[गतांक से आगे]
मेरे परिवार में उत्सव-उल्लास का कोई अवसर रहा हो या शोक का, विमलजी हर अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते रहे--स्वयं उपस्थित होकर अथवा पत्र भेजकर। वह सेवा-निवृत्त हो चुके थे और ह्रदय का एक आघात झेलकर कृश और रुग्ण हो गए थे। मेरे पूज्य पिताजी का निधन दिसंबर १९९५ में हुआ था। पहला शोक-संवेदना का जो पत्र मुझे मिला, वह विमलजी का था। घर के एक बड़े-बुजुर्ग की तरह धैर्य धारण करने की उन्होंने मुझे सलाह दी थी, हिम्मत बंधाई थी और यह भी लिखा था की 'मैं आपके लिए कुछ कर सकूँ, तो मुझे प्रसन्नता होगी--आप कुछ भी कहने में संकोच मत कीजिएगा। ' आत्यंतिक पीड़ा के उन क्षणों में विमलजी की वह आस्वस्ति, उनका वरद हस्त अपने सिर पर पाकर मुझे सचमुच राहत मिली थी।
सन २००६ के दिसंबर महीने में मैंने अपनी बड़ी बिटिया शैली का विवाह किया था। विवाह के ठीक एक दिन पहले सुबह-सुबह विमलजी मेरे घर पधारे। घर मेहमानों से भरा था, चहल-पहल थी, रौनक थी और मैं घर की छत पर व्यवस्था का निरीक्षण कर रहा था। विमलजी के आगमन की सूचना मुझ तक पहुँचने में थोड़ा वक़्त लगा और थोड़ा वक़्त सीढियां उतरकर नीचे आने में, तब तक विमलजी को बैठक में बिठा दिया गया था। मैंने उनके पास पहुंचकर प्रणाम निवेदित किया और किंचित विलम्ब के लिए क्षमा-याचना की। वह बहुत मीठा मुस्कुराये और बोले--"अच्छा हुआ, आपको आने में थोड़ी देर हुई, इस बीच मैंने भी बैठकर दम साध लिया है। आते ही आप सामने पड़ जाते, तो मेरे लिए कुछ बोल पाना भी कठिन होता। आज स्वास्थ्य अनुकूल नहीं है। " मैंने कहा--"गुरुदेव ! फिर आपने क्यों कष्ट किया? एक फ़ोन कर दिया होता तो मैं ही आपके पास पहुँच जाता।" उन्होंने कहा--"जानता हूँ, बुलाता तो आप आ ही जाते; लेकिन सोचा, आप व्यस्त होंगे और इस मौके पर तो मेरा ही आना बनता था। फिर आपका निमंत्रण-पत्र भी ऐसा था, जो मुझे आपके पास आने को विवश कर रहा था। " उन्होंने निमंत्रण-पत्र में छपी कविता और विभिन्न संस्कारों के लिए प्रयुक्त सार्थक और शुद्ध देशज शब्दों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा की और हद तो तब हो गई, जब उन्होंने इसी क्रम में कहा--"विवाह के मौसम में हर साल मेरे पास ढेरों आमंत्रण आते हैं, लेकिन इतना शुद्ध और एक-एक संस्कार का सर्वशुद्ध शब्द-प्रयोग मैंने आज तक नहीं देखा।" उनकी यह उक्ति सुनकर मैं गर्व-स्फीत हुआ था, लेकिन विमलजी की तीक्ष्ण दृष्टि, शुद्ध शब्द-प्रयोग और उसकी सार्थकता का आग्रह तथा छोटों की पीठ थपथपाने की उनकी सदाशयता ने मुझे विह्वल भी किया था।
मेरी श्रीमतीजी बड़ी बेटी के साथ आयीं। जब शैली ने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने हार्दिक आशीर्वाद देते हुए अपने जवाहर कोट से एक लिफाफा निकालकर उसे दिया और कहा--"इस लिफ़ाफ़े में सिर्फ रुपये नहीं, मेरा आशीष भी है, इसे रख लो।" उस दिन विमलजी बहुत प्रसन्न थे और करीब डेढ़-दो घंटे हमारे पास रहे थे। उन्होंने बहुतेरी बातें की थीं तथा वर और विवाह की व्यवस्था के बारे में पूछ-पूछकर सारी जानकारियाँ ली थीं। मेरे श्वसुर श्री आर० आर० अवस्थीजी उसी दिन पहली बार विमलजी से मिले थे. उन्होंने उनसे देर तक साहित्यिक वार्तालाप किया था। चाय के लिए मना करके उन्होंने छेने की मिठाई का एक टुकडा मुंह में रखा, जल पिया और हम सबों को आशीष देकर चले गए। मैं उनके स्नेह और सौजन्य को मन-ही-मन नमन करता रहा। ...
