लेकिन, घर से इतनी दूर, पिताजी का पद्मा-प्रवास दीर्घकालिक न हो सका। वह मन में एक नया स्वप्न लेकर पटनासिटी लौट आये। लेकिन उस स्वप्न के साकार होने में वक़्त लगा। उन्होंने मित्रवर अज्ञेयजी (स.ही. वात्स्यायन) को सहयोग के लिए आवाज़ दी और अज्ञेयजी की सदाशयता देखिये, वह आ पहुँचे पिताजी के पास--भट्ठी के पास की एक गली में--मालसलामी। अज्ञेयजी आये तो दस दिनों तक पिताजी के साथ ही रहे। दोनों मित्रों ने मिलकर एक स्वप्न को साकार करने का संकल्प किया। सुबह-शाम गंगा-स्नान, साहित्यिक और पारिवारिक गप-शप और रात्रि में लालटेन की मद्धम रौशनी में पठन-पाठन। पटना के पुष्ट मच्छर सोने न देते तो अज्ञेयजी लालटेन बुझाकर उसका मिट्टी का तेल पूरे शरीर पर लगा लेते और गहरी नींद सो जाते--कच्ची मिट्टी के फर्श पर; पिताजी से कहते, "घासलेट' का यह प्रयोग और परीक्षण मैं जेल-प्रवासों में निरंतर करता रहा हूँ, आप चिंता न कीजिये।"
दस दिनों के प्रवास में अज्ञेयजी ने पिताजी के स्वप्न को साकार करने में पूरा सहयोग देने का वचन तो दिया ही, साहित्य की सर्वांग सुन्दर मासिक 'आरती' की परिकल्पना की और उसके प्रवेशांक का दुरंगा मुखपृष्ठ भी सजा गये।...
सन् 1940 में 'आरती' का आलोक चहुँओर फैला। पिताजी और अज्ञेयजी का स्वप्न साकार हुआ। ऐसा नहीं था कि इसके पहले पटना से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाश में आई ही नहीं थीं। वर्षों पहले पटना मध्य से 'शिक्षा' का संपादन पितामह द्वारा किया गया था। ब्रजशंकर वर्मा द्वारा संपादित 'योगी' और रामबृक्ष बेनीपुरी-गंगाशरण सिंह के सम्मिलित संपादन में 'युवक' का प्रकाशन हो चुका था, लेकिन दुर्योग कि पत्र अल्पजीवी सिद्ध हुआ। जब 'आरती' प्रकाशमान हुई, तब 'बालक' और 'किशोर'--ये दो पत्र प्रकाशित हो रहे थे। सन् 1940 में, पिताजी को संबोधित एक पत्र में, गया के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मोहनलाल महतो वियोगीजी ने एक प्रवेग में कतिपय आलंकारिक पंक्तियाँ लिखी थीं :
"भाई,
'आरती' आई। धन्यवाद! प्रकाशमान है।...मगही बोली में एक शब्द है--'मराछ'। मराछ उस अभागी को कहते हैं, जिसका बच्चा नहीं जीता, मर-मर जाता है। बिहार की साहित्य-भूमि मराछ है। हाँ, 'बालक', 'किशोर' हैं, पर बालकों और अल्हड़ किशोरों के बल पर गृहस्थी कायम नहीं रह सकती। एक 'युवक' (बाबू गंगाशरण सिंह और रामबृक्ष बेनीपुरी के संयुक्त संपादन में पटना से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका) था, जिससे आशा थी, भरोसा था, वह मर ही चुका! लड़का न सही, लड़की का ही वंश चले--कुछ चले तो। 'युवक' न सही, बिटिया 'आरती' ही घर को बेचिराग होने से बचावे।... जैसी भगवान् की इच्छा!
