शनिवार, 21 जून 2014

मेरे पिता : साहित्याचार्य पं० चंद्रशेखर शास्त्री -- प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त'

[गतांक से आगे]

पिताजी कोई काम-धंधा, कोई रोजी-रोजगार नहीं करते थे। योगक्षेम राम-भरोसे चलता था, मगर ठाट से चलता था। बासुदेव बनिए, बफाति सब्जीवाले और पुनी अहीर की याद मुझे आज भी है, जिनके यहां से बरसों राशन-पानी, शाक-सब्ज़ी और दूध आता रहता था और तीन-चार बरसों के बाद जब अचानक किसी दिन पिताजी को सुध आती कि क़र्ज़ शायद बहुत ज्यादा हो गया है, तो कोई-न-कोई प्रकाशक, खुद-ब-खुद आकर और कोई अत्यंत साधारण-सी भी पुस्तक लिखने का आग्रह करके, क़र्ज़ की राशि से अधिक रुपये दे जाया करता था।
पिताजी असंग्रही थे। जीवन में उन्होंने कुछ जोड़ा नहीं--न धन, न धरती, न कुछ और; उलटे, जो पैतृक ज़मीन-जायदाद थी, उन्होंने वह भी छोड़ दी। उनके पास जुड़ीं तो सिर्फ पुस्तकें, और उनको भी उन्होंने स्वयं नहीं जोड़ा। जैसे नदियों का जल स्वतः-प्रवृत्त सागर के पास पहुंचता है, पुस्तकें वैसे ही, विभिन्न स्रोतों से, विभिन्न मार्गों से उनके पास आती रहती थीं।
पिताजी के पास एक और चीज जुड़ती थी--गोष्ठी। उनकी प्रातः-सांध्य साहित्यिक गोष्ठी इलाहाबाद में मशहूर थी। लोग उसे 'शास्त्रीजी का दरबार' कहते थे। उनमें स्थानीय विद्वज्जनों के अतिरिक्त देश के विभिन्न भागों से और यदा-कदा विदेशों से भी, आनेवाले मनीषियों का जमाव हुआ करता था। विदेशी गौरांगों का लाल चेहरा मुझे किसी हद तक आतंकित करता था और सुरक्षा की सहज भावना से मैं पिताजी के कुछ और निकट हो जाया करता था।
मेरी स्मृति में वह दुमंजिला मकान आज भी यथावत चित्रित है, जिसकी ऊपरी मंजिल के बड़े-से कमरे में में पिताजी का दरबार लगता था। एक बार मेरी माँ मेरे अन्य भाई-बहनों के साथ अपने मायके काशी चली गई थीं। पिताजी के साथ उस बड़े से मकान में केवल मैं ही रह गया था।
एक दिन, बहुत सबेरे, पिताजी घर की सफाई कर रहे थे। उन्होंने कमर में एक अंगौछा लपेट रखा था, शरीर का शेष भाग निर्वस्त्र था। मैं उनके पीछे-पीछे, सीढ़ियां उतरता, सड़क के मुख्या द्वार तक पहुँच गया था। कूड़ा बटोरकर पिताजी ने एक रद्दी कागज़ में रखा ही था कि दरवाज़े के ठीक सामने एक फिटन आकर खड़ी हुई और उस पर बैठे एक गौरांग व्यक्ति ने पिताजी से संस्कृत में कुछ पूछा। उन्होंने संस्कृत में ही उत्तर देकर उन्हें अपने पीछे आने का संकेत दिया। गौरांग-दर्शन से भयभीत मैं, पहले ही सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुँच गया था और बैठक के बगलवाले कमरे में छिपकर देखता रहा था कि क्या होनेवाला है। संस्कृत का बोध न होने पर भी उनकी चेष्टाओं और भाव-भंगिमाओं से इतना तो मैंने भांप ही लिया कि वह पिताजी से कुछ पूछ रहे हैं और उनके उत्तर से आश्वस्त न होकर उसे अस्वीकार कर रहे हैं। पिताजी उन्हें बैठने को कहकर दूसरे कमरे में चले गए और धोती-कुर्ता पहनकर अपनी गद्दी पर आ बैठे। किन्तु उस दिन पिताजी के पास जाने का साहस मैं नहीं जुटा पाया। छिपकर ही देर तक उनकी बातें सुनता रहा।
दूसरे दिन, प्रायः उसी समय, वह गौरांग सज्जन फिर पधारे और एक-डेढ़ घंटे की बातचीत के दौरान, मुझे लगा कि बीच-बीच में वह पिताजी से झगड़ते रहे। उस दिन उनके कंधे से काली और चौकोर, डिब्बे-जैसी, कोई चीज लटक रही थी, जिसे सहज कौतूहल से देखता मैं पिताजी के निकट पहुँच गया था।
