सत्ताइस दिनों के उस गया-प्रवास में बस एक बार और हंसकुमारजी के घर जाने का मौका मिला। जब उनके दरवाजे पहुँचा तो देखा कि हंसकुमारजी अहाते में ही पुष्प-पौधों के बीच, एक सेंटर टेबल पर अपने कागजात फैलाये, कुर्सी पर बैठे हैं और कुछ लिख रहे हैं। लौहद्वार खुलने की आहट से उनका ध्यान भंग हुआ। मुझे देखते ही उन्होंने हाँक लगायी--'आओ-आओ, इधर आ जाओ।' चरण-स्पर्श कर मैं उनके पास जा बैठा और बातें होने लगीं। बीच में ऊँची आवाज लगाकर उन्होंने मेरे आगमन की इत्तला के साथ चाय भेजने की हिदायत दी। थोड़ी ही देर में चाय आ गयी, बिस्कुट-नमकीन के साथ। हमने बातें करते हुए चाय पी।
चाय अभी खत्म ही हुई थी कि मैंने उनके कागजों की ओर देखा--फुलस्केप पृष्ठों पर अनूदित सामग्री के अक्षर मोती के दानों-से चमक रहे थे। हंसकुमारजी शिरोरेखाविहीन, थोड़े तिरछे-तिरछे, सुडौल अक्षर लिखते थे--कहीं काट-छाँट नहीं, शब्द-परिवर्तन नहीं, सर्वत्र एक समान, सधा हुआ सुंदर लेखन! तैयार प्रेसकाॅपी! उनके लिखे को देखकर मुझे पिताजी के अक्षरों और उनका लेखन याद आया, अनवरत एकाग्र परिश्रम याद आया। मैंने कहा--'आपके अक्षर बाबूजी के अक्षरों से बहुत मिलते-जुलते हैं, वह भी शब्दों पर शिरोरेखा नहीं डालते और उनका लिखा हुआ भी बहुत साफ-सुथरा होता है। वह भी आपकी तरह ही अनुवाद-कार्य में व्यस्त रहते हैं। बस, बाबूजी के अक्षर सीधे होते हैं और आपके थोड़े तिरछे।'
मेरी बात सुनकर वह मुस्कुराये और बोले--'कलम जितना घिसेगी, अक्षर उतने ही पुष्ट-सुडौल होंगे। मुक्तजी और मैंने भी जीवन-भर कलम घिसने के सिवा और किया भी क्या है?'
फिर, मेरे मुँह से बस इतनी-सी बात निकल गयी--'लेकिन यह परिश्रम, यह अध्यवसाय और ऐसी संलग्नता तो बड़ी कठिन साधना है। यह कष्ट-साधन कैसे कर लेते हैं आपलोग?'
मेरी बात सुनकर वह दो क्षण मौन रहे, फिर गम्भीरता से बोले--'मैंने पीछे जो जमीन छोड़ी है, वह तपता हुआ रेगिस्तान था और उसे मैंने पाँवों से चलकर नहीं, छाती के बल रेंगकर पार किया है। हमें राजकृपा का सुवर्ण रथ कभी प्राप्त नहीं हुआ। भीषण और निरंतर श्रम ही हमारे भाग्य का सुख है...और उसे ही हम सुखपूर्वक भोगते हैं!'...
मैं उनकी बात सुनकर सन्न रह गया। खुले बगीचे की आबोहवा में भी गम्भीरता तैरने लगी... तभी चाचीजी ने आकर हस्तक्षेप किया, बोलीं--'खाना तैयार है। आपलोग अंदर आ जाइये।' मैंने घड़ी देखी, डेढ़ बज रहे थे। बातों-बातों में खासा वक्त बीत गया था। सेंटर टेबल पर रखी पुस्तकें और कागजों को समेटने में मैंने हंसकुमारजी की मदद की और हम घर में दाखिल हुए। भोजन सुस्वादु था। हमने भोजनोपरांत मिष्टान्न की प्यालियाँ उठायीं और ड्राइंग रूम में आ बैठे और सामान्य बातें होने लगीं। पिछली बातों का अवसाद तो धुलने लगा, लेकिन हंसकुमारजी का वह वाक्य मेरे अंतर्मन में कहीं गहरे अंकित हो गया था हमेशा के लिए--'मैंने पीछे जो जमीन छोड़ी है, वह तपता हुआ रेगिस्तान था...'