मैं श्रीवात्स्यायनजी को दूर से जानता हूँ। हुतात्माओं के इतिहास में जो सबसे जाज्वल्यमान परिच्छेद है, उसमें बार-बार मैंने इनका नाम पढ़ा है। यदि इनका सारा क्रांतिकारी फोर्स साहित्य की ओर मुड़ जाये तो फिर क्या कहने हैं। और तुम--?
क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें? इस जन्म में तो शायद गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने!"...
समय साक्षी है, वियोगीजी ने अज्ञेयजी के लिए जो शुभेच्छा 1940 के पत्र में प्रकट की थी, कालांतर में वही सत्य सिद्ध हुई।... 'मेघमण्डल' के मित्र, 'बिजली' के लेखक-कविगण का सहयोग-समर्थन भी पिताजी को मिला और सबसे बड़ी बात, एक-दो अंक के प्रकाशित होते ही उन अंकों को देखकर देशरत्न डाॅ. राजेंद्र प्रसादजी ने पत्र लिखकर पिताजी को सदाकत आश्रम में मिलने का आदेश दिया। यथासमय पिताजी उनसे मिले और पहली मुलाकात में ही राजेंद्र बाबू ने 'आरती' को अपने संरक्षण में लेने की कृपा की। 'आरती' की थाली जगमगा उठी।
उस मुलाक़ात में राजेंद्र बाबू ने कहा था--"आरती' देश में बिहार का गौरव बढ़ायेगी। इसका प्रकाशन अवरुद्ध नहीं होना चाहिए।" पिताजी बहुत उत्साहित और प्रसन्नचित्त सदाकत आश्रम से लौटे।
पटना सिटी की पतली-सी कचौड़ी गली में आरती मन्दिर प्रेस की स्थापना कर पिताजी वहीं रहने लगे और वहीं से निकलने लगी 'आरती'। कालान्तर में उसी भवन में 'संगीत सदन' स्थापित हुआ। 'आरती' के दरबार में कौन नहीं आया! दिग्गज साहित्यिक आये तो नयी पीढ़ी के साहित्य प्रेमी भी। स्थानीय नवयुवक मण्डल के जिज्ञासुु प्रतिनिधि तो सुबह-शाम 'आरती' की लौ को अंजुरी में उठाकर अपने मस्तक से लगाने को तत्पर रहते, उनमें प्रमुख थे स्व. गिरिधारीलाल शर्मा 'गर्ग', स्व. रामजी मिश्र 'मनोहर, स्व. नारायण भक्त, स्व. सत्यदेव नारायण सिन्हा आदि। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बिजली-आरती के युग में पीढ़ियाँ दीक्षित हुईं।...
'दिनकर की डायरी" के संयोजन-काल (अप्रैल-मई 1972) में, दिनकरजी के कक्ष में रखे बड़े-से लोहे की चादरवाले बक्से से जब पिताजी के 1936-40 के लिखे चार पत्र मेरे हाथ लगे तो उन्हें पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा था। उन पत्रों को दिखाकर जब मैंने उनसे बातें कीं तो उन्होंने मुझसे कहा था--"मेरी कई प्रारंभिक रचनाएँ मुक्तजी ने ही 'बिजली' और 'आरती' में प्रकाशित की थीं। यह उसी समय का पत्राचार है।"... 30-35 वर्ष पुराने उन खतों में पिताजी के मोती-से अक्षर सर्वथा सुरक्षित कैसे थे, यही आश्चर्य का विषय था।
अतिशीघ्र 'आरती मन्दिर प्रेस' बड़ी-बड़ी साहित्यिक विभूतियों का रमणीय स्थल बन गया। अज्ञेयजी-बच्चनजी का वहाँ आना-जाना तो होता ही था। सुधीजन उनके दर्शन कर मुग्ध-विस्मित होते। बच्चनजी के काव्य-पाठ की गोष्ठियाँ होतीं। 'मधुशाला' के छंद सुनकर श्रोता झूम-झूम जाते और गहरी संपृक्ति से काव्य-सुधा का पान करते रहते। पिताजी के समवयसी और बुजुर्ग मित्र, जो उन दिनों पटना में थे, वे भी साथ आ जुटते। ऐसी संगोष्ठियों, सम्मेलनों और काव्य-पाठ से पटना शहर में साहित्यिक सरगर्मियाँ तेज हुईं, नवयुवक पढ़ने-लिखने की ओर प्रवृत्त हुए, एक नया माहौल बनने लगा।...