कुछ बरसों बाद बातचीत के सिलसिले में, मैंने इस घटना का उल्लेख करते हुए पिताजी से पूछा था कि वह गौरांग व्यक्ति कौन थे और आपसे क्यों झगड़ रहे थे। पिताजी ने बताया कि वह जर्मनी के एक संस्कृत विद्वान थे और मेरी पत्रिका 'शारदा' के पाठक भी। भारत-भ्रमण के लिए आये तो मुझसे मिलने चले आये। मुझे उन्होंने जिस वेश में पहली बार देखा, मुझे घर का नौकर समझा था। फिर जब उन्हें मालूम हुआ कि वह जिससे मिलने आये हैं, वह मैं ही हूँ तो पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ था फिर वे आश्चर्यचकित रह गए थे।
दूसरे दिन वह कैमरा लेकर पिताजी का चित्र खींचने आये थे। पिताजी को चित्र खिंचवाने में सदा ही घोर आपत्ति रही थी। वस्तुतः जीवन में उनके कुल तीन चित्र खींचे जा सके थे औए वे भी ऐसी परिस्थितियों में, जिनमें अस्वीकृति संभव ही नहीं थी। जर्मन महोदय को उन्होंने किसी तरह चित्र खींचने की अनुमति नहीं दी थी।
जर्मनी लौटकर उन सज्जन ने एक जर्मन पत्रिका में पिताजी के सम्बन्ध में एक विस्तृत लेख लिखा था। लेख का मूल स्वर यह था कि "शास्त्रीजी को देखे बिना यह कल्पना नहीं कि जा सकती कि कोई इतना बड़ा विद्वान इतना सरल, निरभिमान और आडम्बरहीन हो सकता है। किसी विषय को समझने कि उनकी क्षमता अपूर्व है। संस्कृत-साहित्य के, विशेषतः पुराणों के, सम्बन्ध में मेरे मन में जो शंकाएं थीं, उनसे मिलने के बाद वे निर्मूल हो गई हैं।"
लेकिन इस विवरण की एक पूर्व-पीठिका है। पिताजी जब वाराणसी के क्वीन्स कॉलेज में पढ़ रहे थे और आचार्य के प्रथम खंड में थे तो वहाँ के प्रिसिपल डॉ. वेनिस ने एक आदेश जारी किया था! पिताजी को वह आदेश अनुचित और असम्मानजनक प्रतीत हुआ और न केवल उन्होंने स्वयं उसे अमान्य करने का निश्चय किया, बल्कि छात्रों का ऐसा जनमत तैयार किया कि सब ने उस आदेश को ठुकराने का निर्णय ले लिया! जब प्रिंसिपल को इस बात का पता चला, उन्होंने पिताजी को बुलाकर बहुत झिड़का और अंत में धमकी देते हुए कहा, "जानते हो, इसके लिए मैं तुम्हें कॉलेज से निकाल दे सकता हूँ!"
पिताजी ने शांतिपूर्वक प्रिंसिपल की बातें सुनीं और दृढ-संयत स्वर में कहा--"आपको केवल मुझे नहीं, सभी छात्रों को निकालना होगा; क्योंकि इस अनुचित और असम्मानपूर्ण आदेश को कोई छात्र स्वीकार नहीं करेगा!" कहकर, प्रिंसिपल की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बिना, पिताजी उनके कमरे से बाहर निकल आये।
दो-तीन दिन बाद डॉ. वेनिस ने फिर पिताजी को बुलवा भेजा। इस बार उनका रूप और स्वर, दोनों ही एकदम बदले हुए थे। वह बिलकुल मित्र-भाव से मिले। उन्होंने कहा--"मैंने अपने निर्णय पर फिर विचार किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि तुमलोगों को पसंद नहीं है तो मुझे अपना आदेश वापस ले लेना चाहिए।" फिर वह घर-परिवार की बातें करने लगे और अंत में उन्होंने पूछा कि "क्या वे दो-तीन जर्मन छात्रों को साहित्य और दर्शन पढ़ाना पसंद करेंगे। उनसे पैसे अच्छे मिल जाएंगे।"
डॉ. वेनिस की कृपा से पिताजी को तीन जर्मन छात्र मिल गए, जिन्होंने बड़ी रूचि और लगन के साथ विद्या अर्जित की। पिताजी कहते थे, वैसी सूझ-बूझवाले और कोने-अँतरे तक कुरेदकर विषय को समझने की इच्छा रखनेवाले विद्यार्थियों को पढ़ाने में आनंद आता था।
पढाई ख़त्म करके वे छात्र जर्मनी लौट गए थे और कालान्तर में जब इलाहाबाद से पिताजी ने संस्कृत की मासिक पत्रिका 'शारदा' निकाली थी, तो उनलोगों ने जर्मनी में उसके १४०० ग्राहक बनाये थे, जबकि सारे भारत में उसके कुल ३५० के लगभग ग्राहक थे। प्रथम विश्व-युद्ध आरम्भ होने पर, स्वभावतः 'शारदा' का प्रकाशन बंद हो गया था।

