बुधवार, 25 जुलाई 2012

बात की औकात ...

बात औकात की नहीं,
बात हिम्मत की है,
साहस की है ;
लेकिन हाथों में पत्थर लिए लोग
पहले से तैयार दीखते हैं
और छाती ठोंककर पूछते हैं सवाल--
'इतना साहस कोई कैसे कर सकता है ?
समूचे तंत्र की शक्ल-सूरत बदलने का दम
कोई कैसे भर सकता है ?
कोई कैसे कर सकता है--
अनुचित को अनुचित कहने का साहस ??'

और अनुचित तो हर घाट पर बैठा है
त्रिपुंड धारण किये--
यह सिद्ध करता हुआ
कि वही सर्वथा उचित है.
पाक है, साफ़ है !
उचित बेचारा सहमा-सकुचाया हुआ
दरवाज़े के पल्ले की ओट में
दुबका खडा है --
इस प्रतीक्षा में
कि कब सारे बंद पल्ले खुलें
और उचित के सभी पक्षधर
मुट्ठियाँ भींचे और छाती ताने
बाहर निकल आयें--
अपनी आवाज़ बलंद करने के लिए,
अनीति का खुला और खुलता जा रहा
मुंह बंद करने के लिए !

न्याय और अन्याय का धर्मयुद्ध
हर युग में हुआ है--
इसकी परम्परा सनातन है;
लेकिन अनुचित को उचित कहने की
परिपाटी अधुनातन है !
आज की सुविधाभोगी दुनिया के लोग
अपना दामन बचाने के अभ्यासी हैं
और विधान को ही न्यायसंगत बतानेवाले लोग
अपनी समस्त चेतना से सियासी हैं !

फिर भी, उचित के पक्षधरों की
बहुत बड़ी जमात ने बंद पल्ले खोले थे,
उन्होंने मशालें और मोमबत्तियां जलाई थीं,
धरने दिए थे,
जुलूस निकाले थे
और तंत्र के पहरेदारों के दरवाजों पर
दी थी दस्तक !
ये गोलबंद हुए लोग
अनुचित को अनुचित कहने का
फिर करने लगे हैं साहस--
और एक समूची जमात उठ खड़ी हुई है
उन्हें उनकी औकात बताने के लिए ...
हाथों में पत्थर
और जिह्वा पर शोले लिए
वे अग्नि-वमन पर,
पत्थर चलाने पर उतर आये हैं
और सोचते हैं,
जब टूटेगा सर पर आसमां
तो क्या उसे छप्पर सभालेंगे ?
अरे, हम भी तैयार हैं,
उनकी जड़ें खंगालेंगे,
बाल की खालें निकालेंगे ?

लीजिये हुज़ूर,
बात तो हवा हुई,
अब दोनों पक्ष तैयार हैं--
दोनों की अपनी-अपनी शक्ति है
सामर्थ्य है;
लगता है,
राष्ट्र के पुनर्निर्माण की
बात करना ही व्यर्थ है !
मसले ऐसे उलझ गए हैं
कि समझ पाना मुश्किल है
कि कुल मिलाकर बात क्या रही ?
और--
बात की औकात क्या रही ??

5 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

उचित और अनुचित के पक्षधरों से अलग हट कर किनारे खड़ा व्यक्ति बात को उलझते देख ठगा सा महसूस करता है। क्योंकि वह भले शरीर या शब्द से न जुड़ा हो दिल से जुड़ा रहता है।

टंकण..

पहले पैरा का अंतिम शब्द...सहस।

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

लगता है,
राष्ट्र के पुनर्निर्माण की
बात करना ही व्यर्थ है !

बिलकुल सही है स्व के समक्ष राष्ट्र तो गौण हो गया है आज
हम इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि शायद राष्ट्र के अस्तित्व को ही भूल चुके हैं
शब्दों के सटीक चयन, और सादी भाषा में कही गई ये कविता बहुत प्रभावित करती है !!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

और अनुचित तो हर घाट पर बैठा है
त्रिपुंड धारण किये--
यह सिद्ध करता हुआ
कि वही सर्वथा उचित है.
पाक है, साफ़ है !
उचित बेचारा सहमा-सकुचाया हुआ
दरवाज़े के पल्ले की ओट में
दुबका खडा है --
सचमुच बहुत बुरी स्थिति है उचित की. लम्बी कविता, लेकिन प्रवाह कहीं टूटता नहीं. बहुत शानदार है.

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

देवेन्द्र जी,
टंकण के दोष पर दृष्टिपात करने के लिए आभारी हूँ !

दो अन्य टिप्पणीकारों को भी साधुवाद देता हूँ !!
--आ.

S.N SHUKLA ने कहा…

बहुत सुन्दर और सार्थक सृजन , बधाई.

कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी पधारें, प्रतीक्षा है आपकी .