[दूसरी क़िस्त]
सन १९७४ में भवानीप्रसादजी को दिल का प्राणघातक दौरा पड़ा था. तब वे एक कवि-सम्मलेन में शिरकत करने कानपुर गए थे. इस हृदयाघात से उनकी प्राण-रक्षा तो हुई, लेकिन उसके बाद वे अपना नहीं, पेसमेकर का जीवन जीते रहे. किन्तु, इस आघात का उनके मन-प्राण पर कोई आतंक नहीं था. उनकी मस्ती-प्रफुल्लता क्षीण नहीं हुई थी. देश-भर में उनकी दौड़ में कोई कमी नहीं आयी थी. काव्य-सम्मेलनों, साहित्यिक आयोजनों, व्याख्यान-समारोहों में वे सम्मिलित होते रहे, कविताएँ सुनाते रहे अपनी उसी जानी-पहचानी बेफिक्री के साथ...
सन १९७४ से पांच वर्षों के दिल्ली-प्रवास में भवानीप्रसादजी के अधिक निकट आने का सौभाग्य मुझे मिला था. इसी अवधि में (१९७७ में) मेरे विवाह के लिए सुयोग्य कन्या के प्रस्तावक बनकर भी वे मेरे घर पधारे थे, मध्य प्रदेश के अपने अनुज मित्र श्री आर. आर. अवस्थीजी के साथ, जो विधिवशात् आज मेरे पूज्य श्वसुरजी हैं. भवानीप्रसादजी जब भी घर आते, बैठक लम्बी खिंच जाती. बातें तो होतीं ही, कविताएँ ज्यादा होतीं. पिताजी अपने आसन पर बैठे सुपारी कतरते जाते और मिश्रजी की काव्य-सुधा का पान करते. काव्य-संगीत से घर का माहौल खुशनुमा हो जाता. एक घंटे बैठने की योजना तीन-चार घंटों तक चलती जाती अनवरत...!
सन १९७५ की बात है. दिल्ली में लक्ष्मीमल्ल सिंघवीजी की अध्यक्षता में दिनकर-जयंती समारोहपूर्वक मनाई गई थी. पूर्णतया स्वस्थ नहीं रहने पर भी भवानीप्रसादजी उस समारोह में उपस्थित हुए थे. पिताजी को भी उस अवसर पर बोलना था. पिताजी नहीं चाहते थे कि भवानी भाई बोलने का श्रम लें, लेकिन अध्यक्षजी ने उनके नाम की घोषणा कर दी, तो पिताजी ने उनसे धीमे-से कहा--'बैठकर बोलो और थोड़ा ही बोलना'. बैठकर बोलना तो उन्होंने स्वीकार कर लिया, लेकिन जब बोलने लगे तो स्वर और भावोद्वेग पर नियंत्रण न रख सके, भाव-विभोर हो गए और स्वर भी ऊर्ध्व हो गया. दिनकरजी के प्रति उनकी श्रद्धा-प्रीति थी ही ऐसी. यह उद्वेग उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं था, लेकिन उनका वह व्याख्यान श्रोताओं को भाव-विह्वल कर गया था. उनकी ऐसी भाव-भीनी भाषा थी, अनूठी शैली थी और ओजस्वी स्वर था कि श्रोतागण मुग्ध-मुदित हो उठे थे. उस स्वर का माधुर्य मेरे मन में आज तक वैसा ही बना हुआ है.
गांधीजी के बाद भवानीप्रसादजी सबसे अधिक प्रभावित लोकनायक जयप्रकाश नारायणजी से थे. उन्होंने बिहार आंदोलन के दौर में बढ़-चढ़कर सहयोग किया था. देश में आपातकाल लागू होने के बाद जिस तरह जयप्रकाशजी की गिरफ्तारी हुई थी, उससे सारा देश क्षुब्ध था. उन्हीं दिनों की बात है, एक मुलाक़ात में भवानीप्रसादजी ने पिताजी से कहा था--'आजकल मैं त्रिकाल-संध्या कर रहा हूँ.' सचमुच उनका मनोमंथन इतना प्रबल था कि वे प्रतिदिन तीन कविताएँ लिखकर अपनी आतंरिक वेदना और असह्य पीड़ा प्रकट किया करते थे. बाद में उन कविताओं का संकलन भी प्रकाशित हुआ था.
