{सौवीं प्रविष्टि}
उपनगरों के देवता !
महानगर के कुम्भकर्ण की आँखों में
अब तुम भी जीने लगे हो !
शहर के कुछ आवारा छोकरों ने
शुरू कर दिया है
तुम्हें ब्लैकमेल करना,
पान की गुमटियों पर खड़े होकर
सीटियाँ बजाने में,
फब्तियां कसने में,
किसी नवयौवना को
नगरवधू की संज्ञाएं देकर पुकारने में
तुम ज़िन्दगी का चाहे जितना मज़ा लो,
इस यात्रा तुम खो गए हो--
यह निश्चित है !
भाग-दौड़ की इस कविता में
एक दशाब्दी से मैं
खुद अपने आपको तलाश रहा हूँ;
लगता है,
बंद सीलन-भरे कमरे में
बूँद-बूँद कर मैं रीत गया हूँ,
अंधे उजड्ड मौसम-सा बीत गया हूँ !
प्रेम-संबंधों की शव-यात्रा में
मुझे शामिल मत करो
इस अहसान के बदले
मैं अपनी ज़िन्दगी की
तमाम जीवित संवेदनाएं
तुम्हें भेंट कर सकता हूँ;
लेकिन, इस उपलब्धि पर
तुम जश्न मत मनाना--
इस त्याग में भी
मेरा ही स्वार्थ होगा;
क्योंकि मैं--
भावनाओं के कमजोर आंसुओं में
एक मज़बूत इरादे को जन्म दे रहा हूँ !
जब तुमने मेरी छाया के कई टुकड़ों को
बहुत सारे आवारा नाम मत पुकारा था
और रेत की दीवार समझ
मेरी भावनाओं पर
अपने दिमागी बेहया खच्चरों को
दौडाया था--
मैं तब भी चुप था,
आज भी हूँ;
भाषा को उद्गारो का
आधार मान लिया है मैंने;
क्योंकि --
महानगर की इन काली छायाओं के बीच
अखंड मौन का एक कठिन व्रत लेकर
मैं दशाब्दी से खडा हूँ !!
14 टिप्पणियां:
देर रात गये{दो बजने जा रहे हैं} आँखों में बेनिंदी लिये इस कविता में ऐसा डूबा हूँ कि कवि के साथ-साथ मुझे भी बूँद-बूँद रीत जाने का आभास होने लगा है।
फिर सोचता हूँ कि कवि का रीतना कभी संभव होता है क्या? सोचता ये भी हूँ कि कवि जब मौन-व्रत धर ले तो कविता अनायास ही मुखर हो उठती है। नहीं...? जैसी कि ये कविता मुखर हो कर उस मौन को साकार कर रही है।
कवि कहा मौन होता है.. वो तो उस वक्त भी अपने मौन को जी रहा होता, उसे लिख रहा होता है.. जैसे आपने लिखा..
इस महानगर मे हम, हम नही रहते.. फ़िर एक दिन जब अपने आप से मुलाकात होती है तो प्रेम-संबंधों की शव-यात्राऎ भी याद आती है.. सीलन-भरे कमरे भी याद आते है और अखंड मौन का व्रत भी याद आता है..
भाग-दौड़ की इस कविता में
एक दशाब्दि से मैं
खुद अपने आपको तलाश रहा हूँ;
लगता है,
बंद सीलन-भरे कमरे में
बूँद-बूँद कर मैं रीत गया हूँ,
अंधे उजड्ड मौसम-सा बीत गया हूँ !
Behad shakshali abhiwyakti hai...baar,baar padhi yah rachna...ab ratke dhai baj rahe hain...aur mai Gautam ji se sahmat hun..
महानगर की इन काली छायाओं के बीच
अखंड मौन का एक कठिन व्रत लेकर
मैं दशाब्दी से खडा हूँ !
हम्म! सोच रहा हूँ कि क्या यही मौन है!!
100 वीं प्रविष्टि पर हार्दिक बधायी………………।सुन्दर प्रस्तुति………सोचने को मजबूर करती।
अपने लिए,,,,
अपने समाज के लिए,,,
अपने परिवेश के लिए,,,
शब्दों को नया जीवन प्रदान करता
maanav soch को andolit करता
कवि का मौन
नया prawaah le के aayegaa
aisaa vishwaas hai ....
महानगरों के कुम्भकरण , नगरवधू की संज्ञायें देने वाले निश्चित ही जिंदगी की यात्रा में कही खो गए हैं ...मगर कवि का अखंड मौन दिमागी बेहयाई पर कितना भारी है ...कविता से झलक ही रहा है ...