मेरे लौट चलने का वक्त हो रहा था, लेकिन उन दिनों एक फितूर मेरे सिर पर सवार था, मैं जिन बड़े साहित्यिकों से मिलता, उनसे अपनी पाॅकेट डायरी में 'ज़िदगी क्या है', इस विषय पर उनके विचार लिख देने का आग्रह करता। यही आग्रह मैंने हंसकुमारजी से भी किया और अपनी जेब से डायरी निकाली। मेरा निवेदन सुनते ही हंसकुमारजी उठ खड़े हुए और अलमारी से एक छोटी-सी डायरी निकाल लाये। उसे मुझे देते हुए बोले--'इसमें ज़िंदगी पर लिखी हुई मेरी शत-सूक्तियाँ हैं, देख लो। जो तुम्हें पसंद होगी, वही लिख दूँगा।'
उस डायरी की सूक्तियाँ देखकर मुझे हैरत हुई। उसमें सूक्तियाँ नहीं, एक-से-बढ़कर एक नगीने जड़े थे--ज़िंदगी विषयक। उसमें से किसी एक का चयन करना आसान तो हर्गिज नहीं था। इसमें वक्त लगा, लेकिन मैंने अंततः जिस सूक्ति का चयन किया, वह मेरी स्मृति में ही अंकित रह गया; वह बहुमूल्य डायरी तो कानपुर शहर में मेरी साइकिल के कैरियर से राह चलते कहीं टपक गयी, जिसका अफसोस मुझे लंबे समय तक रहा। बहरहाल, जिस सूक्ति को मैंने पसंद किया था, उसे हंसकुमारजी ने मेरी डायरी में लिखकर हस्ताक्षर किये, तिथि डाली। मैं उपकृत होकर उनके घर से लौटा। वह सूक्ति थी--
'जो हुआ, सो हुआ समझो,
सुख-दुःख सब दया-दुआ समझो,
दाँव हारा कि जीत ली बाजी,
ज़िंदगी? ऐ मियाँ! जुआ समझो!!'
(क्रमशः)
चाय अभी खत्म ही हुई थी कि मैंने उनके कागजों की ओर देखा--फुलस्केप पृष्ठों पर अनूदित सामग्री के अक्षर मोती के दानों-से चमक रहे थे। हंसकुमारजी शिरोरेखाविहीन, थोड़े तिरछे-तिरछे, सुडौल अक्षर लिखते थे--कहीं काट-छाँट नहीं, शब्द-परिवर्तन नहीं, सर्वत्र एक समान, सधा हुआ सुंदर लेखन! तैयार प्रेसकाॅपी! उनके लिखे को देखकर मुझे पिताजी के अक्षरों और उनका लेखन याद आया, अनवरत एकाग्र परिश्रम याद आया। मैंने कहा--'आपके अक्षर बाबूजी के अक्षरों से बहुत मिलते-जुलते हैं, वह भी शब्दों पर शिरोरेखा नहीं डालते और उनका लिखा हुआ भी बहुत साफ-सुथरा होता है। वह भी आपकी तरह ही अनुवाद-कार्य में व्यस्त रहते हैं। बस, बाबूजी के अक्षर सीधे होते हैं और आपके थोड़े तिरछे।'
मेरी बात सुनकर वह मुस्कुराये और बोले--'कलम जितना घिसेगी, अक्षर उतने ही पुष्ट-सुडौल होंगे। मुक्तजी और मैंने भी जीवन-भर कलम घिसने के सिवा और किया भी क्या है?'
