[लीजिये साब, गायब आया ! कुछ विशाल ग्रंथों में उलझा था। कई सुलझे, कई सिर पर पड़े हैं अभी ! शोक का एक सन्देश क्या आया, मैं यहाँ चला आया ! पीड़ा ज्यादा तीव्रता से अभिव्यक्ति मांगती है शायद ! अपने गुरुदेव को श्रद्धांजलि देते हुए यह संस्मरण पोस्ट कर रहा हूँ, क्रमशः तीन-चार खण्डों में लिख सकूंगा। निवेदन है, इसे सुविधापूर्वक पढ़ जाएँ !--आनंद व0 ओझा]
संभवतः सन १९६३-६४ में मेरी माता ने समारोहपूर्वक मेरा यज्ञोपवीत संस्कार किया था। तब मैं १२-१३ वर्ष का बालक था। संस्कार के बाद संध्याकाल में नाते-रिश्तेदार, हित-मित्र और शुभेच्छुओं का आगमन हुआ था; उन्हीं में डॉ० वचनदेव कुमार के साथ डॉ० कुमार विमल भी मेरे घर पधारे थे। नवीन वस्त्र धारण कर मुंडित मस्तक मैंने सबों के चरण छू कर आशीर्वाद लिया था। जब पूज्य पिताजी (पं० प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') ने मुझसे कहा --'ये कुमार विमल हैं, प्रणाम करो', तभी मैंने उनका प्रथम दर्शन किया था--मंझोला कद, सुपुष्ट काया, गौर वर्ण, खड़ी नासिका, जिस पर बैठा चश्मा और पावरवाले चश्मे के शीशों से झांकती तेजस्वी आँखें तथा दुग्ध-धवल परिधान--धोती-कुर्ता ! वे उनकी युवावस्था के दिन थे-- यौवन की चमक के साथ उनका आकर्षक व्यक्तित्व भीड़ से उन्हें अलग करता था। बहुत ही शालीन शब्दों और मीठी आवाज़ में उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था, मुझसे बातें की थीं।
इसके बाद लंबा अरसा गुज़र गया। मैंने स्कूल की पढ़ाई पूरी की और पटना महाविद्यालय में पढ़ने गया, तो विमलजी से फिर मिलना हुआ। यह जानकार वह प्रसन्न हुए थे कि मैं अब उनका छात्र बन गाया हूँ। महाविद्यालय में जब कभी एकांत में वह मुझे मिल जाते, पिताजी का कुशल-क्षेम अवश्य पूछते। उनके मन में पिताजी के लिए बहुत आदर था. वह पिताजी को 'गुरुदेव' कहते, और अब मैं उन्हें 'गुरुदेव' कहने लगा था. वाणिज्य का विद्यार्थी होते हुए भी मेरी हिंदी में गहरी रुचि और गति थी। विमलजी के मार्गदर्शन में यह रुचि और परिष्कृत हुई। वह मुझे देशी और विदेशी साहित्य में भी क्या-कुछ लिखा जा रहा है तथा क्या पढने योग्य है, बतलाते। कभी-कभी अपनी लायब्रेरी से पुस्तकें भी लाकर पढने को देते, जिन्हें लौटाने मैं उनके सैदपुर वाले किराए के मकान पर भी जाता। मुझे ऐसे एक भी अवसर का स्मरण नहीं, जब उन्होंने मुझे चाय-नाश्ते के बिना घर से विदा किया हो। लेकिन उनकी बैठक का अजीब हाल हमेशा रहा। वहाँ आगंतुकों के बैठने के लिए स्थान का नितांत अभाव रहता था। बैठक के बड़े-से कक्ष में विराजमान रहती थीं--एकरंगे कपडे में लिपटी-बंधी पोटलियाँ, फाईलों के गट्ठर और पुस्तकों के बण्डल। किराए के मकान में वह ज़मीन पर ही आसन डालकर बैठते थे और लिखने के लिए डेस्क का इस्तेमाल करते थे। मुलाकाती संभ्रम में पडा रहता कि कहाँ बैठूं ? पटना के कंकड़बाग वाले निजी भवन में स्थापित होने के बाद भी विमलजी के ड्राइंगरूम का यही हाल रहा। फर्क सिर्फ इतना हुआ कि कक्ष के एक कोने में अपेक्षाकृत एक छोटी मेज़ और कुर्सी रख दी गई थी और एक मात्र कुर्सी किसी मुलाकाती के लिए; जिस पर वह किसी तरह बैठ तो जाता, लेकिन अधिक स्वतन्त्रता नहीं ले सकता था; क्योंकि उसे तीन तरफ से किताबें, फाइलें और पांडुलिपियों के गट्ठर घेरे रहते ।
विमलजी शालीन और विनम्र व्यक्ति थे और बातें पूरी गंभीरता से करते थे। वह अल्प-भाषी तो नहीं थे, लेकिन जितना वह स्वयं बोलते थे, उससे बहुत ज्यादा उनकी प्रभापूर्ण आँखें बोलती थीं... ।
[शेषांश अगले अंक में]
यादों के आईने में डॉ० कुमार विमल
