इन्द्रलोक-सा गोवा : जितना भव्य, उतना ही मदहोश...(2)
पर्णकुटी में पहली रात गहरी नींद सोया, लेकिन गहरी नींद को अर्धतंद्रा में बदलती रही एक विचित्र प्रकार के कंपन की अनुभूति। ऐसी प्रतीति होती रही जैसे धरती रह-रहकर काँप जाती है। यह अजीब-सा अहसास था। एक करवट बदलने भर की अर्धतंद्रा और फिर गहरी नींद में गाफ़िल होती रही चेतना! दूसरे दिन दल के अन्य सदस्यों से भी मैंने इस अनुभूति के विषय में जिज्ञासा की। सबने मेरे अनुभव की तस्दीक की, लेकिन श्रीमतीजी का मुझे पुरज़ोर समर्थन मिला। मुझे लगता है, उद्विग्न और उद्वेलित समुद्र की लहरों का भूमि-तट पर सिर पटकना ही इसका मूल कारण रहा होगा। समुद्र के इतने करीब सोने का जीवन में कभी अवसर भी तो नहीं मिला था न!
सुबह 6.30 पर हम सूर्योदय-दर्शन के लिए समुद्र तट पहुँच गये। वहाँ का अद्भुत नज़ारा था। तट पर सैलानियों की संख्या कम थी, लेकिन कई जत्थे भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यायाम, ध्यान-साधन, दौड़ते-भागते और पद-यात्रा करते दिखे।
फ्लैट के बंद प्रकोष्ठ में जीवन जीनेवाले मुझ खाकसार को खुला, भीगा और बालुका-राशि से पटा विस्तृत भू-भाग मिला, समुद्र के ऊपर नीलाभ वितत व्योम दिखा और चंचल मदहोश कर देनेवाली स्वच्छ हवाएँ तरंगित मिलीं; मन-मयूर नाच उठा। एक बुजुर्ग विदेशी मेहमान को समुद्र में आती-जाती लहरों के ठीक किनारे दौड़ता देख अतिउत्साह में मै भी अपनी चप्पलें फेंक दौड़ चला। लेकिन एक लम्बी दौड़ के बाद कलेजा मुँह को आने लगा, दम फूलने लगा। थोड़ी देर स्थिर रहकर मैंने दम साधा और फिर धीमी गति से चलता हुए वहाँ लौट आया, जहाँ मैं अपनी चप्पल छोड़ गया था, जिसके पास श्रीमतीजी छोटी बेटी के साथ ध्यान-साधना में निमग्न थीं। मैं वहीं एक शय्या पर विश्राम करने लगा। व्यायाम पूरा होते ही 8 बजे चाय आ गयी। श्रीमतीजी ने झोले से बिस्कुट और ड्राई फ्रूट्स निकाले और हम सबने चाय पी।
सुबह-सबेरे विदेशी स्त्री-पुरुष की एक टोली उत्साह, उमंग और उन्माद में उछल-कूद मचा रही थी। उनके साथ श्वान-समूह भी लगा हुआ था। थोड़ी देर तक उनकी निगहबानी के बाद ज्ञात हुआ कि वह टोली तट के आवारा कुत्तों को प्रतिदिन बिस्कुट खिलाती है। दूसरी टोली के सदस्य रेत के ऊँचे टीले पर कतार में बैठे बाबा रामदेव की शिक्षा का अनुपालन कर रहे थे। भ्रामरी क्रिया से उपजा गुंजार प्रतिध्वनित हो रहा था, जिसे सुनना प्रीतिकर लग रहा था। प्राणायाम करती एक टोली लगातार ठहाके लगा रही थी। ये सारी टोलियाँ विदेशी पर्यटकों की थीं।
9.30 पर मैं समुद्र में स्नान के लिए प्रविष्ट हुआ। समुद्र किसी को स्वीकार नहीं करता, बाहर धकेल देने की चेष्टा करता है। समुद्र की यह अनवरत चेष्टा मुझे अच्छी लगती है, नहीं भी। लेकिन हठी युवाओं का दल तो समुद्र में दूर तक धँसता चला जा रहा था। मैं न तो हठी और न ही युवा बचा रह गया था, लिहाज़ा, समुद्र में प्रायः दो बाँस अन्दर गया और लहरों के धक्के खाकर किनारे आ लगा। फिर विशाल समुद्र को प्रणाम कर तट पर आ गया। तब तक तट का नज़ारा बदल गया था। वहाँ भीड़ बढ़ गयी थी। सर्वत्र विदेशियों की भरमार थी। अर्धनग्न विदेशी