उसके बाद तीन वर्ष बीत गए। सन २००९ की गर्मी की छुट्टियों में मेरी श्रीमतीजी का स्थानान्तरण पटना से नोयडा हो गया। पटना में जमी-जमाई गृहस्थी छोड़कर हम नोयडा आ बसे। छोटी बेटी संज्ञा पहले से ही दिल्ली में कार्यरत थी। हम तीनो नोयडा में एकत्रित हुए।
२०१० के मार्च में एक दिन अचानक विमलजी का पटना से फ़ोन आया। उन्होंने देर तक बातें कीं। पिताजी, अज्ञेयजी, इलाजी को याद किया और कहा कि वह मुझसे मिलना चाहते हैं। यह मेरा अहोभाग्य था कि उन्होंने मुझे याद किया था, लेकिन मैंने उन्हें अपनी विवशता बताई और कहा कि मई में गर्मी की छुट्टियों के पहले पटना आ पाना संभव न हो सकेगा। उन्होंने कहा कि मई में जब मैं पटना आऊं तो उनसे अवश्य मिलूं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया। फिर अप्रैल २०१० में उन्होंने फोन करके मुझसे यह भी पूछा कि मैं मई की किस तारीख को पटना पहुँच रहा हूँ और पटना आने के लिए मैंने आरक्षण ले लिया है अथवा नहीं । मुझसे मिलने की विमलजी की ऐसी व्यग्रता और आकुलता क्यों थी, यह पहेली मैं समझ नहीं पा रहा था, लेकिन इतना तय था कि गुरुदेव सकारण ही व्यग्र थे। पटना पहुँचने में बस एक महीने का समय शेष था। मैने मन को संयत कर रखा था यह सोचकर कि यह पहेली तो अब पटना पहुंचकर ही सुलझनेवाली है । ...
[शेषांश अगली किस्त में]
मेरी श्रीमतीजी बड़ी बेटी के साथ आयीं। जब शैली ने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने हार्दिक आशीर्वाद देते हुए अपने जवाहर कोट से एक लिफाफा निकालकर उसे दिया और कहा--"इस लिफ़ाफ़े में सिर्फ रुपये नहीं, मेरा आशीष भी है, इसे रख लो।" उस दिन विमलजी बहुत प्रसन्न थे और करीब डेढ़-दो घंटे हमारे पास रहे थे। उन्होंने बहुतेरी बातें की थीं तथा वर और विवाह की व्यवस्था के बारे में पूछ-पूछकर सारी जानकारियाँ ली थीं। मेरे श्वसुर श्री आर० आर० अवस्थीजी उसी दिन पहली बार विमलजी से मिले थे. उन्होंने उनसे देर तक साहित्यिक वार्तालाप किया था। चाय के लिए मना करके उन्होंने छेने की मिठाई का एक टुकडा मुंह में रखा, जल पिया और हम सबों को आशीष देकर चले गए। मैं उनके स्नेह और सौजन्य को मन-ही-मन नमन करता रहा। ...
उसके बाद तीन वर्ष बीत गए। सन २००९ की गर्मी की छुट्टियों में मेरी श्रीमतीजी का स्थानान्तरण पटना से नोयडा हो गया। पटना में जमी-जमाई गृहस्थी छोड़कर हम नोयडा आ बसे। छोटी बेटी संज्ञा पहले से ही दिल्ली में कार्यरत थी। हम तीनो नोयडा में एकत्रित हुए।
२०१० के मार्च में एक दिन अचानक विमलजी का पटना से फ़ोन आया। उन्होंने देर तक बातें कीं। पिताजी, अज्ञेयजी, इलाजी को याद किया और कहा कि वह मुझसे मिलना चाहते हैं। यह मेरा अहोभाग्य था कि उन्होंने मुझे याद किया था, लेकिन मैंने उन्हें अपनी विवशता बताई और कहा कि मई में गर्मी की छुट्टियों के पहले पटना आ पाना संभव न हो सकेगा। उन्होंने कहा कि मई में जब मैं पटना आऊं तो उनसे अवश्य मिलूं। मैंने उन्हें आश्वस्त किया। फिर अप्रैल २०१० में उन्होंने फोन करके मुझसे यह भी पूछा कि मैं मई की किस तारीख को पटना पहुँच रहा हूँ और पटना आने के लिए मैंने आरक्षण ले लिया है अथवा नहीं । मुझसे मिलने की विमलजी की ऐसी व्यग्रता और आकुलता क्यों थी, यह पहेली मैं समझ नहीं पा रहा था, लेकिन इतना तय था कि गुरुदेव सकारण ही व्यग्र थे। पटना पहुँचने में बस एक महीने का समय शेष था। मैने मन को संयत कर रखा था यह सोचकर कि यह पहेली तो अब पटना पहुंचकर ही सुलझनेवाली है । ...
[शेषांश अगली किस्त में]
3 टिप्पणियां:
man ko chhoo gayi ,adbhut hai ye sab hamare liye ,kai mahino baad blog par aagman hua par vimal ji ke baare me padhkar man khush ho utha ,pranaam le mera .
हर खास मौके पर आपको गुरूजी का आशीर्वाद मिला।
मैं तो हतप्रभ हूं आप की लेखन शैली से
अंतिम वाक्य बहुत ख़राब लगता है क्योंकि उस के बाद केवल इन्तज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं रहता :)
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