फिर, मेरे मुँह से बस इतनी-सी बात निकल गयी--'लेकिन यह परिश्रम, यह अध्यवसाय और ऐसी संलग्नता तो बड़ी कठिन साधना है। यह कष्ट-साधन कैसे कर लेते हैं आपलोग?'
मेरी बात सुनकर वह दो क्षण मौन रहे, फिर गम्भीरता से बोले--'मैंने पीछे जो जमीन छोड़ी है, वह तपता हुआ रेगिस्तान था और उसे मैंने पाँवों से चलकर नहीं, छाती के बल रेंगकर पार किया है। हमें राजकृपा का सुवर्ण रथ कभी प्राप्त नहीं हुआ। भीषण और निरंतर श्रम ही हमारे भाग्य का सुख है...और उसे ही हम सुखपूर्वक भोगते हैं!'...
मैं उनकी बात सुनकर सन्न रह गया। खुले बगीचे की आबोहवा में भी गम्भीरता तैरने लगी... तभी चाचीजी ने आकर हस्तक्षेप किया, बोलीं--'खाना तैयार है। आपलोग अंदर आ जाइये।' मैंने घड़ी देखी, डेढ़ बज रहे थे। बातों-बातों में खासा वक्त बीत गया था। सेंटर टेबल पर रखी पुस्तकें और कागजों को समेटने में मैंने हंसकुमारजी की मदद की और हम घर में दाखिल हुए। भोजन सुस्वादु था। हमने भोजनोपरांत मिष्टान्न की प्यालियाँ उठायीं और ड्राइंग रूम में आ बैठे और सामान्य बातें होने लगीं। पिछली बातों का अवसाद तो धुलने लगा, लेकिन हंसकुमारजी का वह वाक्य मेरे अंतर्मन में कहीं गहरे अंकित हो गया था हमेशा के लिए--'मैंने पीछे जो जमीन छोड़ी है, वह तपता हुआ रेगिस्तान था...'
मेरे लौट चलने का वक्त हो रहा था, लेकिन उन दिनों एक फितूर मेरे सिर पर सवार था, मैं जिन बड़े साहित्यिकों से मिलता, उनसे अपनी पाॅकेट डायरी में 'ज़िदगी क्या है', इस विषय पर उनके विचार लिख देने का आग्रह करता। यही आग्रह मैंने हंसकुमारजी से भी किया और अपनी जेब से डायरी निकाली। मेरा निवेदन सुनते ही हंसकुमारजी उठ खड़े हुए और अलमारी से एक छोटी-सी डायरी निकाल लाये। उसे मुझे देते हुए बोले--'इसमें ज़िंदगी पर लिखी हुई मेरी शत-सूक्तियाँ हैं, देख लो। जो तुम्हें पसंद होगी, वही लिख दूँगा।'
उस डायरी की सूक्तियाँ देखकर मुझे हैरत हुई। उसमें सूक्तियाँ नहीं, एक-से-बढ़कर एक नगीने जड़े थे--ज़िंदगी विषयक। उसमें से किसी एक का चयन करना आसान तो हर्गिज नहीं था। इसमें वक्त लगा, लेकिन मैंने अंततः जिस सूक्ति का चयन किया, वह मेरी स्मृति में ही अंकित रह गया; वह बहुमूल्य डायरी तो कानपुर शहर में मेरी साइकिल के कैरियर से राह चलते कहीं टपक गयी, जिसका अफसोस मुझे लंबे समय तक रहा। बहरहाल, जिस सूक्ति को मैंने पसंद किया था, उसे हंसकुमारजी ने मेरी डायरी में लिखकर हस्ताक्षर किये, तिथि डाली। मैं उपकृत होकर उनके घर से लौटा। वह सूक्ति थी--
'जो हुआ, सो हुआ समझो,
सुख-दुःख सब दया-दुआ समझो,
दाँव हारा कि जीत ली बाजी,
ज़िंदगी? ऐ मियाँ! जुआ समझो!!'
(क्रमशः)
1 टिप्पणी:
सुन्दर अभिव्यक्ति।
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