एक बार मैं पिताजी के साथ दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के परिसर में भवानीप्रसादजी के आवास पर पहुंचा. उनकी तबीयत ठीक नहीं थी. लेटे हुए थे. हमें उन्हीं के कक्ष में पहुंचा दिया गया. पिताजी को देखते ही वे उठकर खड़े होने की चेष्टा करने लगे. पिताजी ने उन्हें बलात लिटा दिया और कहा--'इस औपचारिकता की आवश्यकता नहीं, तुम लेटे रहो.' मैंने उनके पूज्य चरण छूकर आशीर्वाद पाया और उन्हीं की शय्या के पास एक कुर्सी पर बैठ गया. थोड़ी बातचीत के बाद उन्होंने सद्यःप्रकाशित अपनी एक पुस्तक सिरहाने से निकाली और बोले--'इसमें जयप्रकाशजी पर एक लम्बी कविता है, मैं सुनाता हूँ.' पिताजी ने कहा--'तुम रहने दो, मैं पढ़ लूंगा. तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है.' वह नहीं माने. धीमे स्वर में कविता-पाठ करने लगे. कविता पढ़ते हुए बार-बार उनका गला भर आता था. वे थोड़ा रुक-रुककर पंक्तियाँ पढ़ने लगे. फिर अचानक उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगा. वे अपने आंसू पोंछते जाते और कविता सुनाते जाते. उनकी यह विह्वलता, विकलता और वेदना की पराकाष्ठा देखकर मैं हतप्रभ था. सोच रहा था, क्या इतना बड़ा कवि अपनी अभिव्यक्तियों से इस हद तक संचालित हो सकता है कि वह विकल होकर रो पड़े? लेकिन भवानीप्रसादजी ऐसे ही कवि थे. जो भी लिखते, अंतर की गहराइयों से लिखते और उस अभियक्ति, उदगार की भाव-प्रवणता से दृढ़ता से बंधे रहते. उनकी सरलता, निश्छलता और भावुकता अप्रतिम थी. बहरहाल, वह पुस्तक उन्होंने पिताजी को उपहारस्वरूप दी थी, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है.
मुझे ऐसे ही एक अन्य अवसर का स्मरण है. पिताजी के आदेश पर मैं मिश्रजी के घर गया था. वे बड़ी आत्मीयता से मिले. मुझे अपने शयन-कक्ष में ले गए. चाय पिलाई और बातें कीं. फिर अपनी तकिया के नीचे से पीतवर्णी तीन-चार पृष्ठ निकाले, जिस पर मोती-से अक्षरों में उन्होंने कविताएँ लिख रखी थीं. मुझसे बोले--'ये कल की लिखी तीन कविताएँ हैं, मैं तुम्हें सुनाता हूँ.' मैंने प्रसन्नतापूर्वक सुनने की इच्छा व्यक्त की तो वे खुश हुए. वे तीनों कविताएँ बहुत मार्मिक थीं, जिन्हें सुनाते हुए रह-रहकर उनका गला रुंध जाता था, आँखें भर आती थीं. मैं उनकी इस मनोदशा का साक्षी बना उद्वेलित होता रहा. मेरा ध्यान कविता से थोडा हटकर उनकी आंदोलित कर देनेवाली अप्रतिम विकलता पर चला गया था. जैसे उन्होंने मेरे भटकाव को लक्ष्य कर लिया हो, हठात पूछा--'सुन रहे हो न?' मैंने अपने आपको समेटकर कहा--'जी हाँ!' उन्होंने कहा--'हाँ, ध्यान से सुनोगे, तभी कविता तुमसे कुछ कहेगी.' मैं उनका आशय समझ गया और ध्यानपूर्वक तीनों कविताएँ मैंने सुनीं. इन कविताओं में उनका रोष और तीखा व्यंग्य मुखर हुआ था. चलते वक़्त मैंने प्रणाम किया तो उनका बहुत सारा आशीर्वाद मुझे मिला. बस से घर की तरफ (मॉडल टाउन, दिल्ली) लौटते हुए उनकी कविता की प्रकाश-किरणें और उनका मनोद्वेग मेरे मन-मस्तिष्क पर छाया रहा और मुझे आश्चर्य है, उस प्रभाव की सघनता आज भी वैसी ही बनी हुई है...
(क्रमशः)
1 टिप्पणी:
शास्त्रीजी,
आभारी हूँ. अब ब्लॉग पर कम-से-कम एक आप तो हैं जो मेरे लिखे को पढते-सराहते हैं. लगता है, पुराने लोग ब्लॉग की गतिविधियों से दूर हो गए हैं. वैसे सच ये भी है कि मेरी दीर्घकालिक अनुपस्थिति से सबों से संपर्क छूट-सा गया है.
सदर--आ.
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