रविवार, 27 दिसंबर 2015

मेरी परलोक-चर्चाएँ... (३१)

[जो तुम आ जाते एक बार !…]


प्राध्यापक महोदय के बुज़ुर्ग मित्र का नाम तो अब स्मृति से पूरी तरह मिट गया है, लेकिन पाठ और उल्लेख की सुविधा के लिए मान लीजिये कि उनका नाम शर्माजी था। मैंने दफ्तर से दोपहर में शर्माजी को फोन किया। मेरा फ़ोन पाकर वह प्रसन्न हो उठे। खिलकर बोले--'आनंदजी! मैं जानता था, आप मेरी मदद जरूर करेंगे ?' मेरे फोन को ही उन्होंने मेरी स्वीकृति मान लिया था और बहुमुख हो उठे थे, कहने लगे--'आप जब कहें, जहाँ कहें, मैं वहीं आ जाता हूँ। आप चाहें तो मैं अपने निवास पर ही आपको अपनी गाड़ी से लिवा लाऊँ। यह संपर्क मेरे घर पर भी हो सकता है न? कहिये तो आज ही रात अपने बेटे को आपके घर भेज दूँ, वह आपको अपने साथ ले आएगा। आपको मेरा घर खोजने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी।'
उनके प्रश्न और सुझाव ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे थे। मैंने उन्हें बीच में ही रोका और कहा--'देखिये, शनिवार तक मेरा प्रतिदिन का दफ़्तर है। इस बीच यह काम हो न सकेगा। हाँ, शनिवार की रात को मैं इस काम को अवश्य करने की चेष्टा करूँगा। और, इस बीच हम ये भी तय कर लेंगे कि यह सम्पर्क-साधन कहाँ हो!''
मेरे उत्तर से उनकी उत्फुल्लता कुंद हो गई। बुझी-बुझी आवाज़ में उन्होंने कहा--'शनिवार में तो अभी चार-पांच दिन शेष हैं, तब तक मुझे प्रतीक्षा करनी होगी…?'
उनके स्वर की निराशा को लक्ष्य कर मैंने उन्हें समझाया कि परा-संपर्क पूरी निश्चिंतता, गहरी एकाग्रता और पूरे मनोयोग का काम है, उसे भागमभाग में नहीं किया जा सकता। अपने प्रश्नों के सटीक उत्तर प्राप्त करने हों, तो हमें प्रतीक्षा करनी होगी।
शर्माजी निरुत्तर हो गए। स्थिति यह थी कि दस-ग्यारह महीने से बंधी-धरी गठरी उतारनी थी मुझे, उसपर पड़ी गर्द झाड़नी थी और शीशे के गिलास को परिशुद्ध करना था। मेरी सुविधा का दिन शनिवार ही था, क्योंकि रविवार मेरी छुट्टी का दिन था, दफ्तर जाने की जहमत नहीं थी। रात घर पहुंचकर मैंने पिताजी को शर्माजी से हुई बातचीत का ब्यौरा दिया। मैंने उन्हें यह भी बताया कि वह चाहते हैं कि प्लेंचेट मैं उन्हीं के घर पर करूँ। दरअसल, यह मेरे मन का अवगुंठन था। मेरे मन के किसी एकांत में चालीस दुकानवाली का भय चोर बनकर बैठा हुआ था। मुझे डर था कि प्लेंचेट मैं अपने घर करूँगा तो पिताजी वहाँ अवश्य उपस्थित होंगे ही और यदि उनकी उपस्थिति में चालीस दुकानवाली आ गई तो न जाने वह अपनी भड़ास किस रूप में निकाले। मैं नहीं चाहता था कि हमारी प्रगाढ़ मैत्री के वे प्रक्षिप्त पृष्ठ पिताजी के समक्ष खुल जायें और मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़े। मैं इस स्थिति से बचना चाहता था।…मेरी बात सुनकर पिताजी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मुझे प्रतीत हुआ कि उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि मैं प्लेंचेट कहाँ करूँगा--अपने घर या शर्माजी के। दूसरे दिन मैंने फोन पर शर्माजी को इस बात की सूचना भी दे दी कि शनिवार की रात उन्हीं के यहाँ यह अनुष्ठान होगा।
