'प्रेम' की दो अद्भुत व्याख्याएं, दो विभूतियों (पहली निरालाजी, दूसरी सुमित्रानंदन पंतजी की) की कलम से, पूज्य पिताजी की बहुत पुरानी १९३३ की पॉकेट डायरी से, जो अब ताड़-पत्र-सी हो गई है, आप सबों के अवलोकन के लिए....--आनंद]
सार्थक प्रस्तुति। -- आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (12-01-2015) को "कुछ पल अपने" (चर्चा-1856) पर भी होगी। -- सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ... सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कविता रावतजी, पिताजी की १९३३ की पॉकेट डायरी की दशा तो ऐसी है, जैसे ताड़-पत्र...! मुड़ जाए तो टूटने का ख़तरा...! मैंने उस मूल पृष्ठ की फोटो कॉपी करवा ली, फिर कैमरे के क्लिक से उसकी तस्वीर उतारकर आपके सम्मुख रही है, तभी वह तरोताज़ा दिख रही है... वस्तुतः वह ऐसी है नहीं...!
3 टिप्पणियां:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (12-01-2015) को "कुछ पल अपने" (चर्चा-1856) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह! इतनी पुरानी होकर भी कितनी नयी है ...जैसे अभी लिखा हो...
आभार!
कविता रावतजी,
पिताजी की १९३३ की पॉकेट डायरी की दशा तो ऐसी है, जैसे ताड़-पत्र...! मुड़ जाए तो टूटने का ख़तरा...! मैंने उस मूल पृष्ठ की फोटो कॉपी करवा ली, फिर कैमरे के क्लिक से उसकी तस्वीर उतारकर आपके सम्मुख रही है, तभी वह तरोताज़ा दिख रही है... वस्तुतः वह ऐसी है नहीं...!
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