२६-११-२०११ की शाम एक मित्र ने पटना से फ़ोन पर सूचना दी कि हिंदी के वरेण्य रचनाकार, छायावादी सौंदर्यशास्त्र के अन्वेषक, साहित्य-संस्कृति के उन्नायक तथा प्रख्यात शिक्षाविद डॉ० कुमार विमल का निधन हो गया। विमलजी के दिवंगत होने की सूचना ने मुझे मर्माहत किया। वह ८६ वर्ष की दहलीज़ पार कर गए थे शायद ! सन १९७१ से ७३ तक पटना महाविद्यालय (पटना वि० वि०) में वह मेरे हिंदी प्राध्यापक थे ! लेकिन उनसे मेरा परिचय पुराना था। जगत-सागर को अपनी प्रभा-मेधा से तरंगित-उद्वेलित कर वह भी उसे लांघ गए हैं। मित्र से मिली इस मर्मवेधी सूचना के बाद से लगातार उनका दीप्त मुख-मंडल मेरी स्मृति में उभरता है और मैं विचलित होता हूँ......संभवतः सन १९६३-६४ में मेरी माता ने समारोहपूर्वक मेरा यज्ञोपवीत संस्कार किया था। तब मैं १२-१३ वर्ष का बालक था। संस्कार के बाद संध्याकाल में नाते-रिश्तेदार, हित-मित्र और शुभेच्छुओं का आगमन हुआ था; उन्हीं में डॉ० वचनदेव कुमार के साथ डॉ० कुमार विमल भी मेरे घर पधारे थे। नवीन वस्त्र धारण कर मुंडित मस्तक मैंने सबों के चरण छू कर आशीर्वाद लिया था। जब पूज्य पिताजी (पं० प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') ने मुझसे कहा --'ये कुमार विमल हैं, प्रणाम करो', तभी मैंने उनका प्रथम दर्शन किया था--मंझोला कद, सुपुष्ट काया, गौर वर्ण, खड़ी नासिका, जिस पर बैठा चश्मा और पावरवाले चश्मे के शीशों से झांकती तेजस्वी आँखें तथा दुग्ध-धवल परिधान--धोती-कुर्ता ! वे उनकी युवावस्था के दिन थे-- यौवन की चमक के साथ उनका आकर्षक व्यक्तित्व भीड़ से उन्हें अलग करता था। बहुत ही शालीन शब्दों और मीठी आवाज़ में उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था, मुझसे बातें की थीं।
इसके बाद लंबा अरसा गुज़र गया। मैंने स्कूल की पढ़ाई पूरी की और पटना महाविद्यालय में पढ़ने गया, तो विमलजी से फिर मिलना हुआ। यह जानकार वह प्रसन्न हुए थे कि मैं अब उनका छात्र बन गाया हूँ। महाविद्यालय में जब कभी एकांत में वह मुझे मिल जाते, पिताजी का कुशल-क्षेम अवश्य पूछते। उनके मन में पिताजी के लिए बहुत आदर था. वह पिताजी को 'गुरुदेव' कहते, और अब मैं उन्हें 'गुरुदेव' कहने लगा था. वाणिज्य का विद्यार्थी होते हुए भी मेरी हिंदी में गहरी रुचि और गति थी। विमलजी के मार्गदर्शन में यह रुचि और परिष्कृत हुई। वह मुझे देशी और विदेशी साहित्य में भी क्या-कुछ लिखा जा रहा है तथा क्या पढने योग्य है, बतलाते। कभी-कभी अपनी लायब्रेरी से पुस्तकें भी लाकर पढने को देते, जिन्हें लौटाने मैं उनके सैदपुर वाले किराए के मकान पर भी जाता। मुझे ऐसे एक भी अवसर का स्मरण नहीं, जब उन्होंने मुझे चाय-नाश्ते के बिना घर से विदा किया हो। लेकिन उनकी बैठक का अजीब हाल हमेशा रहा। वहाँ आगंतुकों के बैठने के लिए स्थान का नितांत अभाव रहता था। बैठक के बड़े-से कक्ष में विराजमान रहती थीं--एकरंगे कपडे में लिपटी-बंधी पोटलियाँ, फाईलों के गट्ठर और पुस्तकों के बण्डल। किराए के मकान में वह ज़मीन पर ही आसन डालकर बैठते थे और लिखने के लिए डेस्क का इस्तेमाल करते थे। मुलाकाती संभ्रम में पडा रहता कि कहाँ बैठूं ? पटना के कंकड़बाग वाले निजी भवन में स्थापित होने के बाद भी विमलजी के ड्राइंगरूम का यही हाल रहा। फर्क सिर्फ इतना हुआ कि कक्ष के एक कोने में अपेक्षाकृत एक छोटी मेज़ और कुर्सी रख दी गई थी और एक मात्र कुर्सी किसी मुलाकाती के लिए; जिस पर वह किसी तरह बैठ तो जाता, लेकिन अधिक स्वतन्त्रता नहीं ले सकता था; क्योंकि उसे तीन तरफ से किताबें, फाइलें और पांडुलिपियों के गट्ठर घेरे रहते ।
विमलजी शालीन और विनम्र व्यक्ति थे और बातें पूरी गंभीरता से करते थे। वह अल्प-भाषी तो नहीं थे, लेकिन जितना वह स्वयं बोलते थे, उससे बहुत ज्यादा उनकी प्रभापूर्ण आँखें बोलती थीं... ।
[शेषांश अगले अंक में]
4 टिप्पणियां:
विमल जी को आपके द्वारा प्रस्तुत विनम्र श्रद्धांजली पढ़ी। इसमे काफी ज्ञानवर्धक बातों की जानकारी भी मिली।
Bahut rochak aalekh!
...अकले अंकों की प्रतीक्षा रहेगी।
अगले अंकों को पढ़ने की इच्छा बलवती हो गई
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