रविवार, 4 जून 2017

'वो जो सुफैद-सा गुलाब वहाँ फूला था...' (2) : पं. हंसकुमार तिवारी

यह सन् '74 की बात है, जब देशव्यापी रेल-हड़ताल हुई थी। मैंने सिविल डिफेंस सेवा का प्रमाण-पत्र अर्जित कर रखा था। उन दिनों सिविल डिफेंस के प्रमाण-पत्रधारी नवयुवकों को बलात् सेवा-दान के लिए भेजा जा रहा था। मुझे भी गया जंक्शन के टेलीफोन एक्सचेंज पर तैनात कर दिया गया। मैं यह सोचकर सोत्साह इसके लिए राजी हो गया था कि बहुत दिनों के बाद चाँद से मिलूँगा और हंसकुमारजी के पुनर्दशन कर कृतार्थ होऊँगा। गया मैं चला तो गया, लेकिन वहाँ ऐसी अव्यवस्था फैली हुई थी कि पाँच-छह दिनों तक बिलकुल फुर्सत नहीं मिली। मैं प्रशिक्षण और सेवा-दान में लगा रहा। सातवें दिन फुर्सत मिली। मैं भागकर हंसकुमारजी के घर पहुँचा। वह बंगला के किसी विशाल ग्रंथ के अनुवाद-कार्य में व्यस्त थे, लेकिन मुझे देखकर प्रसन्न हो उठे। 'बैठो-बैठो' कहते हुए सामने पड़े कागज-किताब और कोश समेट कर वह एक किनारे रखने लगे तो मैंने कहा--'आप तो व्यस्त हैं, अपना काम न रोकिये। मैं तब तक चाँद से मिल लेता हूँ, कहाँ है वह?'

लेकिन उन दिनों चाँद गया में नहीं थे, किसी काॅलेज के छात्रावास में थे शायद। उनसे न मिल पाने की मुझे निराशा हुई। हंसकुमारजी ने अनूदित पृष्ठों को सहेजते हुए कहा--'यह तो महासमुद्र है, मेरे आसपास तरंगित होता रहेगा। तुम तो मुक्तजी का कुशल-क्षेम सुनाओ। कैसे हैं वह।' मैंने विस्तार से उन्हें घर-परिवार की कुशलता के समाचार दिये और गया में अपनी उपस्थिति का कारण-प्रयोजन बताया। वह सुनकर प्रसन्न हुए, बोले--'फिर तो तुम यहीं आ जाओ, यहीं से ड्यूटी पर चले जाना। स्टेशन पर जाने कैसा खाना मिलता हो। यहाँ कम-से-कम घर का भोजन तो मिलेगा।'

हंसकुमारजी से हमारे पारिवारिक संबंध थे--अत्यंत निकट के, आत्मीय! मेरे प्रति उनकी ऐसी प्रीति सहज स्वाभाविक थी, लेकिन मैंने स्थिति स्पष्ट करते हुए उन्हें बताया कि 'आकस्मिक सेवाओं के लिए स्टेशन पर ही बने रहने की अनिवार्यता है, अन्यथा मैं आपके पास ही आ जाता। हाँ, साप्ताहिक अवकाश पर अवश्य आ जाया करूँगा।'

फिर, बात को घुमाकर मैं उनकी कविता पर ले आया और उनकी उसी कविता की मैंने उन्हें याद दिलायी, जिसे मैंने उनके श्रीमुख से कवि-सम्मेलन में सुना था। मैं उस कविता की पंक्तियाँ उद्धृत करने लगा तो वह बड़े खुश हुए। कहने लगे--'अरे वाह! तुम्हें तो कई पंक्तियाँ याद हैं उस कविता की। तुममें आया यह परिवर्तन मुझे अच्छा लगा। आखिर जिस महावृक्ष की छाया में कई पीढ़ियों को साहित्यिक संस्कार मिले, उसी की छाया में पलते-बढ़ते उन्हीं के सुपुत्र को क्यों न मिलते?'...
उनकी इस बात से मैं प्रसन्न हुआ, यद्यपि उनका परोक्ष इशारा बचपन की मेरी दुष्टता-उद्दण्डता की ओर भी था। मैंने उनसे कविताएँ सुनाने का अनुरोध किया तो उन्होंने एक नहीं, कई कविताएँ सुनायीं। मैं मंत्रमुग्ध सुनता रहा।
वह गौर वर्ण के सुदर्शन व्यक्ति थे। उनकी खनकदार आवाज में एक प्रकार का भारीपन था, जो अलग प्रभाव छोड़ता था। कविता पूरी लयात्मकता के साथ प्रवाह में सुनाते थे--स्पष्ट शब्दोच्चारण के साथ। उनके काव्य-पाठ का श्रवण करते हुए श्रोता विभोर हो जाता था। उस दिन मेरी दशा भी कुछ ऐसी ही थी। उनकी कई कविताओं में एक कविता देश के विस्मृत बलिदानियों के प्रति थी--बहुत प्रेरक कविता; जिसकी आरंभिक तीन पंक्तियाँ मेरी स्मृति में स्थिर थीं, उसका एक और छंद मैं नेट से आपके लिए ढूँढ़ लाया हूँ--
'मिट्टी वतन की पूछती
वह कौन है, वह कौन है?
इतिहास जिस पर मौन है! वह कौन है?
जिसके लहू की बूँद का टीका हमारे भाल पर
जिसके लहू की लालिमा स्वातंत्र-शिशु के गाल पर
जो बुझ गया गिरकर गगन से, निमिष में तारा-सदृश
बच ओस जितना भी न पाया, अश्रु जिसका काल पर
जिसके लिए दो बूँद भी स्याही नहीं इतिहास को
वह कौन है?...'

सुबह के नौ-दस बजे मैं उनके आवास पर पहुँच गया था, लेकिन बातों-बातों में दिन के दो बज गये। भोजन का वक्त हो गया था। सुदर्शना और स्नेहमयी चाचीजी ने भोजन कराने के बाद ही मुझे लौटने की इजाजत दी और हंसकुमारजी बार-बार ताकीद करते रहे कि छुट्टी मिलते ही मैं उनके पास आ जाऊँ। उस पीढ़ी के लोगों के अंतर्मन में कितनी प्रीति, कितना स्नेह भरा पड़ा था, यह सोचकर मैं आज भी हैरान होता हूँ।...
(क्रमशः)


(चित्र : सन् 1968 में मेरी माता के निधन पर हंसकुमार तिवारीजी का शोक-संवेदना का पिताजी को संबोधित पत्र, दिनांक : 13-12-1968)

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