स्त्री-पुरुष निर्विकार भाव से रेतीले तट पर कुछ चित, तो कुछ पट लेटकर सूर्य-किरणों की ऊष्मा ले रहे थे। वे तो सहज और निर्लिप्त-भावेन लेटे थे, मैं ही असहज हो रहा था। उधर दृष्टि डाली न जा रही थी। भारतीय युवकों के छोटे-छोटे दल भी थे, शोहदों की शोख़ियाँ भी थीं, किन्तु सभी अपने ही मोद में मग्न थे। कोई किसी को छेड़ नहीं रहा था, फ़ब्तियाँ नहीं कस रहा था, फिर भी चोरी-छुपे विदेशियों को घूरकर नयन-सुख तो पाता ही था। दृष्टि चंचला होती है। नयनचोर दृष्टि निंद्य-अनिंद्य का भेद नहीं करती, दोनों का दर्शन कर आनन्दित होती है।
उन जत्थों में अधिसंख्य तो आरोग्य-लाभ के लिए सूर्य की क्रमशः तीखी होती किरणों का सेवन कर रहे थे। उनकी हंस-सी श्वेत त्वचा को ऊष्मा की सेंक अपेक्षित थी। वे शरीर सेंककर लाल कर रहे थे और हम भारतीय छाया की शरण में सुख पा रहे थे। लम्बी चुटियावाले एक विदेशी महाप्रभु तो निर्वस्त्र ही समुद्र में गहरे जा धँसे। उनके साथ अप्सरा-सी एक सहचरी भी थीं। देवी-देव पर दृष्टि अकस्मात् जा पड़ी। क्षोभ हुआ। क्षोभ में भी सुख की अनुभूति का यह पहला अवसर था, नया स्वाद था इस सुख का। सुख-लाभ के बाद आत्मग्लानि भी हुई और ये सारी अनुभूतियाँ इतनी घुली-मिली थीं कि निश्चय करना कठिन हो गया कि किस अनुभूति का प्रभाव मन में ठहरा रहा।... हम भारतीयों के साथ कुछ समस्या है। हम में अत्याधुनिक बनने की तीव्र ललक और भीषण उत्कंठा तो है, लेकिन हमारे संस्कार हमारी गर्दन दबोचे रहते हैं। हमारा चिंतन हमें रोकता और सावधान करता है, लेेेकिन हम पाश्चचात्य जीवन-पद्धति की ओर हसरत-भरी निगाहों से देखते रहते हैं। उसका अंधानुकरण करते हैैं। लेकिन, सच तो यह कि हमारा कुछ हो न सका; हम न घर के रहे, न घाट के। हम अधकचरी मानसिकता के गड्डमड हुए लोग बनकर रह गये हैं...!
वैसे, तट पर कोमलांगियों, सुदर्शनाओं, अप्सराओं, सुरा-सुन्दरियों की कमी न थी। ऐसा लगने लगा कि मैं ग़लती से कहीं इन्द्रलोक में तो नहीं आ पहुँचा हूँ। लेकिन नये युग की अप्सराओं की कोमल उंगलियों में श्वेत संटिकाएं सुलग रही थीं और वे मुँह से उगल रही थीं धूम! यह छवि मेरी कल्पना के इन्द्रलोक से भिन्न थी।... बहरहाल, खारे जल से स्नान के बाद स्वच्छ-मृदु जल से पुनर्स्नान भी जरूरी था। अतः मैं अपनी पर्णकुटी में लौट आया। श्रीमतीजी और बिटिया ने देर तक जल-क्रीड़ा की और जब सभी तैयार हो गये तो हम उत्तर भारतीय भोज्य पदार्थों की तलाश में चले। संयोग से हमारे ठीक बगल वाले बीच (वेलेंकिनी रिसोर्ट) पर हमें स्वल्पाहार का उचित स्थान मिल ही गया। वहाँ आमिष भोज्य पदार्थों की तीखी गंध नहीं थी। मनोनुकूल नाश्ता पाकर हम तृप्त हुए। वहाँ स्वल्पाहार नहीं, भरपूर भोजन-सा (ब्रेंच) ही हो गया। फिर पूरा दिन बाज़ार में बीता। नये-नये परिधान खरीदे गये। छोटी बेटी की ज़िद पर मेरे लिए बारमूडा, टी-शर्ट, रंगीन गंजियाँ और टोपी खरीदी गयी। संज्ञा का तर्क था कि जिस प्रदेश में हूँ, वहीं का परिधान पहनूँ। वह देखना चाहती थीं कि मैं नये वेश में कैसा लगता हूँ। उनके तर्क को श्रीमतीजी और हाशिम भाई का समर्थन मिला। मैंने बहुमत की बात मान ली।...
