प्रियवर, मेरी सीमाएं हैं
मैं परतें ज्यादा खोल नहीं सकता;
जिह्वा पर लगा हुआ पहरा,
इससे ज्यादा कुछ बोल नहीं सकता! प्रियवर...
बातें कड़वी लग सकती हैं
पर न्याय-तुला की और बात;
सच का पलड़ा ही झुकता है,
असत सत्य को तौल नहीं सकता! प्रियवर...
जो पंख लगाकर उड़ते हैं
अपने ही मन के आँगन में;
वे होंगे भू-लुंठित एक दिन,
यह परम सत्य, पर बोल नहीं सकता! प्रियवर...
कामनाएं रूप बदलती हैं
मन माया से संचालित है;
पर-दोष दिखाई देता जब,
कोई अंतर की गांठें खोल नहीं सकता! प्रियवर...
विश्वास छला जाता हो जब
भरोसा खंड-खंड हो बिखर रहा;
अवगुंठन से बाहर आकर--
कलुष ह्रदय सच बोल नहीं सकता! प्रियवर...
हर पीढ़ी की तरुणाई पर
धरती अंगड़ाई लेती है,
हिमशिला दाह से गलती, वरना
नदियों में नीर मृदुल भी डोल नहीं सकता! प्रियवर...
मन के सारे बंधन तोड़ो
काटो-काटो यह कुटिल जाल;
तुम बोल रहे तो हलचल है,
यह महामौन मुंह खोल नहीं सकता!
प्रियवर, मेरी सीमाएं हैं,
मैं परतें ज्यादा खोल नहीं सकता!!
8 टिप्पणियां:
मन के सारे बंधन तोड़ो
काटो-काटो यह कुटिल जाल;
तुम बोल रहे तो हलचल है,
यह महामौन मुंह खोल नहीं सकता!
प्रियवर, मेरी सीमाएं हैं,
मैं परतें ज्यादा खोल नहीं सकता!!
सत्य को उकेरती सुन्दर रचना
Bahut sundar kavita.
वाह बहुत खूब !
पृथ्वीराज कपूर - आवाज अलग, अंदाज अलग... - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत अच्छे
बहुत अच्छा और लयबद्ध लिखा है |
वे होंगे भू-लुंठित एक दिन,
यह परम सत्य, पर बोल नहीं सकता!
विशेष पसंद आई |
सादर
जो पंख लगाकर उड़ते हैं
अपने ही मन के आँगन में;
वे होंगे भू-लुंठित एक दिन,
यह परम सत्य, पर बोल नहीं सकता! प्रियवर.
सच है. आत्मकेन्द्रित व्यक्ति / संस्था या समाज का यही हश्र होता है. तमाम दिशाओं पर और तमाम उलटबांसी देखने/समझने के बाद भी जन-संकुल के मौन को मुखरित करती शानदार कविता. बधाई.
वंदना जी, किशोर चौधरी जी और शिवम् भाई,
आप तीनों बहुत दिनों बाद मेरे ब्लॉग पर दिखे, अच्छा लगा. शिवम् जी आपका इस पोस्ट की लिंक देना प्रीतिकर लगा. आभार !
--आ.
आकाशजी, मनु त्यागीजी और वंदना अ. दुबेजी,
आप सबों के प्रति आभारी हूँ !
--आ.
एक टिप्पणी भेजें