[समापन क़िस्त]
सन १९८१ में हम सभी दिल्ली छोड़ पटना लौट आये थे. दिल्ली छूटी तो मिश्रजी से गाहे-ब-गाहे सभा-सम्मेलनों में मिल पाना भी ख़त्म हो गया. एक कवि-सम्मलेन में सम्मिलित होने के लिए सन १९८३ में वे पटना आये थे. आयोजकों ने उन्हें राजस्थान होटल में ठहराया था. उन दिनों पिताजी अस्वस्थ थे. मैं उनके आदेश पर अपने पत्रकार मित्र कुमार दिनेशजी के साथ उनसे मिलने गया था. मिश्रजी बहुत आत्मीयता से मिले और मिलते ही पिताजी के स्वास्थ्य के बारे में पूछने लगे. मुझसे सारा हाल जानकार उन्होंने कहा था--'मुक्तजी से कह देना, कल सुबह उनसे मिलने आऊंगा.' वहाँ आयोजकों और मुलाकातियों की भीड़ थी. अधिक बातों के लिए अवकाश न था, फिर भी हमने लिखने-पढ़ने से संबंधित थोड़ी बातें कीं और सप्रणाम विदा होने लगे तो उन्होंने कविता की दो पंक्तियाँ सुनायीं--
जिस तरह हम बोलते हैं,
उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी
हमसे बड़ा तू दिख...!
होटल के कमरे से बाहर निकलकर सीढ़ियों पर ही दोनों पंक्तियाँ हमने एक कागज़ पर लिख लीं और लौट चले. 'हमसे बड़ा दिखने-बनने का उद्बोधन, आशीष या चुनौती' देती ये पंक्तियाँ अचंभित करती हैं. पीढ़ियां गुज़र जाएँगी, लेकिन कविता में बोलने की तरह लिखने का हुनर कोई और पैदा कर सकेगा, इसमें मुझे संदेह है. वह हुनर तो भवानीप्रसादजी के साथ ही चला गया....!
दूसरे दिन सुबह-सबेरे पिताजी बज़िद हो गए कि मैं उन्हें भवानीप्रसादजी के पास ले चलूँ. मैंने उनसे कहा भी कि तबीयत ठीक नहीं तो आप रहने दें, भवानीप्रसादजी ने तो कहा ही है कि वे आपसे मिलने आयेंगे. लेकिन वे नहीं माने. मैं उन्हें अपनी मोटरसाइकिल से होटल ले गया. होटल के कमरे का दरवाज़ा स्वयं भवानीप्रसादजी ने ही खोला और पिताजी को देखते ही उनसे लिपट गए, आनंदित होकर और हुलसकर मिले तथा कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने पहला वाक्य कहा--'मैं तो मिलने के लिए आने ही वाला था, आपने क्यों तकलीफ की?'
पिताजी बोले--'तुम दिल्ली से आ सकते हो, मैं अपने घर से भी यहाँ तक नहीं आ सकता?' फिर तो उनकी पिताजी से खूब बातें हुईं, देर दोपहर तक दोनों साथ रहे और मैं मूक श्रोता बना रहा. पिताजी से शाम के वक़्त कवि-सम्मलेन में न आने का आग्रह करते हुए उन्होंने सम्मलेन में सुनाई जानेवाली अपनी कविताएँ पिताजी को होटल में ही सुना दीं. उनके श्रीमुख से मुग्ध कर देनेवाली कविताएँ सुनना और वह साथ-संग ही अंतिम साथ-संग सिद्ध हुआ.
१९८४ में मैं सप्रयोजन उनके पितृगृह नरसिंहपुर भी गया था. तब भवानीप्रसादजी तो वहाँ नहीं थे, लेकिन उनके अनुज श्रीकेशवानन्दजी और परिवार के अन्य सदस्यों से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उस भूमि और उस चौखट को नमन किया था, जो मुझे मिश्रजी के घर में ले गई थी. उस भूमि पर विचरण करते हुए मैंने 'सतपुड़ा के घने जंगलों' का भी स्मरण किया था, जो मिश्रजी की कविता में अमर होकर 'ऊँघते-अनमने' खड़े हैं! केशवानन्दजी और उनका पूरा परिवार मुझसे बड़ी आत्मीयता से मिला था. भवानीप्रसादजी के पितृगृह की मधुर स्मृतियाँ सँजोकर मैं पटना लौट आया था.
प्रायः एक वर्ष बाद ६ फ़रवरी १९८५ को केशवानंदजी की कन्या का विवाह था. उसी में सम्मिलित होने भवानीप्रसादजी नरसिंहपुर गए थे. केशवानंदजी ने अवस्थी-परिवार को भी विवाह में सादर आमंत्रित किया था. मैं तो उसमें सम्मिलित नहीं हो सका था,लेकिन मेरी सहधर्मिणी की छोटी बहन कथा-लेखिका वंदना अवस्थी उसमें शामिल हुई थीं. भवानीप्रसादजी अपनी स्वाभाविक सहृदयता और आत्मीयता से उससे मिले थे. १९ फ़रवरी को वंदना का जो पत्र हमें पटना में मिला था, उसमें मिश्रजी और पूरे परिवार की हार्दिक प्रशंसा थी, विवाह के सानंद संपन्न होने का संवाद था. यह सुखद संवाद पाकर हम सभी प्रसन्न थे, किन्तु ठीक दूसरे दिन २० फ़रवरी १९८५ को भवानीप्रसादजी के अवसान का दुखद समाचार हमें एक गहरे आघात की तरह मिला. नियति की इस वंचना पर हम सभी स्तब्ध रह गए थे. मृत्यु बहुत दिनों से उनका पीछा कर रही थी. दिल के कई दौरे पड़ चुके थे, कुछ तो सांघातिक थे, लेकिन हर आघात से प्रभु-कृपा उनकी रक्षा कर लेती थी. इस बार मौत ने अचानक ही उन्हें अपने आगोश में ले लिया था।
शरीर तो मरणधर्मा है. वह 'गीतफ़रोश' भी चला गया. लेकिन भवानीप्रसादजी का यशःशरीर, उनका विपुल काव्य-साहित्य, हमारे बीच सदैव बना रहेगा और हमें अनुप्राणित करता रहेगा...!
2 टिप्पणियां:
ओह! यह अमूल्य संस्मरण कैसे छूट गया था मुझसे? तीनों किस्तें पढ़ने जा रहा हूँ।
भवानी प्रसाद मिश्र मेरे अत्यन्त प्रिय कवियों में हैं। इन संस्मरणों के लिए सदैव आभार।
शर्मिन्दा हूं, इतने विलम्ब से इतना महत्वपूर्ण संस्मरण पढने के लिये :( कैसा लिखा है, ये बताने की आवश्यकता ही नहीं. प्रणाम.
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