[क्रमशः]
दस दिनों के प्रवास में अज्ञेयजी ने पिताजी के स्वप्न को साकार करने में पूरा सहयोग देने का वचन तो दिया ही, साहित्य की सर्वांग सुन्दर मासिक 'आरती' की परिकल्पना की और उसके प्रवेशांक का दुरंगा मुखपृष्ठ भी सजा गये।...
सन् 1940 में 'आरती' का आलोक चहुँओर फैला। पिताजी और अज्ञेयजी का स्वप्न साकार हुआ। ऐसा नहीं था कि इसके पहले पटना से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाश में आई ही नहीं थीं। वर्षों पहले पटना मध्य से 'शिक्षा' का संपादन पितामह द्वारा किया गया था। ब्रजशंकर वर्मा द्वारा संपादित 'योगी' और रामबृक्ष बेनीपुरी-गंगाशरण सिंह के सम्मिलित संपादन में 'युवक' का प्रकाशन हो चुका था, लेकिन दुर्योग कि पत्र अल्पजीवी सिद्ध हुआ। जब 'आरती' प्रकाशमान हुई, तब 'बालक' और 'किशोर'--ये दो पत्र प्रकाशित हो रहे थे। सन् 1940 में, पिताजी को संबोधित एक पत्र में, गया के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मोहनलाल महतो वियोगीजी ने एक प्रवेग में कतिपय आलंकारिक पंक्तियाँ लिखी थीं :
"भाई,
'आरती' आई। धन्यवाद! प्रकाशमान है।...मगही बोली में एक शब्द है--'मराछ'। मराछ उस अभागी को कहते हैं, जिसका बच्चा नहीं जीता, मर-मर जाता है। बिहार की साहित्य-भूमि मराछ है। हाँ, 'बालक', 'किशोर' हैं, पर बालकों और अल्हड़ किशोरों के बल पर गृहस्थी कायम नहीं रह सकती। एक 'युवक' (बाबू गंगाशरण सिंह और रामबृक्ष बेनीपुरी के संयुक्त संपादन में पटना से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका) था, जिससे आशा थी, भरोसा था, वह मर ही चुका! लड़का न सही, लड़की का ही वंश चले--कुछ चले तो। 'युवक' न सही, बिटिया 'आरती' ही घर को बेचिराग होने से बचावे।... जैसी भगवान् की इच्छा!
मैं श्रीवात्स्यायनजी को दूर से जानता हूँ। हुतात्माओं के इतिहास में जो सबसे जाज्वल्यमान परिच्छेद है, उसमें बार-बार मैंने इनका नाम पढ़ा है। यदि इनका सारा क्रांतिकारी फोर्स साहित्य की ओर मुड़ जाये तो फिर क्या कहने हैं। और तुम--?
क्या मैं भूल गया हूँ तुम्हें? इस जन्म में तो शायद गंगा, मुक्त और बेनीपुरी--त्रिदेवों को भूल नहीं सकता, पर-जन्म की राम जाने!"...
