[गतांक से आगे]
वाणिज्य के विद्यार्थी हिंदी की कक्षा को अथवा हिंदी विषय को कोई महत्व नहीं देते थे तथा कक्षा में शोर-गुल मचाते थे, लेकिन जब विमलजी हिंदी की कक्षा लेने आते, कक्षा अपेक्षया शांत हो जाती। मैं तो तन्मय होकर उनका पूरा व्याख्यान सुनता और नोट्स लेता। विमलजी को मैंने कभी क्रोधित होते या झुंझलाते नहीं देखा। शांत-संयत उनका व्याख्यान होता और सौम्य-मधुर स्वर ! अत्यंत प्रांजल भाषा में वह विषय का प्रवर्तन करते और पाठ के साथ छात्रों को ले चलते। भाषा-शैली पर उनका असाधारण अधिकार था । वक्तृता उनकी अनूठी थी। मैं अपनी कक्षा में हिंदी के पत्र में सर्वाधिक अंक (डिसटिंगशन ) प्राप्त करता था, जिससे विमलजी बहुत प्रसन्न होते। एक ऐसे ही मौके पर उन्होंने मुझसे कहा था--"आपने वाणिज्य विषय क्यों लिया, आपको तो हिंदी का विद्यार्थी होना चाहिए था।"
सन ११९७४ में स्नातक वाणिज्य (सम्मान) की उपाधि प्राप्त कर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला आया। फिर तो जैसे समय को पंख लग गए। मैंने नौकरियाँ कीं और शहर बदलता रहा। पटना (बिहार) से दूर मेरे दिन बीतते रहे। विमलजी से मिलना मुहाल हो गया... । पटना छोड़कर मैं एक बार जो प्रवासी बना, तो फिर ८ वर्षों तक प्रवासी ही बना रहा। सन १९८२ में जब पटना लौटा, तो यहाँ भी बहुत कुछ बादल चुका था। शहर की शक्ल बदली, यार- दोस्तों ने ठिकाना बदला, बूढ़े-बुजुर्गों ने जहां बदला... । फिर भी पटना की रवानी वैसी ही थी... जीवन अपनी गति से चल रहा था। ज्ञात हुआ, विमल जी विश्वविद्यालय से छूटकर राज्य सरकार के अनेक उच्च पदों पर आसीन हैं और कंकरबाग स्थित अपने निजी भवन में रहने लगे हैं ! यह संयोग ही था कि हम भी कंकरबाग वाले अपने मकान को किरायेदार से मुक्त करवाकर उसी में जा बसे थे। विमलजी के मकान से मेरे घर की दूरी अधिक न थी--दस मिनट की पद-यात्रा कर वहाँ पहुंचा जा सकता था, यह जानकार मुझे स्वभावतः प्रसन्नता हुई थी। मैं उत्सुकता और अधीरता में तत्काल उनके घर जा पहुंचा, लेकिन मिलना हो न सका। उनके घर का लौह-द्वार बंद था। घंटी बजाने पर सेवक ने द्वार की छोटी खिड़की खोली और बताया कि पूर्वानुमति के बिना मिलना हो न सकेगा ! मैं विस्मित हुआ और निराश लौट आया। यह सोचकर मैं हैरान था कि क्या विमलजी निकटस्थों के लिए भी अलभ्य हो गए हैं? कुछ ही दिनों में मैंने जान लिया कि उनकी कार्य-व्यस्तता इतनी बढ़ गई थी कि उनसे सहज ही मिल पाना असंभव हो गया था। फ़ोन पर पूर्वानुमति लेनी होगी। समस्या थी कि तब हमारे घर में दूरभाष कि सुविधा नहीं थी और तब तक सेल फ़ोन की ऐसी बाढ़ भी न आयी थी। जब कभी पिताजी को कुछ कहना-पूछना या आदेश देना होता, वह एक पत्र लिखकर मुझे देते और कहते--'विमलजी के घर इसे दे आओ।' मैं विमलजी के घर जाता और उनके द्वार पर पहुंचकर घंटी बजाता, जब उनका अनुचर बाहर आता, तो मैं उसे ही पत्र सौपकर लौट आता। सप्ताह-दस दिनों के बाद जब विमलजी का पत्र पिताजी के पास आता तो संभवतः उन्हें यथोचित उत्तर मिल जाता, उनकी जिज्ञासाएं शांत होतीं। प्रायः एक वर्ष तक यही सिलसिला चलता रहा और पटना पहुंचकर भी मैं विमलजी के दर्शनों से वंचित रहा। वैसे, सभा-समारोहों में उनका दूर-दर्शन तो हुआ, लेकिन आत्मीय सत्संग को मन व्याकुल बना रहा। सचमुच, उनसे मिलना असंभव की हद तक कठिन हो गया था। ....
