"रूह एक फ़ना हुई, उसके फ़साने रह गए,
पत्थरों की नोंक पर ही अब निशाने रह गए!
हम हुए बेदार बेहद, उनकी बला ठहरी रही,
अब तो ग़ैरत को मसलने के बहाने रह गए !
कैसे कहें अच्छा हुआ, या हुआ बेहद बुरा,
हमनशीनों के न अब ठौर-ओ-ठिकाने रह गए !
एक क़तरा आँख से था, जब टपकना चाहता,
ठहर जा कम्बख़त, तुझे किस्से सुनाने रह गए!
मौत से भी क्या भली कोई शै होती है जनाब,
ख़ाक हुए सब मसलहे, किस्से पुराने रह गए !
अब मोहब्ब्त की ज़मीं पर ये सफ़र मुश्किल हुआ,
मौसमों की मार के सहमे ज़माने रह गए !!
पत्थरों की नोंक पर ही अब निशाने रह गए!
हम हुए बेदार बेहद, उनकी बला ठहरी रही,
अब तो ग़ैरत को मसलने के बहाने रह गए !
कैसे कहें अच्छा हुआ, या हुआ बेहद बुरा,
हमनशीनों के न अब ठौर-ओ-ठिकाने रह गए !
एक क़तरा आँख से था, जब टपकना चाहता,
ठहर जा कम्बख़त, तुझे किस्से सुनाने रह गए!
मौत से भी क्या भली कोई शै होती है जनाब,
ख़ाक हुए सब मसलहे, किस्से पुराने रह गए !
अब मोहब्ब्त की ज़मीं पर ये सफ़र मुश्किल हुआ,
मौसमों की मार के सहमे ज़माने रह गए !!
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर.
मौत से भी क्या भली कोई शै होती है जनाब,
ख़ाक हुए सब मसलहे, किस्से पुराने रह गए !
...वाह...बहुत उम्दा ग़ज़ल...हरेक शेर दिल को छू गया...
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