जानता हूँ, शर्माजी ने वे चार-पांच दिन बेचैनी से बिताये होंगे, लेकिन उन दिनों को भी तो बीत ही जाना था, वे बीत गए। शनिवार आ पहुँचा। दफ्तर जाने पहले ही मैंने गठरी उतारी और उसकी गांठें खोलीं। गठरी की गांठें खोलते हुए मुझे लग रहा था, जैसे मैं चालीस दुकानवाली आत्मा को बंधन-मुक्त कर रहा हूँ, आज वह खुली हवा में सांस ले सकेगी और रात्रिकाल में, जब मैं शर्माजी की दिवंगता देवी को पुकारूँगा तो, सर्वप्रथम वही मेरे ग्लास में प्रविष्ट हो जायेगी।…लड़े-झगड़ेगी मुझसे…!
बोर्ड का बुरा हाल था, बाढ़ की उमस और सीलन झेलकर उसपर धूल के साथ 'फंगस' भी जमा हो गया था। उसे झाड़-पोंछकर धूप में रख आया। शीशे के ग्लास को भी स्वच्छ किया और उलटकर रख दिया। मुझे इस बात की फिक्र नहीं थी कि आज की रात शर्माजी की समस्या का समाधान हो सकेगा या नहीं, लेकिन मुझे इसका विश्वास जरूर था कि उनकी धर्मपत्नीजी को मैं परलोक से बुलाने में सफल हो जाऊँगा। शर्माजी की व्यग्रता से मेरी व्यग्रता कमतर नहीं थी। मेरी व्यग्रता में चालीस दुकानवाली आत्मा से एक अदद वार्तालाप की उम्मीद/उत्सुकता बंधी हुई थी, तो शर्माजी की व्यग्रता में उनकी समस्या के समाधान की कुंजी मिलने की आस लिपटी थी।…
उस दिन शाम के वक़्त मैं दफ्तर से थोड़ा जल्दी ही लौट आया था। रात ९ बजे शर्माजी के ज्येष्ठ सुपुत्र मुझे अपनी गाड़ी से लिवा ले गए। मॉडल टाउन से उनका घर दूर नहीं था। किंग्सवे कैंप से थोड़ा आगे, मॉल रोड प्रक्षेत्र में, उनका निवास था, हम २०-२५ मिनट की दूरी तय कर वहाँ पहुँच गए थे। सुरुचिपूर्ण ढंग से उनका ड्राइंग रूम सजाया गया था। सेंटर टेबल एक किनारे रख दी गयी थी और बीच के खाली स्थान में एक कालीन बिछा दी गई थी। पूर्व-परिचित प्राध्यापक महोदय भी वहाँ उपस्थित थे। शर्माजी से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी। वह मुझसे बड़े प्रेम से मिले। मुखर और संभ्रांत व्यक्ति लगे। औपचारिक प्रश्नों के बाद वह सीधे मुद्दे की बात पर आये और मुझसे पूछने लगे--'मुझे और क्या व्यवस्था करनी है? आपके कहे अनुसार अगरबत्ती, मोमबत्तियां और धूप-सामग्री मंगवा ली है मैंने ! बाज़ार अभी आधे घंटे और खुला मिलेगा। आप जो कहें, मैं तत्काल मंगवा लूँ!' मैंने उन्हें मुश्किल से आश्वस्त किया कि और कुछ भी वांछित नहीं, सिवाय दिवंगता देवी के एक चित्र के। उनकी क्षिप्रता देखकर मुझे आशंका थी कि वह जल्दी ही मुझे बोर्ड बिछाने को बाध्य कर देंगे। मैंने उनसे एक लम्बे विराम की याचना की, लेकिन उन्होंने समझा कि अनुष्ठान के पहले मैं किसी प्रकार का यत्न-प्रयत्न करना चाहूंगा। जबकि लम्बा विराम मैं सिर्फ इसलिए चाह रहा था कि आत्माओं से संपर्क का उचित समय हो जाए, तब संपर्क की चेष्टा करूँ, अन्यथा पुकार निष्फल जाएगी। मैंने शर्माजी से कहा--'बारह बजते ही मैं आत्मा का आह्वान करूँगा, आप चिन्ता न करें।'
बारह बजने के पहले ही मैंने विधि-व्यवस्था बना ली थी। श्रीमती शर्मा का फ्रेम-जड़ित चित्र सम्मुख रख लिया था। धूपदान की अग्नि प्रज्ज्वलित थी, अगरबत्तियाँ जल उठी थीं और कक्ष की खिड़कियाँ खुली हुई थीं। समय होते ही मैं ध्यानस्थ हुआ, लेकिन चित्त में छवियों का अजीब घाल-मेल था--मैं पुकार तो श्रीमती शर्मा को रहा था, किन्तु मन में विराज रही थी चालीस दुकानवाली ! मैं स्वयं ही इस दुविधा में था कि इस दुहरी मनःस्थिति में मेरी पुकार न जाने किसके पास पहुँचे, कौन पहले आ जाए मेरे पास ! लेकिन श्रीमती शर्मा की आत्मा प्रबल निकली। वह तो उन्हीं का घर था, आज जैसे वहीं विराज रही थीं, तत्काल आ पहुँचीं। किसी आत्मा की उपस्थिति का जैसे ही मुझे आभास हुआ, मैंने ग्लास बोर्ड पर रखा और पूछा--'देवि ! आप कौन हैं? अपना परिचय दें।'