[शेषांश अगली कड़ी में...]
सन ११९७४ में स्नातक वाणिज्य (सम्मान) की उपाधि प्राप्त कर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला आया। फिर तो जैसे समय को पंख लग गए। मैंने नौकरियाँ कीं और शहर बदलता रहा। पटना (बिहार) से दूर मेरे दिन बीतते रहे। विमलजी से मिलना मुहाल हो गया... । पटना छोड़कर मैं एक बार जो प्रवासी बना, तो फिर ८ वर्षों तक प्रवासी ही बना रहा। सन १९८२ में जब पटना लौटा, तो यहाँ भी बहुत कुछ बादल चुका था। शहर की शक्ल बदली, यार- दोस्तों ने ठिकाना बदला, बूढ़े-बुजुर्गों ने जहां बदला... । फिर भी पटना की रवानी वैसी ही थी... जीवन अपनी गति से चल रहा था। ज्ञात हुआ, विमल जी विश्वविद्यालय से छूटकर राज्य सरकार के अनेक उच्च पदों पर आसीन हैं और कंकरबाग स्थित अपने निजी भवन में रहने लगे हैं ! यह संयोग ही था कि हम भी कंकरबाग वाले अपने मकान को किरायेदार से मुक्त करवाकर उसी में जा बसे थे। विमलजी के मकान से मेरे घर की दूरी अधिक न थी--दस मिनट की पद-यात्रा कर वहाँ पहुंचा जा सकता था, यह जानकार मुझे स्वभावतः प्रसन्नता हुई थी। मैं उत्सुकता और अधीरता में तत्काल उनके घर जा पहुंचा, लेकिन मिलना हो न सका। उनके घर का लौह-द्वार बंद था। घंटी बजाने पर सेवक ने द्वार की छोटी खिड़की खोली और बताया कि पूर्वानुमति के बिना मिलना हो न सकेगा ! मैं विस्मित हुआ और निराश लौट आया। यह सोचकर मैं हैरान था कि क्या विमलजी निकटस्थों के लिए भी अलभ्य हो गए हैं? कुछ ही दिनों में मैंने जान लिया कि उनकी कार्य-व्यस्तता इतनी बढ़ गई थी कि उनसे सहज ही मिल पाना असंभव हो गया था। फ़ोन पर पूर्वानुमति लेनी होगी। समस्या थी कि तब हमारे घर में दूरभाष कि सुविधा नहीं थी और तब तक सेल फ़ोन की ऐसी बाढ़ भी न आयी थी। जब कभी पिताजी को कुछ कहना-पूछना या आदेश देना होता, वह एक पत्र लिखकर मुझे देते और कहते--'विमलजी के घर इसे दे आओ।' मैं विमलजी के घर जाता और उनके द्वार पर पहुंचकर घंटी बजाता, जब उनका अनुचर बाहर आता, तो मैं उसे ही पत्र सौपकर लौट आता। सप्ताह-दस दिनों के बाद जब विमलजी का पत्र पिताजी के पास आता तो संभवतः उन्हें यथोचित उत्तर मिल जाता, उनकी जिज्ञासाएं शांत होतीं। प्रायः एक वर्ष तक यही सिलसिला चलता रहा और पटना पहुंचकर भी मैं विमलजी के दर्शनों से वंचित रहा। वैसे, सभा-समारोहों में उनका दूर-दर्शन तो हुआ, लेकिन आत्मीय सत्संग को मन व्याकुल बना रहा। सचमुच, उनसे मिलना असंभव की हद तक कठिन हो गया था। ....
[शेषांश अगली कड़ी में...]
4 टिप्पणियां:
Achha lag raha hai ye sansmaran padhana!
बहुत मज़ा आ रहा है
यादें ही आदमी को नयी सीख देती हैं और जब यादें किसी अपने से जुड़ी हों तो और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं.... अच्छा संस्मरण .
शानदार संस्मरण।
"आपने वाणिज्य विषय क्यों लिया, आपको तो हिंदी का विद्यार्थी होना चाहिए था।"..इस प्रश्न ने मुझे भी हैरान किया है।
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