उन्हीं दिनों की एक और घटना याद आती है। सीतामऊ के महाराज (प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ. रघुवीर सिंह के पिता, जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा) एक बार तीर्थाटन करते हुए प्रयाग आये थे। एक दिन उनके सेक्रेटरी ने पिताजी के पास आकर कहा कि महाराज उनसे मिलना चाहते हैं। बारह वर्षों के श्रम से उन्होंने एक संस्कृत पुस्तक लिखी है।  वह पिताजी को उसे दिखाना और उनकी सम्मति प्राप्त करना चाहते हैं।
पिताजी ने उत्तर दिया--"तुम्हारे महाराज राजा हैं, इसलिए मैं उनसे मिलने नहीं जाऊंगा; लेकिन वे विद्या-व्यसनी हैं और इतनी दूर की यात्रा करके एक विद्या-व्यसनी से मिलने आये हैं तो मैं उनसे अवश्य मिलूंगा। "
अगले दिन ८ बजे सबेरे आने का वादा लेकर सेक्रेटरी चले गए।
पिताजी यथासमय महाराज के जॉर्ज टाउन स्थित निवास पर पहुंचे।  वहाँ कोठी के फाटक पर, एक संगीनधारी सिपाही पहरे पर तैनात था। एक अत्यंत साधारण वेश-भूषा के व्यक्ति को अंदर जाने का प्रयास करते देखकर उसने पिताजी को रोका।  पिताजी ने कहा कि उन्हें महाराज ने बुलवाया है तो उसने अविश्वास के साथ कहा, "महाराज अभी पूजा पर हैं, अभी किसी से नहीं मिल सकते।"

पिताजी ने उससे कहा कि वह महाराज को खबर तो करा दे, लेकिन उसने उद्दंडतापूर्वक कहा कि यह उसका काम नहीं है। पिताजी वापस लौट आये।
शाम को सेक्रेटरी महोदय फिर आये। किंचित उलाहने के, किन्तु अत्यंत विनयपूर्ण स्वर में, उन्होंने कहा--"आप सबेरे पधारे नहीं, महाराज आपकी प्रतीक्षा करते रहे।"
सेक्रेटरी की बात सुनकर पिताजी का ब्रह्मतेज जाग उठा।वह सेक्रेटरी पर बरस पड़े। सेक्रेटरी ने बहुत अनुनय-विनय की, कहा कि गलती हो गई, आप अभी मेरे साथ चलिए, या आज्ञा दीजिये तो मैं कल सबेरे स्वयं आकर आपको ले चलूँ; लेकिन पिताजी पर कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने कहा--"जहां से मैं अपमानित होकर लौटा हूँ, वहाँ फिर पाँव नहीं रख सकता। जाकर अपने राजा से कह दो कि उन्हें गरज हो तो खुद आएं।" सेक्रेटरी बेचारा दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ।
दूसरे दिन सबेरे सीतामऊ-नरेश ने यह साबित कर दिया कि वे केवल राजा ही नहीं, विद्वान भी हैं और विद्वान ब्राह्मण का सम्मान करना भी जानते हैं। इस बार सेक्रेटरी को साथ लेकर वह अवयं आये।
उस समय हमलोग जिस मकान में रहते थे, वह मुख्य सड़क से कुछ हटकर गली के अंदर था। सेक्रेटरी ने आकर महाराज के पधारने की सूचना दी। पिताजी ने कहला दिया कि इस समय उन्हें फुर्सत नहीं है, वे किसी से नहीं मिल सकेंगे।
महाराज लौट गए, लेकिन शाम को फिर आये। उनकी सज्जनता और विनम्रता ने शायद पिताजी के क्रोध को गला दिया था। इस बार वह स्वयं बाहर जाकर महाराज को आदरपूर्वक अपनी बैठक में ले आये। उनके बैठ जाने पर पिताजी ने कहा--"महाराज, आप राजा हैं, मैं दरिद्र ब्राह्मण हूँ। अब तक आपको 'सरकार हुज़ूर और अन्नदाता' कहनेवाले लोग ही मिले होंगे। एकमात्र चंद्रशेखर ही ऐसा व्यक्ति है, जो आपको बता सकता था कि दरवाज़े से लौटाए जाने पर किसी को कितना बुरा लगता है और केवल इसी कारण मैं सबेरे आपसे नहीं मिल था।"
महाराज ने बहुत-बहुत क्षमायाचना की और थोड़ी देर तक पिताजी से बातें करने के बाद वे उन्हें अपने साथ ले गए। इसके बाद वे दोनों आजीवन बड़े अच्छे मित्र बने रहे।
ये कुछ असम्बद्ध स्मृतियाँ हैं जो अनायास मन में उभर आई हैं। इनसे पिताजी के जीवन और चरित्र पर किंचित प्रकाश पड़ता है। लेकिन ऐसी स्मृतियों की श्रृंखला अटूट है। अन्य लोगों के सन्दर्भ में उनकी चर्चा आगे भी आ सकती है।...

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