गोवा की दोपहर बहुत गर्म थी। हमें अपने काॅटेज में लौटना पड़ा।... शाम तक वहीं विश्राम करने के बाद सूर्यास्त-दर्शन के लिए हम पुनः तट पर आ गये। शाम के वक़्त बीच पर हलचल बहुत थी। ढलती शाम के बाद रात गहराने लगी। हम रात्रि-भोजन के लिए रेतीला तट पकड़कर वेलेंकिनी रिसोर्ट के सामने पहुँचे और वहाँ एक शेड में पड़ी शय्या पर पसर गये। सागर उन्मत्त हो उठा था, उसका गर्जन-तर्जन सुनते हुए देर रात तक हम वहीं जमे रहे। वहाँ इतना सुख-आनन्द था कि मन में कविता उपजने लगी। मैंने समुद्र से अपने मोबाइल पर कहा--
"मित्र सागर !
तुम्हारे विस्तृत भीगे सैंकत श्वेत कणों पर
मैं छोड़ रहा पद-चिह्न...!
सागर के उन्मद ज्वार
तुम जब चाहो, मिटा जाना उन्हें...!
मैं लौटूंगा युग-युगान्तर बाद कभी
जाने कौन-सी मौजों पर होकर सवार।
यह यायावर, मतवाला मन
फिर जाने कब
डाले पग-फेरे इसी राह पर
रजत-कणों पर चलते-चलते..."
(क्रमशः)
पर्णकुटी में पहली रात गहरी नींद सोया, लेकिन गहरी नींद को अर्धतंद्रा में बदलती रही एक विचित्र प्रकार के कंपन की अनुभूति। ऐसी प्रतीति होती रही जैसे धरती रह-रहकर काँप जाती है। यह अजीब-सा अहसास था। एक करवट बदलने भर की अर्धतंद्रा और फिर गहरी नींद में गाफ़िल होती रही चेतना! दूसरे दिन दल के अन्य सदस्यों से भी मैंने इस अनुभूति के विषय में जिज्ञासा की। सबने मेरे अनुभव की तस्दीक की, लेकिन श्रीमतीजी का मुझे पुरज़ोर समर्थन मिला। मुझे लगता है, उद्विग्न और उद्वेलित समुद्र की लहरों का भूमि-तट पर सिर पटकना ही इसका मूल कारण रहा होगा। समुद्र के इतने करीब सोने का जीवन में कभी अवसर भी तो नहीं मिला था न!
