ब्ल्यू दीदी के आने से मुझे एक बड़ा लाभ यह हुआ था कि मुझे डाँट-फटकार कम मिलती थी और मुझे प्राप्त होनेवाले किसी भी दण्ड के बीच वह दीवार बनकर खड़ी हो जाती थीं। लेकिन लंबे वक्त तक यह सुख-लाभ भी मुझे मयस्सर न हुआ और ब्ल्यू दीदी को जैसे ही महाविद्यालय के छात्रावास में स्थान मिला, वह वहाँ चली गयीं। वक्त के इन छोट-छोटे टुकड़ों में साथ रहते-बिछड़ते हमारे बीच ऐसी घनिष्ठता हुई कि कभी यह खयाल ही न आया कि ब्ल्यू दीदी और चाँद का बाहर का नाम पूछकर जान लूँ; पुकार के इन्हीं नामों से वक्त का वह टुकड़ा व्यतीत हो गया और ऐसा व्यतीत हुआ कि फिर कभी जीवन में लौटकर नहीं आया।... बचपन के दिनों की तरह ही ब्ल्यू दीदी और चाँद भी अलभ्य हो गये।...
जब थोड़ा बड़ा हुआ, सुबुद्ध बना और अपने बुजुर्गों की महत्ता जानने-समझने लगा तथा अपने विद्यालय का कविता-पाठी छात्र बनकर प्रसिद्धि पाने लगा, तब की बात है--संभवतः 66-67 की। आकाशवाणी, पटना द्वारा आयोजित एक कवि-सम्मेलन में पिताजी की कृपा से मुझे अग्रिम पंक्ति में स्थान मिल गया था। सम्मेलन का संचालन पिताजी ने ही किया था। उन दिनों के कवि-सम्मेलनों की याद करता हूँ तो आज के ऐसे आयोजन फीके-से लगते हैं। इस कवि-सम्मेलन में नामी-गिरामी हस्तियाँ पधारी थीं, जिनमें हंसकुमार तिवारीजी भी थे। उन्होंने बड़ी प्रवाहपूर्ण कविता पढ़ी थी, जो मेरी स्मृति में अंकित होकर रह गयी :
'मीत !
आग के अक्षरों लिखा ये गीत
सुनो, चिनगी चाहे मत चुनो!'
कविता ने जैसे-जैसे विस्तार पाया, वैसे-वैसे वह अनूठी और अप्रतिम होती गयी। हाँ, सच है कि मैंने पूरे मनोयोग से वह कविता सुनी और उसकी चिनगी भी चुनी थी। उसी कविता का अगला टुकड़ा यह था :
'वो जो सुफैद-सा गुलाब वहाँ फूला था,
काँटों की टहनी पर ईसा-सा झूला था,
उस क्रूर पर वह सर्द-सा मुस्कुराया,
गूँगा दिल तड़पकर होंठों पर तिलमिलाया।'...
'सर्वसहा धरती का धीर आज डोला है,
तीर खाये कीर का ये पीर आज बोला है।'...
पूरी कविता एक मार्मिक बयान थी, जैसे कवि अपने ही मन की पीर शब्दों में बाँधकर बाँट रहा हो।
टुकड़ों में यह पूरी कविता प्रायः मुझे याद हो गयी थी, क्योंकि इसकी पंक्तियाँ मेरे अंतर्मन में गूँजती रहती थीं और मैं उनकी आवृत्ति करता रहता था। आज भी स्मरण से ही इन पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूँ। तब की स्मृतियाँ अधिक उज्ज्वल हैं। अब तो, अभी की बात, अभी भूल जाता हूँ।...
(क्रमशः)
(चित्र : मेरे पिताजी पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' और पं. हंसकुमार तिवारी की अत्यंत धुँधली-सी तस्वीर जो एक सम्मिलित चित्र से निकाली गयी है। आप स्वयं देख लें, हमारी आधुनिक दुनिया कितनी संवेदनशील है अपने देश के लेखकों-कवियों के प्रति! सारा नेट-तंत्र खँगाल डाला, कहीं हंसकुमारजी का एक चित्र भी नहीं, आवश्यक सूचनाएँ भी नहीं, पुण्य-तिथि तक का उल्लेख नहीं।... आश्चर्य होता है!)
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