रविवार, 25 जून 2017

श्रीविष्णु प्रभाकर, जो चलते चले गये...(5)

(समापन किस्त)

सुधीजन जानते हैं, 'आवरा मसीहा' पुस्तक प्रभाकरजी के जीवन के चौदह वर्षों के अथक परिश्रम का प्रतिफल थी। मैं चाहता तो उसकी एक प्रति कहीं से भी खरीद सकता था, लेकिन उस प्रति पर प्रभाकरजी के हस्ताक्षर कहाँ से मिलते मुझे! उसकी एक प्रति मुझे उन्हीं के कर-कमलों से चाहिये थी, उनके आशीर्वाद के साथ। मैंने उसकी लंबी प्रतीक्षा भी की थी। अब वह अमूल्य प्रति मुझे हस्तगत हुई थी। मैं उपकृत हुआ उनके घर से पटना लौटा था।

लेकिन, यह मेरा दुर्भाग्य ही था कि कई वर्षों तक खूब जतन से रखी हुई वह प्रति मेरे चचेरे अनुज पढ़ने के लिए मुझसे माँगकर ले गये। तीन महीनों तक वह पुस्तक उन्होंने लौटायी नहीं तो मैंने उसकी माँग की। उन्होंने बहुत दुःखी होकर मुझे बताया कि 'भइया, मैं भी उसे पढ़ न सका। आपके यहाँ से लेकर जाते हुए ही वह साइकिल के कैरियर से राह में कहीं गिर गयी और मुझे पता भी न चला।' उनसे यह वृत्तांत सुनकर मैं बहुत आहत हुआ, ऐसा लगा जैसे कोई बहुमूल्य निधि मेरे हाथ से फिसल गयी है।... इतने महत्व की पुस्तक इतनी असावधानी से वह क्यों ले चले, यह समझना मेरे लिए कठिन था।... लोग पुस्तक-प्रेमियों की पीड़ा नहीं समझते शायद।

प्रभाकरजी से प्राप्त दूसरी पुस्तक 'अर्द्धनारीश्वर' की प्रति मेरे पास आज भी सुरक्षित है, उसके प्रथम पृष्ठ पर उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह द्रष्टव्य है--
"प्रिय बंधु आनन्दवर्धन ओझा को
बहुत-बहुत स्नेह के साथ,
पुराने दिनों की याद में--
--विष्णु प्रभाकर
25-1-1997."
प्रभाकरजी के इस छोटे-से उद्गार में मुझे उनकी सहज प्रीति की सुगंध मिलती है और मेरा मन उनकी प्रणति को मचल उठता है!...

लेकिन उसके बाद लंबे  समय तक मेरा दिल्ली जाना हो न सका। पिताजी के दिवंगत होने के बाद परिस्थितियाँ विषम हो गयी थीं। पत्नी पटना से बहुत दूर चक्रधरपुर में थीं, आगे की पढ़ाई के लिए बेटियाँ दिल्ली चली गयी थीं और सबसे बड़ी बात, छोटी बहन रुग्ण होकर शय्याशायी थी। मैं पटना में कीलबद्ध होकर रह गया था, युद्ध-भूमि में अभिमन्यु-सा अकेला! सन् 1999 में छोटी बहन भी साथ छोड़ गयी।...

फिर लंबा अरसा गुजर गया। प्रभाकरजी से पत्राचार पर अचानक विराम लग गया। उनके अस्वस्थ होने की खबरें समाचार पत्रों से मिलीं भी, तो मैं अवश-निरुपाय था।...श्रीमतीजी के स्थानांतरण की चेष्टाओं, बिखरी हुई गृहस्थी के जाल-जंजाल को समेटने, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रदत्त दायित्वों को निभाने और एक लघु पत्रिका के संपादन में मैं ऐसा मशगूल हुआ कि बाहरी दुनिया से असम्पृक्त-सा हो गया। प्रभु ने प्रभाकरजी को दीर्घायु प्रदान की थी। दीर्घ आयुष्य किसी के भी कष्ट का कारण होता है और प्रभाकरजी भी अपने हिस्से आयी वार्धक्य की कष्ट-पीड़ाएँ भोगते रहे... और जीवन के 97 वसंत देखकर जाने कब चलते-चलते दुनिया की गलियाँ छोड़ (11-4-2009) गये...! सच मानिये, इस कड़वे सच से मैं कई दिनों तक अनजान ही रहा और जब मुझे पता चला तो आत्मा में एक हाहाकारी तूफान उठा था...! आह! अब वह मोहिनी सूरत मुझे कभी देखने को नहीं मिलेगी, जिसमें दिखते थे मुझे बाबूजी!... वे मृदु स्वर भी अब सुनने को न मिलेंगे, जिनमें बाबूजी के स्वरों की अनुगूँज थी।...

मुझे लगता है, अपनी जीवन-यात्रा में प्रभाकरजी निरंतर चलते ही रहे, कहीं रुके नहीं, कभी थके नहीं। 'ज्योतिपुंज हिमालय' की तराइयों से उत्तुंग शिखरों तक चलते चले गये, चौदह वर्षों तक 'आवारा मसीहा' के धुँधले पदचिह्न ढूँढ़ते रहे, वह 'गंगा-यमुना के नैहर में' गये, 'हँसते निर्झर, दहकती भट्ठी' को पद-दलित कर आये और इसी तरह अनिकेतन अथक यात्री बने रहे। और, अब तो वह अनन्त पथ के यात्री हो गये हैं...!


प्रभाकरजी की एकमात्र कविता-पुस्तक है--'चलता चला जाऊँगा'। नि:संदेह वह अपना सर्वस्व इस जगत् को सौंपकर चले गये...यहाँ तक कि अपनी कंचन-सी पार्थिव काया भी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के हवाले कर गये...! उनकी मधुर-मनोहर स्मृतियों को मेरा साश्रु नमन है!...
(समाप्त)

[चित्र : पुस्तक 'चलता चला जाऊँगा' का आवरण और 'अर्द्धनारीश्वर' के प्रथम पृष्ठ पर अंकित प्रभाकर जी के अक्षर, 25 जनवरी,1997.]

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