सुबह 6.30 पर हम सूर्योदय-दर्शन के लिए समुद्र तट पहुँच गये। वहाँ का अद्भुत नज़ारा था। तट पर सैलानियों की संख्या कम थी, लेकिन कई जत्थे भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यायाम, ध्यान-साधन, दौड़ते-भागते और पद-यात्रा करते दिखे।
फ्लैट के बंद प्रकोष्ठ में जीवन जीनेवाले मुझ खाकसार को खुला, भीगा और बालुका-राशि से पटा विस्तृत भू-भाग मिला, समुद्र के ऊपर नीलाभ वितत व्योम दिखा और चंचल मदहोश कर देनेवाली स्वच्छ हवाएँ तरंगित मिलीं; मन-मयूर नाच उठा। एक बुजुर्ग विदेशी मेहमान को समुद्र में आती-जाती लहरों के ठीक किनारे दौड़ता देख अतिउत्साह में मै भी अपनी चप्पलें फेंक दौड़ चला। लेकिन एक लम्बी दौड़ के बाद कलेजा मुँह को आने लगा, दम फूलने लगा। थोड़ी देर स्थिर रहकर मैंने दम साधा और फिर धीमी गति से चलता हुए वहाँ लौट आया, जहाँ मैं अपनी चप्पल छोड़ गया था, जिसके पास श्रीमतीजी छोटी बेटी के साथ ध्यान-साधना में निमग्न थीं। मैं वहीं एक शय्या पर विश्राम करने लगा। व्यायाम पूरा होते ही 8 बजे चाय आ गयी। श्रीमतीजी ने झोले से बिस्कुट और ड्राई फ्रूट्स निकाले और हम सबने चाय पी।
सुबह-सबेरे विदेशी स्त्री-पुरुष की एक टोली उत्साह, उमंग और उन्माद में उछल-कूद मचा रही थी। उनके साथ श्वान-समूह भी लगा हुआ था। थोड़ी देर तक उनकी निगहबानी के बाद ज्ञात हुआ कि वह टोली तट के आवारा कुत्तों को प्रतिदिन बिस्कुट खिलाती है। दूसरी टोली के सदस्य रेत के ऊँचे टीले पर कतार में बैठे बाबा रामदेव की शिक्षा का अनुपालन कर रहे थे। भ्रामरी क्रिया से उपजा गुंजार प्रतिध्वनित हो रहा था, जिसे सुनना प्रीतिकर लग रहा था। प्राणायाम करती एक टोली लगातार ठहाके लगा रही थी। ये सारी टोलियाँ विदेशी पर्यटकों की थीं।
9.30 पर मैं समुद्र में स्नान के लिए प्रविष्ट हुआ। समुद्र किसी को स्वीकार नहीं करता, बाहर धकेल देने की चेष्टा करता है। समुद्र की यह अनवरत चेष्टा मुझे अच्छी लगती है, नहीं भी। लेकिन हठी युवाओं का दल तो समुद्र में दूर तक धँसता चला जा रहा था। मैं न तो हठी और न ही युवा बचा रह गया था, लिहाज़ा, समुद्र में प्रायः दो बाँस अन्दर गया और लहरों के धक्के खाकर किनारे आ लगा। फिर विशाल समुद्र को प्रणाम कर तट पर आ गया। तब तक तट का नज़ारा बदल गया था। वहाँ भीड़ बढ़ गयी थी। सर्वत्र विदेशियों की भरमार थी। अर्धनग्न विदेशी स्त्री-पुरुष निर्विकार भाव से रेतीले तट पर कुछ चित, तो कुछ पट लेटकर सूर्य-किरणों की ऊष्मा ले रहे थे। वे तो सहज और निर्लिप्त-भावेन लेटे थे, मैं ही असहज हो रहा था। उधर दृष्टि डाली न जा रही थी। भारतीय युवकों के छोटे-छोटे दल भी थे, शोहदों की शोख़ियाँ भी थीं, किन्तु सभी अपने ही मोद में मग्न थे। कोई किसी को छेड़ नहीं रहा था, फ़ब्तियाँ नहीं कस रहा था, फिर भी चोरी-छुपे विदेशियों को घूरकर नयन-सुख तो पाता ही था। दृष्टि चंचला होती है। नयनचोर दृष्टि निंद्य-अनिंद्य का भेद नहीं करती, दोनों का दर्शन कर आनन्दित होती है।
उन जत्थों में अधिसंख्य तो आरोग्य-लाभ के लिए सूर्य की क्रमशः तीखी होती किरणों का सेवन कर रहे थे। उनकी हंस-सी श्वेत त्वचा को ऊष्मा की सेंक अपेक्षित थी। वे शरीर सेंककर लाल कर रहे थे और हम भारतीय छाया की शरण में सुख पा रहे थे। लम्बी चुटियावाले एक विदेशी महाप्रभु तो निर्वस्त्र ही समुद्र में गहरे जा धँसे। उनके साथ अप्सरा-सी एक सहचरी भी थीं। देवी-देव पर दृष्टि अकस्मात् जा पड़ी। क्षोभ हुआ। क्षोभ में भी सुख की अनुभूति का यह पहला अवसर था, नया स्वाद था इस सुख का। सुख-लाभ के बाद आत्मग्लानि भी हुई और ये सारी अनुभूतियाँ इतनी घुली-मिली थीं कि निश्चय करना कठिन हो गया कि किस अनुभूति का प्रभाव मन में ठहरा रहा।... हम भारतीयों के साथ कुछ समस्या है। हम में अत्याधुनिक बनने की तीव्र ललक और भीषण उत्कंठा तो है, लेकिन हमारे संस्कार हमारी गर्दन दबोचे रहते हैं। हमारा चिंतन हमें रोकता और सावधान करता है, लेेेकिन हम पाश्चचात्य जीवन-पद्धति की ओर हसरत-भरी निगाहों से देखते रहते हैं। उसका अंधानुकरण करते हैैं। लेकिन, सच तो यह कि हमारा कुछ हो न सका; हम न घर के रहे, न घाट के। हम अधकचरी मानसिकता के गड्डमड हुए लोग बनकर रह गये हैं...!
