न -अज़म
दोस्तों ने कहा--
'तुम बड़े कमनसीब हो यार',
उसने मान लिया था;
लेकिन एक ख्वाहिश जरूर थी
उसके मन में
कि वह अपनी मशक्कत से बदल देगा
अपना मुस्तकबिल;
मगर--
तेजरफ्तार जिंदगी में दौड़ते हुए
कई बार उसका कलेजा मुंह को आया था,
रगों में खून बेतरह दौड़ा था
और वह 'ग़ालिब' गुनगुनाता रहा था--
'रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल...'
दिल , देह और दिमाग की
बेपनाह मशक्कत के बावजूद
उसकी कमनसीबी में कमी न हुयी।
यार लोग फिर मिले,
उनका नया फतवा था--
'तुम बड़े सूरतहराम हो यार!'
यह सुनकर उसके वजूद को चोट लगी थी,
लेकिन उसने किसी तरह
मन को समझाया था--
ये सूरत खुदा की नेमत है;
इसमें छाँट-तराश मुमकिन नही,
तेल , फुलेल , क्रीम और कंघी से
इसे बदला नहीं जा सकता !
अब वह दोस्तों से किनारा करने लगा
उनके शातिराना अंदाजे गुफ्तगू से
उसे दहशत होने लगी थी,
उसे यकीन होने लगा था की
ये जिंदगी तनहा ही बसर हो--
यही मुनासिब होगा !
दोस्तों से उसकी किनाराकशी लम्बी न चली,
एक दिन पान की दुकान पर
वह फिर दोस्तों की गिरफ्त में आया,
दोस्त छीटाकशी से बाज़ न आए--
'बड़े कमज़र्फ़ हो दोस्त !'
यह बात उसे बेहद नागवार लगी।
उसकी पूरी शख्सियत पर
भद्दा सवाल थी यह बात,
उसे कायनात डोलती-सी लगी.....
जब तक मामला मुक़द्दर , सूरत, ज़ह्नीयत का था
गनीमत थी; लेकिन--
अब तो उसे ही तय करना था
कि वह इंसान भी है या नहीं !
वह अपना प्यारा शहर छोड़ आया था,
अपनी तलाश और पहचान के लिए....!
8 टिप्पणियां:
आनंद जी ,नमस्कार
आपकी नयी रचना हर बार की तरह लाजवाब व शानदार है ,साथ में ग़ालिब के ख्याल भी है ,सुन्दर भाव,
ज्योतिजी, आपकी प्रतिक्रिया से आश्वस्त हुआ कि इतना बेमानी नहीं था सीधे ब्लॉग पर रामधडाका लिख जाना. मन के तल पर जो भाव उपजे, वे निस्सार नहीं थे. आभारी हूँ.
शिवजी,
'माया की माया' सचमुच विलक्षण है. आपकी टिपण्णी बहुत खरी है. साधुवाद ! उत्तर प्रदेश की इस दुर्दशा पर गहरी नज़र रखिये, वरना लखनऊ तो समाधियों और स्मारकों की नगरी न बन जाये कहीं !
anand v.
नई कविता की शानदार बानगी....इतनी शानदार रचनायें ही रचनाकार को अग्रिम पंक्ति में खडा करतीं हैं.अपने होने का भरोसा, लेकिन उस भरोसे को कमज़ोर करते लोग, कमाल का असमंजस रचा है.बधाई. बहुत देर से टिप्पणी भेजने की कोशिश कर रही हूं, लेकिन टिप्पणी पोस्ट ही नहीं हो रही थी.
वंदनाजी,
आपकी प्रतिक्रिया से प्रभावित हुआ. लेकिन मैं किसी मुगालते में नहीं रहना चाहता. हृदय में उपजे कुछ भावों और अभावों को लेकर सीधे ब्लॉग पर ही यह कविता लिखी है; इसे प्रकाशित करते हुए यह शंका भी थी कि कहीं संप्रेषण शिथिल तो नहीं हो गया ? आपकी टिप्पणी से वह शंका अवश्य निर्मूल हुयी. धन्यवाद् दूं क्या ?
नहीं सम्प्रेषण तो शिथिल नहीं हुआ , लेकिन कल जिन ब्लौगों पर एम्बेडेड टिप्पणी की व्यवस्था थी वे ज़रूर प्रभावित हुए, क्योंकि उन सभी ब्लौगों पर टिप्पणी पोस्ट ही नहीं हो रही थी.
बहुत बढ़िया...
बेहतरीन अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल
दिल से निकली, दिल में उतर गई...
पहली बार आना हुआ,
जारी रहेगा सिलसिला
शुक्रिया
good
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