आत्मा ने अपना नाम बताया, जो मुझे ज्ञात नहीं था। मैंने शर्माजी की ओर जिज्ञासा-भरी नज़रों से देखा। वह भावुक हो रहे थे। उन्होंने बताया कि यह उनकी पत्नी का नाम है। अब यह सुनिश्चित हो गया था कि श्रीमती शर्मा वहाँ आ गयी थीं। फिर बातों का सिलसिला चल पड़ा। लम्बी वार्ता में आत्मा ने जो कुछ बताया, वह चौंकानेवाला था।
श्रीमती शर्मा की आत्मा ने बताया था कि जरूरी सारे कागज़ात उन्होंने गाँववाले घर में रख छोड़े हैं--प्लास्टिक के एक थैले में, अमुक संदूक में। संदूक में लगे ताले की चाबी यहीं घर में, कबर्ड के ड्रावर में, रखी है। इन चाबियों को लेकर शर्माजी गाँव जाएँ और उन कागज़ों को ले आएं, वे वहाँ सुरक्षित हैं।
उस कमरे में सारा घर सिमट आया था--शर्माजी के दोनों सुपुत्र और एकलौती बिटिया ! वार्ता की समाप्ति के पहले शर्माजी ने विह्वल होकर अपनी दिवंगता पत्नी से पूछा था--"आप जहां हैं, वहाँ खुश हैं न?" आत्मा ने उनसे कहा था--"मैं यहां परम शान्ति में हूँ, प्रसन्न हूँ। आप मेरे लिए दुखी न रहा करें, अपना ख़याल रखें और बेटी का विवाह प्रसन्नतापूर्वक करें। मेरे मन में बड़ी साध थी कि उसका विवाह मैं खुद करूँ, लेकिन वह मेरे भाग्य में नहीं था; किन्तु उस ख़ुशी के मौके पर मैं आप सबों के आसपास ही रहूँगी--इस बात का विश्वास रखें।" इसके बाद उन्होंने अपनी बिटिया के लिए भी कुछ आशीर्वचन कहे थे।....
ये सारी बातें सुनकर पूरा परिवार बिलख पड़ा था। मेरी वर्जना का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। भावुकता-विह्वलता का वह प्रवेग इतना तीव्र था, जिसे बाँध पाना कठिन था। आत्मा को विदा करते हुए मेरे हाथ काँप रहे थे--संसार का यह दारुण दुःख मेरी अन्तरात्मा को भी हिला गया था।....
श्रीमती शर्मा की आत्मा को विदा करने के बाद मैंने ग्लास-बोर्ड समेटा। इस बीच शर्माजी कबर्ड से वह चाबी निकाल लाये, जिसका ज़िक्र आत्मा ने किया था। चाबी मुझे दिखाते हुए शर्माजी ने कहा था--'आनंदजी! मुझे क्या मालूम था कि यही वह कुंजी है, जो मेरी समस्याओं का निवारण करेगी, इसे तो मैंने कई बार देखा था, उनके जाने के बाद…!' इतना कहकर वह फिर रो पड़े थे। प्राध्यापक महोदय ने उन्हें सँभाला था।
जब शर्माजी के घर से रात दो बजे लौटने लगा, तो एक समस्या के समाधान की प्रसन्नता की जगह, मेरे मन में क्षोभ समाया हुआ था--आखिर क्यों नहीं आई आज भी चालीस दुकानवाली आत्मा? क्या इतनी नाखुश है मुझसे?...
कार की खड़की से आती हवाओं में लहराती आ रही थीं महादेवीजी की पंक्तियाँ--
"जो तुम आ जाते एक बार !
कितनी करुणा, कितने सँदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग,
जो तुम आ जाते एक बार !!…"
(क्रमशः)

2 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

श्रृंखला की अगली कड़ी का इंतज़ार, मैं उसी तरह करती हूं, जैसे कभी धर्मयुग के आने का करती थी..

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी, आपका आभार! एक आप और एक बेनामीजी मेरी इस श्रृंखला के सजग पाठक हैं, यह मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ...!