सौवी प्रविष्टि की हार्दिक बधाई ...!!
बंधुओं,
इस रचना पर आप सबों की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है ! आभारी हूँ ! प्रति-टिपण्णी में अपनी ही एक पुरानी कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ :
"सत्य समय का
बड़ा सबल होता है प्यारे !
वह एक-एक कर
अंतस की परतें खोलेगा !
तभी तो--
मौन मुखर होगा,
बोलेगा !!"
यह जानना भी मेरे लिए संतोषदायक है कि निशाचर मैं अकेला नहीं, लिखने-पढ़नेवाले अनेक लोग हैं (गौतम जी, क्षमाजी aadi) !
साभिवादन--आ.
बंधुओं,
इस रचना पर आप सबों की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है ! आभारी हूँ ! प्रति-टिपण्णी में अपनी ही एक पुरानी कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ :
"सत्य समय का
बड़ा सबल होता है प्यारे !
वह एक-एक कर
अंतस की परतें खोलेगा !
तभी तो--
मौन मुखर होगा,
बोलेगा !!"
यह जानना भी मेरे लिए संतोषदायक है कि निशाचर मैं अकेला नहीं, लिखने-पढ़नेवाले अनेक लोग हैं (गौतम जी, क्षमाजी aadi) !
साभिवादन--आ.
उपनगरों के देवता !
महानगर के कुम्भकर्ण की आँखों में
अब तुम भी जीने लगे हो !
कविता की शुरुआत ने ही झकझोर दिया! वैसे सच कहूं तो आपकी कविता पूरी तरह समझने के लिये, आत्मसात करने के लिये मैं उसे कम से कम चार बार पढती हूं, और हर बार किसी मूर्ख विद्यार्थी की तरह भौंचक रह जाती हूं. कितने आयाम, कितने अर्थ निकलते हैं हर बार.
ओह
उपनगरों के देवता !
पहला ही वाक्य मन मे कई नई विचार-लहरों को जन्म दे जाता है..क्या उपनगर भी बिना पृथक् देवताओं के नही रह सकते?..या उनका होना ही इस देवता को जन्म देना है..और महानगर की नजरों मे उसकी अनैच्छिक स्वीकार्यता भी..
कविता अपने प्रवाह के साथ सार्वत्रिक से वैयक्तिक होती जाती है..और इस तरह अपनी अबाध यात्रा के चिह्नों की छवि पर भी दृष्टिपात करती है..मगर जीवन की तमाम स्वार्थी और निर्मम चीजों के बीच उस अटल मौन का अकेले और मुखर विरोध मे खड़े होना और खड़े रहना बहुत आश्वस्ति दायक लगता है..यही चीजों को बदलने की दिशा मे पहली शुरुआत भी होती है..
पोस्टों के शतक की बधाई..आपके अविरल लेखन के लिये शुभकामनाओं सहित!
कविता पढ ली । कविता पर टिप्पणी करने में अक्षम महसूस कर रहा हूँ । ये जरूर लगता है कि कवि का मौन सृजन के बीज की तरह होता है । जिसमें चुपचाप कुछ कुछ अंकुरित होता रहता है ।
बधाई ओर शुभकामनाऍं ।
तमाम जीवित संवेदनाएं
तुम्हें भेंट कर सकता हूँ;
लेकिन, इस उपलब्धि पर
तुम जश्न मत मनाना--
इस त्याग में भी
मेरा ही स्वार्थ होगा;
bahut bada tathya!!!
Sir, apki rachnao par tippani karna hame apne saamarthya se baahar nazar aata hai..
आप सबों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ ! ''दशाब्दी के इस मौन" पर कई मुखर टिप्पणियों का ह्रदय से स्वागत है ! राजऋषिजी, पंकजजी, क्षमाजी, समीरजी, मुफलिसजी, वाणी गीतजी, अपूर्वजी, शर्माजी, अर्कजेशजी, आपकी उदार टिप्पणियों से प्रसन्न हूँ !
वंदनाजी, आपके दो शब्दों पर आपत्ति दर्ज करता हूँ--'मूर्ख' और 'विद्यार्थी' ('हर बार किसी मूर्ख विद्यार्थी की तरह भौंचक रह जाती हूं'), आप साहित्य की सजग सबल और (कथा-रचना में तो) सिद्ध अध्येता विदुषी हैं, भला आप 'मूर्ख विद्यार्थी' कैसे हो सकती हैं ? जहां तक मैं आपको जानता हूँ, वहाँ तक जाऊं तो बात बहुत लम्बी हो जायेगी... और आप जानती हैं कि मैं आपको कम नहीं जानता....
सबों को यथा-योग्य--आ.
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