वैसे, तट पर कोमलांगियों, सुदर्शनाओं, अप्सराओं, सुरा-सुन्दरियों की कमी न थी। ऐसा लगने लगा कि मैं ग़लती से कहीं इन्द्रलोक में तो नहीं आ पहुँचा हूँ। लेकिन नये युग की अप्सराओं की कोमल उंगलियों में श्वेत संटिकाएं सुलग रही थीं और वे मुँह से उगल रही थीं धूम! यह छवि मेरी कल्पना के इन्द्रलोक से भिन्न थी।... बहरहाल, खारे जल से स्नान के बाद स्वच्छ-मृदु जल से पुनर्स्नान भी जरूरी था। अतः मैं अपनी पर्णकुटी में लौट आया। श्रीमतीजी और बिटिया ने देर तक जल-क्रीड़ा की और जब सभी तैयार हो गये तो हम उत्तर भारतीय भोज्य पदार्थों की तलाश में चले। संयोग से हमारे ठीक बगल वाले बीच (वेलेंकिनी रिसोर्ट) पर हमें स्वल्पाहार का उचित स्थान मिल ही गया। वहाँ आमिष भोज्य पदार्थों की तीखी गंध नहीं थी। मनोनुकूल नाश्ता पाकर हम तृप्त हुए। वहाँ स्वल्पाहार नहीं, भरपूर भोजन-सा (ब्रेंच) ही हो गया। फिर पूरा दिन बाज़ार में बीता। नये-नये परिधान खरीदे गये। छोटी बेटी की ज़िद पर मेरे लिए बारमूडा, टी-शर्ट, रंगीन गंजियाँ और टोपी खरीदी गयी। संज्ञा का तर्क था कि जिस प्रदेश में हूँ, वहीं का परिधान पहनूँ। वह देखना चाहती थीं कि मैं नये वेश में कैसा लगता हूँ। उनके तर्क को श्रीमतीजी और हाशिम भाई का समर्थन मिला। मैंने बहुमत की बात मान ली।...
गोवा की दोपहर बहुत गर्म थी। हमें अपने काॅटेज में लौटना पड़ा।... शाम तक वहीं विश्राम करने के बाद सूर्यास्त-दर्शन के लिए हम पुनः तट पर आ गये। शाम के वक़्त बीच पर हलचल बहुत थी। ढलती शाम के बाद रात गहराने लगी। हम रात्रि-भोजन के लिए रेतीला तट पकड़कर वेलेंकिनी रिसोर्ट के सामने पहुँचे और वहाँ एक शेड में पड़ी शय्या पर पसर गये। सागर उन्मत्त हो उठा था, उसका गर्जन-तर्जन सुनते हुए देर रात तक हम वहीं जमे रहे। वहाँ इतना सुख-आनन्द था कि मन में कविता उपजने लगी। मैंने समुद्र से अपने मोबाइल पर कहा--
"मित्र सागर !
तुम्हारे विस्तृत भीगे सैंकत श्वेत कणों पर
मैं छोड़ रहा पद-चिह्न...!
सागर के उन्मद ज्वार
तुम जब चाहो, मिटा जाना उन्हें...!
मैं लौटूंगा युग-युगान्तर बाद कभी
जाने कौन-सी मौजों पर होकर सवार।
यह यायावर, मतवाला मन
फिर जाने कब
डाले पग-फेरे इसी राह पर
रजत-कणों पर चलते-चलते..."
(क्रमशः)
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26.04.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2952 में दिया जाएगा
धन्यवाद
आभारी हूँ दिलबागजी!
खुबसुरत वर्णन और सुंदर चित्रण
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