मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

यादों के आइने में कवि बच्चन...


[पांचवीं क़िस्त]

एक अवांतर कथा यहीं जोड़ देना चाहता हूँ। अपनी युवावस्था में पिताजी ने चाहे जितनी फ़िल्में देखी हों, मैंने बाल्यकाल से अपनी युवावस्था तक उनके साथ कोई फिल्म नहीं देखी। बाद के दिनों में पिताजी को फिल्मों से विराग हो गया था। जब मैं कौतूहल और जिज्ञासाओं से भरा चंचल बालक था, तब की याद है। पटना के गाँधी मैदान के पूर्वी छोर पर एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल में 'सम्पूर्ण रामायण' नामक चलचित्र का प्रदर्शन हो रहा था। घर की महिलाओं की इच्छा हुई कि यह फिल्म देखी जाए। पिताजी के सम्मुख अनुरोध रखा गया। उन्होंने बात मान ली और हम सभी कार में लदकर 'सम्पूर्ण रामायण' देखने गए। जब सिनेमा हॉल में प्रवेश की बारी आयी, पिताजी मेरा हाथ पकड़कर पीछे हट गए। घर के सब लोग हॉल में प्रविष्ट हो गए और मैं पिताजी के साथ एलिफिंस्टन के बाहर विचलित होता हुआ बादाम खाता रहा और पिताजी कोई पुस्तक पढ़ते रहे।
जब मैं 19-20 साल का था, तब अमिताभ भैया की फिल्म 'आनंद' का प्रदर्शन हुआ था। मुंबई से बच्चनजी का पत्र आया था। उन्होंने इस फिल्म की प्रशंसा करते हुए पिताजी को लिखा था--"मेरा अनुरोध है कि  अमिताभजी की यह फिल्म तुम  अवश्य देखो, इसमें उन्होंने सराहनीय अभिनय किया है।" 43 वर्षों की दीर्घ जीवनावधि में मैंने पिताजी के साथ एकमात्र जो फिल्म देखी है, वह है--'आनंद'। यह चलचित्र देखकर पिताजी बहुत प्रसन्न हुए थे और उन्होंने बच्चनजी को लंबा पत्र लिखा था, जिसमें अमित भैया के लिए बहुत-बहुत आशीर्वाद था। पिताजी के गुज़र जाने के बाद यह फिल्म जब कभी मैंने दूरदर्शन पर या अन्यत्र देखी, पिताजी की परोक्ष उपस्थिति के सिहरन देनेवाले और भावोद्वेलित करनेवाले एक विचित्र अहसास से भरा रहा। ....

एक बार पिताजी दिल्ली-प्रवास से लौटे तो बच्चनजी की दी हुई दो पुस्तकें साथ ले आये--एक मेरे लिए, दूसरी बड़ी दीदी के लिए। अपने संग्रह से बच्चनजी ने ये पुस्तकें हमें भेंट-स्वरूप भेजी थीं। जहां तक स्मरण है, मेरे लिए जो पुस्तक उन्होंने दी थी, वह दक्षिण भारतीय प्रसिद्ध लेखक जी0 शंकर स्वरूप की रचना थी-- 'ओट्ट्कुशल ' और दीदी के लिए 'गणदेवता' की प्रति थी। दोनों पुस्तकों पर बच्चनजी ने अपना आशीर्वाद भी हमें लिख भेजा था। मुझे जो पुस्तक उन्होंने दी थी, उसकी विशेषता यह थी कि उसके हर पृष्ठ पर बच्चनजी ने छोटे हर्फों में अपनी टिपण्णी, मंतव्य, रिमार्क और रेखांकन कर रखा था--पूरी पुस्तक बच्चनजी के अक्षरों से रँगी हुई थी। यह परिश्रम इस बात का द्योतक भी था कि  उन्होंने पुस्तक कितने मनोयोग से पढ़ी है। यह बच्चनजी की विशेषता थी। जो पुस्तक उन्हें रुचिकर प्रतीत होती, वह उनकी टिप्पणियों, अधोरेखाओं और आलोचनाओं-समालोचनाओं से रँग  जाती थी।

सन 1974 में हमलोग भी सपरिवार दिल्ली जा बसे थे। 1978 में मेरा विवाह दिल्ली से हुआ। वधू-स्वागत-समारोह में दिल्ली के वरिष्ठतम साहित्यकार पधारे थे। लेकिन उनमें बच्चनजी नहीं थे। दरअसल, बच्चनजी उन दिनों अस्वस्थ थे और अपने नहीं आने की सूचना देते हुए उन्होंने पहले ही साधिकार लिखा था कि "विवाहोपरांत आनंद-साधना आकर स्वयं मुझसे आशीर्वाद ले जाएँ।"  तब तक अमिताभ भैया की कई फिल्मों का प्रदर्शन हो चुका था और उन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली थी। बच्चनजी के घर की शक्ल-सूरत और विधि-व्यवस्था भी अब थोड़ी बदल गई थी।
[क्रमशः]

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