समय साक्षी है, वियोगीजी ने अज्ञेयजी के लिए जो शुभेच्छा 1940 के पत्र में प्रकट की थी, कालांतर में वही सत्य सिद्ध हुई।... 'मेघमण्डल' के मित्र, 'बिजली' के लेखक-कविगण का सहयोग-समर्थन भी पिताजी को मिला और सबसे बड़ी बात, एक-दो अंक के प्रकाशित होते ही उन अंकों को देखकर देशरत्न डाॅ. राजेंद्र प्रसादजी ने पत्र लिखकर पिताजी को सदाकत आश्रम में मिलने का आदेश दिया। यथासमय पिताजी उनसे मिले और पहली मुलाकात में ही राजेंद्र बाबू ने 'आरती' को अपने संरक्षण में लेने की कृपा की। 'आरती' की थाली जगमगा उठी।
उस मुलाक़ात में राजेंद्र बाबू ने कहा था--"आरती' देश में बिहार का गौरव बढ़ायेगी। इसका प्रकाशन अवरुद्ध नहीं होना चाहिए।" पिताजी बहुत उत्साहित और प्रसन्नचित्त सदाकत आश्रम से लौटे।
पटना सिटी की पतली-सी कचौड़ी गली में आरती मन्दिर प्रेस की स्थापना कर पिताजी वहीं रहने लगे और वहीं से निकलने लगी 'आरती'। कालान्तर में उसी भवन में 'संगीत सदन' स्थापित हुआ। 'आरती' के दरबार में कौन नहीं आया! दिग्गज साहित्यिक आये तो नयी पीढ़ी के साहित्य प्रेमी भी। स्थानीय नवयुवक मण्डल के जिज्ञासुु प्रतिनिधि तो सुबह-शाम 'आरती' की लौ को अंजुरी में उठाकर अपने मस्तक से लगाने को तत्पर रहते, उनमें प्रमुख थे स्व. गिरिधारीलाल शर्मा 'गर्ग', स्व. रामजी मिश्र 'मनोहर, स्व. नारायण भक्त, स्व. सत्यदेव नारायण सिन्हा आदि। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बिजली-आरती के युग में पीढ़ियाँ दीक्षित हुईं।...
'दिनकर की डायरी" के संयोजन-काल (अप्रैल-मई 1972) में, दिनकरजी के कक्ष में रखे बड़े-से लोहे की चादरवाले बक्से से जब पिताजी के 1936-40 के लिखे चार पत्र मेरे हाथ लगे तो उन्हें पढ़कर मैं रोमांचित हो उठा था। उन पत्रों को दिखाकर जब मैंने उनसे बातें कीं तो उन्होंने मुझसे कहा था--"मेरी कई प्रारंभिक रचनाएँ मुक्तजी ने ही 'बिजली' और 'आरती' में प्रकाशित की थीं। यह उसी समय का पत्राचार है।"... 30-35 वर्ष पुराने उन खतों में पिताजी के मोती-से अक्षर सर्वथा सुरक्षित कैसे थे, यही आश्चर्य का विषय था।
अतिशीघ्र 'आरती मन्दिर प्रेस' बड़ी-बड़ी साहित्यिक विभूतियों का रमणीय स्थल बन गया। अज्ञेयजी-बच्चनजी का वहाँ आना-जाना तो होता ही था। सुधीजन उनके दर्शन कर मुग्ध-विस्मित होते। बच्चनजी के काव्य-पाठ की गोष्ठियाँ होतीं। 'मधुशाला' के छंद सुनकर श्रोता झूम-झूम जाते और गहरी संपृक्ति से काव्य-सुधा का पान करते रहते। पिताजी के समवयसी और बुजुर्ग मित्र, जो उन दिनों पटना में थे, वे भी साथ आ जुटते। ऐसी संगोष्ठियों, सम्मेलनों और काव्य-पाठ से पटना शहर में साहित्यिक सरगर्मियाँ तेज हुईं, नवयुवक पढ़ने-लिखने की ओर प्रवृत्त हुए, एक नया माहौल बनने लगा।...
[क्रमशः]
2 टिप्पणियां:
उस समय की कल्पना करके ही मन रोमांच से भर उठता है...आगे की पोस्ट का इंतजार रहेगा। सादर।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-11-2017) को "लगता है सरदी आ गयी" (चर्चा अंक-2797) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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